प्रकाश मनु 

जाते दिसंबर की कड़ी ठंड के बावजूद साहित्य-सभा के प्रांगण में उस दिन भारी भीड़ थी। बहुत से जाने-माने लेखक, कवि, चिंतक और पत्रकार वहां मौजूद थे। सभी को खुशी थी कि शहर के सबसे वरिष्ठ और स्वनामधन्य लेखक सरस्वती बाबू को आज सम्मानित किया जा रहा है। सभी का उत्साह उमड़ा पड़ रहा था।
साहित्य-सभा के हॉल में मंच के आसपास खूब चहल-पहल थी। कैमरामैन अपने कैमरे लिए उपस्थित दर्शकों के फोटो खींच रहे थे। पत्रकारों के लिए अलग कतार थी, जहां वे कागज-कलम लिए बैठे थे। कुछ टीवी के लोग भी आए थे, जो बड़े-बड़े कैमरे लेकर सभा की रिकार्डिंग कर रहे थे।
ठीक समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ। मंच संचालक ने साहित्य-सभा के प्रमुख आशुतोष महोपाध्याय और कार्यक्रम के अध्यक्ष पद्मधरजी को मंच पर बुलाया। साथ ही सरस्वती बाबू को भी बड़े सम्मान और आदर के साथ आमंत्रित किया।
आशुतोष महोपाध्याय ने सरस्वती बाबू की प्रशंसा करते हुए, बड़ा भावपूर्ण भाषण दिया। सरस्वती बाबू को उन्होंने सच्चा सरस्वती-पुत्र बताया, जिन्होंने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, सभी कुछ लिख कर साहित्य का भंडार भरा। साहित्य की तीन पीढ़ियां उनसे प्रभावित हुर्इं। इसके बाद पद्मधरजी ने सरस्वती बाबू के लेखन की बहुत-सी विशेषताएं गिनार्इं। उनकी पचास बरस लंबी अनवरत साधना का जिक्र किया। फिर उन्होंने सरस्वती बाबू को शाल ओढ़ा कर श्रीफल और प्रशस्ति-पत्र प्रदान किया। गले में गेंदे और गुलाब के फूलों की माला।
आंखों में गहरी श्रद्धा लिए लोग अपने प्रिय लेखक का यह सम्मान देख, गदगद थे। अब महोपाध्यायजी ने सरस्वती बाबू से अनुरोध किया कि वे मंच पर आकर अपनी लंबी साहित्य साधना और जीवन के अनुभवों के बारे में कुछ कहें।
सरस्वती बाबू माइक पर आकर खड़े हुए, तो उपस्थित दर्शकों ने तालियां बजा कर उनका स्वागत किया। कैमरे वालों के लेंस उधर घूम गए। पत्रकार उनका भाषण नोट करने के लिए संभल कर बैठ गए। सभी को उत्सुकता थी कि इस खुशी और सम्मान के मौके पर सरस्वती बाबू क्या कहेंगे?
सरस्वती बाबू ने हॉल में सब तरफ निगाहें घुमार्इं। कुछ कहना चाहते थे। होंठ थोड़े खुले, फिर एकाएक वे चुप हो गए। उनके मुंह से एक शब्द तक नहीं निकला।
जैसे शब्द होंठों तक आकर पीछे लौट गए हों। कुछ सकुचा कर।
क्यों भला?
सब हैरान! सरस्वती बाबू को आज हो क्या गया है? सरस्वती बाबू कुछ कह क्यों नहीं रहे?
