अश्विनी कुमार

बात उन दिनों की है, जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। मेरा चयन जिला स्तरीय टेनिस प्रतियोगिता के लिए हुआ था। मैं टेनिस अच्छा खेलती थी। जिला स्तरीय खेल प्रतियोगिता में चयन होना मेरे लिए गर्व की बात थी। घर में सभी बहुत खुश थे। फिर वह पल भी आया जब जिला स्तर पर मैं विजयी हुई। अब मुझे राज्य स्तर पर खेलना था। मेरे विद्यालय में सभी मुझे बधाई दे रहे थे। खुद पर मैं बहुत गर्व महसूस कर रही थी।

राज्य स्तर पर इतनी कम उम्र में खेलना कोई छोटी बात नहीं थी। मैंने भी ठान लिया था कि किसी भी कीमत पर इस मैच को जीतना है, ताकि मैं अपने राज्य और विद्यालय का नाम रोशन कर सकूं। रोज सुबह उठ कर मैंने अभ्यास शुरू किया। सुबह चार बजे उठ कर दो घंटे टेनिस खेलना, फिर व्यायाम उसके बाद विद्यालय। शाम को लौट कर फिर खेल, फिर पढ़ाई। मैच में तीन महीने बचे थे। मैं काफी उत्साहित थी। सब कुछ अच्छा चल रहा था। एक दिन मैं खेल कर घर लौट रही थी तो तबियत थोड़ी खराब महसूस होने लगी। घर पहुंचते-पहुंचते मुझे तेज बुखार हो गया। मां घबरा गई। पापा घर पर नहीं थे। मां मुझे डॉक्टर के पास ले गई। डॉक्टर ने दवा दी। रात भर में ज्यादा कुछ आराम नहीं मिला। सुबह मैं विद्यालय नहीं जा पाई। दूसरे दिन फिर दूसरे डॉक्टर के पास गई। डॉक्टर ने कहा कि मुझे अस्पताल में भर्ती होना होगा, वरना हालत और बिगड़ सकती है। मैं घबरा उठी। अब केवल इक्कीस दिन बाकी रह गए थे राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में। मैं रोने लगी। बार-बार यही सोच रही थी कि इतनी दूर आकर मेरा सपना टूट न जाए। मुझे अस्पताल में एक सप्ताह भर्ती रहना पड़ा। आठवें दिन मैं घर आई। मैं मानसिक रूप से टूट चुकी थी। काफी कमजोर भी हो गई थी। डॉक्टर ने मुझे एक महीने आराम करने को कह दिया था। मैच में अब सिर्फ तेरह दिन रह गए थे और मैं बिस्तर पर। मैच का सपना अब सपना ही रह गया था। दोस्तों के फोन आते तो मैं किसी से बात करना नहीं चाहती। मां-पापा और भाई मुझे बहुत समझाते, लेकिन मैं थी जो समझने के लिए तैयार नहीं थी। मैं स्वभाव से चिड़चिड़ी हो रही थी। दिन भर लेटे-लेटे यही सोचती कि अब मैं टेनिस नहीं खेल पाऊंगी। मेरे मन में एक डर-सा समा गया था। सच कहूं तो सचमुच में डर गई थी। यह मैच मेरे लिए कितना महत्त्वपूर्ण था, इसे सिर्फ मैं समझ पा रही थी। चाह कर भी किसी भी तरह का फैसला कर पाने में असमर्थ थी। घर में मेरे लिए उदासी और निराशा भरा माहौल था। कभी-कभी लगता कि इस सदमे के कारण मैं अब जिंदगी भर नहीं खेल पाऊंगी।

निराशा और उदासी भरे माहौल में एक दिन कमरे से निकल कर बालकनी में टहल रही थी। तभी देखा कि सामने सड़क पर भीड़ जमा है। मैं बाहर निकल पड़ी। फिर मैंने जो देखा वह मेरे लिए अविश्वसनीय घटना थी। मैंने देखा कि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दो ऊंचे-ऊंचे खंबे लगे हैं और उसमें एक रस्सी बंधी है। एक छोटी-सी बच्ची रस्सी पर चल कर अजीबोगरीब करतब दिखा रही है। उस करतब को देख कर मुझे ऐसा लगा कि वह अब गिरी कि तब गिरी। लेकिन रस्सी पर उसका संतुलन गजब का था। वहां से गिरना मतलब सीधे मौत के मुंह में जाना। लेकिन वह सब कुछ बिना डरे, घबराए कर रही थी। मैंने उसका पूरा खेल देखा और घर लौटी। यह घटना मेरे लिए अनोखी थी। खेल खत्म होने पर मैंने उस छोटी लड़की से पूछा, ‘तुमको डर नहीं लगता?’ उसने जवाब दिया, ‘जितना डरोगी जिंदगी तुमको उतना डराएगी।’ मैं अब निरुत्तर थी। चुपचाप कमरे में लौट आई। इस घटना ने मेरे भीतर एक गजब का साहस और आत्मविश्वास भर दिया था। रात भर मैंने बहुत कुछ सोचते-सोचते करवट बदला और सुबह बिना किसी को बताए टेनिस का अभ्यास शुरू कर दिया। दो-चार दिन तुरंत थकान और कमजोरी महसूस हुई, लेकिन हमेशा मेरे दिमाग में उस लड़की का चेहरा और उसकी बातें घूमती रहती कि ‘जितना डरोगी जिंदगी तुमको उतना डराएगी।’
इस बात को याद करते ही मैं यही सोचती कि जिंदगी से इतनी जल्दी हार नहीं मानूंगी और डरूंगी भी नहीं। आखिरकार मैच का दिन भी आ गया। मेरे माता-पिता चिंतित थे, लेकिन मुझे हौसला दे रहे थे। मैच शुरू होने से पहले मैंने उस छोटी बच्ची को मन ही मन याद किया और खेलने मैदान में उतर गई। शुरुआती दौर में मैं कमजोर जरूर रही, लेकिन बहुत जल्द मैच मेरे पक्ष में आने लगा और कुछ ही देर में मैंने राज्य स्तरीय प्रतियोगिता जीत ली। यह अद्भुत क्षण था मेरे लिए। तब से लेकर आज तक जब भी किसी चीज को लेकर निराश होती हूं तो उस पल को याद करती हूं। उस घटना ने मुझे न केवल जीना सिखाया, बल्कि जिंदगी के बारे में सोचने का नजरिया ही बदल दिया।