सब जानते थे कि सरस्वती बाबू बहुत अच्छे वक्ता हैं। उनके भाषण से सब प्रभावित हो जाते थे और कई-कई दिनों तक उसकी चर्चा करते थे। पर आज लगता था, जैसे वे बोलना ही भूल गए हों।
पूरे हॉल में अजीब-सा सन्नाटा था। एकाएक लोगों को सरस्वती बाबू का डूबा-डूबा सा स्वर सुनाई दिया।
‘उपस्थित सज्जनो! मैं आप सभी का शुक्रगुजार हूं कि आप यहां आए और मुझे सम्मान के योग्य समझा। लेकिन क्षमा करें, आज मैं ज्यादा कुछ बोल नहीं पाऊंगा। मेरा गला रुंधा हुआ है। क्यों…? किसलिए? यह भी नहीं बता पाऊंगा।
‘बस, इतना ही समझ लीजिए, मुझे पुराने दिन याद आ रहे हैं। अपना बचपन याद आ रहा है। बचपन की अपनी गुरु याद आ रही हैं। वे यहां नहीं हैं। वे अब इस धरती पर भी नहीं है। लेकिन मुझे बनाने वाली वही थीं। मैं तो कायर था, हार गया था और मैदान छोड़ कर भाग निकला था, पर वे नहीं हारीं। अगर वे इतनी कोशिश न करतीं, अपना पूरा बल न लगा देतीं, तो आज मैं यहां आपके सामने खड़ा न होता। लेखक होना तो दूर, मैं शायद अनपढ़, उजड्ड ही रहता। मेरी वे बचपन की गुरु थीं, मेरी मां। वे अब गुजर चुकी हैं। हां, गंगा काका जरूर हैं, जो इस पूरी कहानी को जानते हैं। मुझे खुशी है कि वे मेरे सामने बैठे हैं। उनका चेहरा देखते ही, बस मुझे अपना बचपन याद आ गया। आज मैं उसी बचपन की एक छोटी-सी कहानी आपको सुनाऊंगा।…’
कहते-कहते सरस्वती बाबू ने थोड़ी देर के लिए आंखें बंद कर लीं। लगा, जैसे वे उड़ कर सचमुच अपने बचपन के दिनों तक पहुंच गए हैं।
फिर वे जैसे थाह पा गए हों। बहुत भीगे हुए स्वर में वे बता रहे थे :
मित्रो, आज से कोई पचास बरस पहले की बात है। तब मैं अपने गांव हिरनापुर में पहली कक्षा में पढ़ता था। पढ़ने में ज्यादा होशियार नहीं था और रोज मेरी पिटाई होती थी। हमारे स्कूल में कक्षा एक में पढ़ाने के लिए एक ही अध्यापक थे, मास्टर कमलाकांतजी। पढ़ाते तो ठीक थे, पर गुस्सा उनका तेज था। उनके गुस्से के मारे मैं थर-थर कांपता था और जो कुछ आता था, वह भी भूल जाता था। कभी गलत वर्णमाला लिखने के लिए मेरी पिटाई होती, तो कभी गिनती-पहाड़े याद न करने के लिए।
हालत यह थी कि वे मेरा नाम लेकर पुकारते, ‘सरू…!’ तो मुझे लगता, जैसे मेरे अंदर की सारी ताकत निकल गई है। मैं जूड़ी के बुखार की तरह थर-थर कांपने लगता। हाथ में पकड़ी कलम मेरे हाथ से छूट कर नीचे जमीन पर गिर पड़ती और एक तेज भौंकार के साथ मैं रो पड़ता।
पर मास्टर जी को इस पर भी दया न आती। वे एक के बाद एक गाल पर तीन-चार थप्पड़ जड़ देते। मुझे लगता, मुझसे ज्यादा अभागा इस दुनिया में कोई और नहीं है। और जितने देवी-देवताओं के नाम याद थे, मैं सबको नाम लेकर पुकारता कि वे इस आफत से मेरा पिंड छुड़ाएं।
घर में कोई और तो था नहीं, जो मेरी मदद करता। बस, एक मां थीं जो अनपढ़ थीं और सारे दिन खेत में काम किया करती थीं। उन्हें भला मैं अपनी परेशानी कैसे बताता? अंदर ही अंदर मैं रोता-बिसूरता रहता था। और मुझे लगता था, मैं जीवन में कभी पढ़-लिख नहीं पाऊंगा। और एक दिन जब कक्षा में मेरी बुरी तरह पिटाई हुई, मैंने तय कर लिया कि अब कल से स्कूल जाना बंद, एकदम बंद!
घर आते ही मैंने तख्ती एक ओर फेंकी, बस्ता दूसरी ओर, और मां को अपना फैसला सुना दिया, ‘मां, मैं स्कूल नहीं जाऊंगा।’
सुन कर वे तो जैसे हक्की-बक्की रह गर्इं। उनका उस समय का चेहरा मुझ अब भी याद है। एकदम म्लान। स्याह। मेरी बात सुनते ही उनके चेहरे पर दुख की गहरी छाया दिखाई पड़ने लग गई।
बहुत देर तक उनके मुंह से कोई आवाज ही नहीं निकली। फिर वे जैसे अंदर का पूरा जोर लगा कर बोलीं, ‘बेटा, तो क्या तू अनपढ़, उजड्ड ही रह जाएगा?’
‘अनपढ़… उजड्ड…!’ सुन कर मुझे बुरा लगा। पर मैं क्या कहता? मेरे मुंह से बस इतना ही निकला, ‘अम्मां, न मुझे वर्णमाला आती है, न गिनती, न पहाड़े। तो…तो फिर…!’ कहते-कहते मैं बुरी तरह रो पड़ा।
मां ने झट मुझे छाती से लगा लिया। खूब लाड़-प्यार करके बोलीं, ‘अरे सरू बेटे, तू रोता क्यों है? कुछ न कुछ हो जाएगा। तू पढ़ेगा, तू जरूर पढ़ेगा।’
उनकी आवाज में एक निश्चय था। विश्वास।
‘पर कैसे, अम्मां…? घर में कोई मुझे पढ़ाने वाला नहीं है। और स्कूल में मास्टर जी की कोई बात मुझे समझ में नहीं आती।… तो मैं कैसे पढ़ूं? कुछ भी मुझे याद नहीं होता।…’ मैंने अपनी लाचारी बताई।
मां कुछ देर मुझे अपलक देखती रहीं। अपने भीतर की सारी शक्ति जैसे वे मुझमें भर देना चाहती हों। फिर पूरे यकीन के साथ, एक-एक अक्षर पर जोर देकर उन्होंने कहा, ‘मैं हूं न!… मैं तुझे पढ़ाऊंगी।’
मैं चकित रह गया। पूछा, ‘अम्मां, तुम पढ़ाओगी?’
मां के चेहरे पर दृढ़ता थी। बोलीं, ‘हां बेटा, मैं पढ़ाऊंगी। जरूर पढ़ाऊंगी। मेरा बेटा अनपढ़ नहीं रहेगा।’
मां खुद अनपढ़ थीं, पर शायद थोड़ी-सी गिनती और वर्णमाला उन्होंने बचपन में सीख ली थी। बस, पहाड़े नहीं आते थे। उन्होंने कहा, ‘तू चिंता मत कर। गिनती और अक्षर-ज्ञान मैं करा दूंगी। पहाड़े गंगा काका से सीख लेना। पड़ोस में ही तो हैं।’
मुझे मां की बात पर यकीन नहीं हो रहा था। सच कहूं तो उनकी बात मुझे किसी किस्से-कहानी जैसी लगी। बात सुनने में अच्छी थी, पर जीवन तो किस्से-कहानी से अलग होता है न!
फिर भी मां का दिल न दुखे, इसलिए मैंने हां कह दी।
छोटा था, पर इतना जानता था, मां के चेहरे पर चमक देख कर मुझे खुशी होती है। बहुत खुशी।
मां ने सच ही बहुत दुख झेले थे। हम लोग गरीब थे। इतने गरीब कि चाक और खड़िया भी नहीं जुटा सकते थे। कच्चा आंगन था। मां वहीं बैठ जातीं और साथ में मुझे बैठा लेतीं। मिट्टी पर उंगलियां फिरा कर पहले खुद क, ख, ग लिखतीं, फिर उंगली पकड़ कर मुझसे लिखवातीं। ऐसे ही थोड़ा-थोड़ा सीखा तो हिम्मत आई।
फिर तो मैं कोयले से जगह-जगह घर में क, ख, ग लिखने लगा। मां नाराज होने के बजाय उलटे खुश होतीं कि उनका बेटा लिखना सीख रहा है। खूब प्यार से मेरी पीठ थपथपातीं। फिर कहतीं, ‘अब मेरे साथ बोल न बेटा, क से कबूतर ख खरगोश…!’
मुझमें जाने कैसी उमंग भर जाती। ‘क से कबूतर…ख खरगोश…प से पतंग, भ भट्टी…!’ जो कुछ याद था, उसे छलक-छलक कर गाता। और जो याद नहीं था, उसे बार-बार दोहरा कर याद करने की कोशिश करता।
होते-होते वर्णमाला पूरी हो गई। जैसे मां की सुबह-सुबह सुमरन वाली माला हो।
इसी तरह गिनती उन्होंने मुझे सिखाई। उन्हें पता था, मैं आमों का शौकीन हूं। गंगा काका का आमों का बगीचा था। उनसे मांग कर छोटे-छोटे आम या अमियां ले आतीं। उनकी अलग-अलग ढेरियां बना कर समझातीं, ‘देख बेटा, यह एक है, यह दो, यह तीन, यह चार…! अब यह जो आम की ढेरी मेरे पास रखी है, उसमें कुल कितने आम हैं? ठीक-ठीक गिन कर बता दे, तो ये सारे आम तुझे खाने को मिलेंगे।’
मैं झटपट बता देता। कहता, ‘पांच आम… पांच आम…! अब झटपट खिलाओ मुझे पांच आम!’
और यों गिनती सीखने का सिलसिला शुरू हुआ। दस तक सीख गया, तो फिर आगे झटपट सीखता गया। मन में पहली बार मैंने ऐसा उत्साह महसूस किया। लग रहा था, अगर हम सीखना चाहें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है।
फिर गंगा काका से पांच तक पहाड़े भी सीख लिए। गंगा काका का अंदाज अनोखा था। वे ऐसे पहाड़े याद करा देते, जैसे पहाड़े न हों, कोई बढ़िया-सा गाना हो। बीच-बीच में खूब हंसाते। पहाड़े सही-सही सुना देता तो खूब सारे आम खिलाते। साथ ही सिर पुचकार कर कहते, ‘तू तो बड़ी तरक्की करेगा, बचवा। बड़ा आदमी बनेगा। हम सच्ची कह रहे हैं।’
फिर वे मां के पास जाकर भी मेरी खूब बड़ाई करते। कहते, ‘बचवा होनहार है। देखना, एक दिन बड़ा नाम कमाएगा। हम कहे देत हैं।’
सुन कर मां के उदास, थके चेहरे पर मुसकान आ जाती। उनकी आंखों में भी वह नजर आती।
मैं सोचता था, जैसे मां पढ़ाती हैं, जैसे गंगा काका पढ़ाते हैं, वैसे मास्टरजी क्यों नहीं पढ़ाते? ये लोग अनपढ़ हैं, मगर कैसे प्यार से पढ़ाते हैं। कितना आनंद आता है पढ़ने में।
आसपास चिड़ियों की चह-चह सुनाई देती, तो मैं आनंद के अतिरेक में अपनी याद की हुई वर्णमाला, गिनती और पहाड़े बोल-बोल कर उन्हें भी याद कराने लगता।
मन में अलग ही जोश था, बरसाती नदी जैसा। उद्दाम।
कोई पंद्रह दिन के अंदर ही मैं वर्णमाला, गिनती, पहाड़े सब सीख गया। मां ने एक बार सुना, दो बार सुना। दस बार सुना। फिर बोलीं, ‘अब भूलेगा तो नहीं, सरू? सच-सच बता।’
‘नहीं भूलूंगा, अम्मां। बिल्कुल नहीं भूलूंगा।’ मैंने उन्हें यकीन दिलाया।
‘तो चल मेरे साथ…!’ कह कर मां ने मेरी उंगली पकड़ी और मुझे अपने साथ स्कूल ले गर्इं।
वे सीधे मास्टर कमलाकांतजी के पास जा पहुंचीं। बोलीं, ‘मास्टरजी, यह सरू स्कूल आने से डर रहा था। मैं अनपढ़ ही हूं, फिर भी कोशिश करके इसे थोड़ा-थोड़ा पढ़ाया है। अब आप इससे वर्णमाला, गिनती, पहाड़े कुछ भी पूछ लीजिए। यहीं, मेरे सामने। मारिएगा नहीं। मारने से यह सब कुछ भूल जाता है।’
मास्टरजी थोड़ा असमंजस में नजर आए। पर उन्होंने पूछा तो मैं वर्णमाला, गिनती-पहाड़े सब झटपट सुनाता चला गया। कहीं भी मुझे अटकना नहीं पड़ा। सुन कर मास्टरजी खुश हुए। थोड़े शर्मिंदा भी, कि जो काम वे नहीं कर पाए, गांव की एक अनपढ़ औरत ने कैसे कर दिखाया?
मुसकराते हुए बोले, ‘ठीक है चाची, ठीक है… अब यह चल जाएगा।’
‘कुछ कसर है मास्टरजी, तो बताइए। मैं इसे थोड़ी और तैयारी करवा के लाती हूं। पर… इसे मारिएगा नहीं मास्टरजी। बच्चे का दिल कोमल है, मारने से यह सब भूल जाता है।’ मां का प्यार आंखों से झर रहा था।
‘नहीं-नहीं, चाची। मारूंगा क्यों? अब तो यह खूब चल निकला है। आपने तो जैसे जादू कर दिया…!’ कहते-कहते मास्टर कमलाकांतजी की खुशी छिप नहीं रही थी।
और फिर बचपन की वह रुकी हुई कहानी आगे बढ़ी। धीरे-धीरे आगे बढ़ती ही गई! कोई मुश्किल उसे रोक नहीं पाई। अक्षरों का उजाला दिल में फैलता गया, और लगा, अब भीतर कहीं अंधेरा नहीं है, कहीं अंधेरा नहीं…!
जैसे नदी के प्रवाह को किसी बड़ी चट्टान ने रोक रखा हो। और मां ने पूरी शक्ति, पूरी हिम्मत से उसे परे धकेल दिया हो। नदी फिर अपने कल-कल संगीत और उद्दाम वेग के साथ बहने लगी।
मां क्या होती है, यह तभी मैंने जाना। मां में कितनी शक्ति होती है, यह मैंने जाना। और मां क्या कर सकती है, यह मैंने जाना। और यह मैं कभी भूल नहीं पाया कि यह मां ही थी, जिसने मुझे दो-दो बार जीवन दिया। पहले यह शरीर, और उसके बाद आखरों के उजाले के रूप में…’ इतना कह कर सरस्वती बाबू रुके। जैसे अपने आपको संभाल रहे हों।
एक क्षण के बाद उन्होंने कहा : ‘उस साल मैं अपनी पूरी क्लास में फर्स्ट आया और आगे भी हमेशा मेरे अंक क्लास में सबसे ज्यादा आते। हाईस्कूल में तो मेरी सातवीं पोजीशन थी और मुझे स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। उसके बाद मैं कभी हारा नहीं। आगे ही बढ़ता चला गया। लेकिन… उस दिन अगर मां संभाल न लेतीं, तो आज मैं वाकई अनपढ़ होता।
मां मेरी पहली गुरु थीं। आज वे नहीं हैं, पर उनका चेहरा याद करके आज भी मेरी आंखें भर आती हैं। पर हां, गंगा काका जरूर सामने बैठे हैं। इस उम्र में यहां तक आने के लिए उन्हें कितना कष्ट करना पड़ा होगा। मुझे इजाजत दीजिए कि मैं उनके चरणों की धूल लेकर, उन्हीं के पास बैठूं।…
कह कर सरस्वती बाबू मंच से उतरे और गंगा काका के पास जाकर उनके चरणों पर जा गिरे। गंगा काका ने उन्हें छाती से लगा लिया और सिर पर हाथ फेरने लगे।
सभा में तालियों की गड़गड़ाहट होने लगी। सभी यह दृश्य देख कर भाव-विभोर हो उठे थे।
इसके बाद पद्मधरजी एक बार फिर उठे और उन्होंने सरस्वती बाबू के साहित्य और उनकी सफलता की जी भरकर प्रशंसा की। कहा, ‘सरस्वती बाबू की सच्ची महानता यही है कि उनका हृदय एक बच्चे की तरह सरल है।’
सभा समाप्त होने पर सरस्वती बाबू ने गंगा काका को अपनी कार में बैठाया और कार हिरनापुर गांव की ओर चल पड़ी।