रोहित कुमार
एक होता है ज्ञान, एक अधूरा ज्ञान और एक कुज्ञान। महावीर ने कुज्ञान को सबसे खतरनाक माना। अज्ञान उतना बुरा नहीं, जितना कुज्ञान होता है। ज्ञान प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करते रहना पड़ता है। लगातार अध्ययनों, अनुभव से प्राप्त बोध आदि के बावजूद जीवन भर व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता या आंशिक ही प्राप्त हो पाता है। इसलिए प्रबुद्ध लोग ज्ञान प्राप्ति के लिए लगातार प्रयास करते रहते हैं। मगर आज जिस तरह की स्थितियां बन गई हैं, शिक्षा की जैसी प्रणाली विकसित हो गई है, उसमें ज्ञान का अर्थ तथ्यात्मक समझ और सूचनाओं की जानकारी जुटा लेना भर मान लिया गया है।
तथ्य और सूचनाएं जुटाने के अब तो बहुत सारे साधन विकसित हो चुके हैं। हर हाथ में इंटरनेट वाला मोबाइल है, इच्छित जानकारी मांगो, तुरंत हाजिर हो जाती है। इस तरह अब ज्ञान पाने के लिए बहुत हाथ-पांव मारने की जरूरत नहीं, इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं। किसी गुरु, ज्ञानी की शरण में जाने की दरकार नहीं। अब ज्ञान साधना की चीज नहीं रह गई, तकनीक की चीज हो चुकी है।
ज्ञान के साधन जितने आसान होते जाते हैं, उतना ही अधूरे ज्ञान का विस्तार होता जाता है। भ्रम और ज्ञान के झूठे अहंकार का घटाटोप बढ़ता जाता है। सत्य और असत्य का भेद मिटता जाता है। असत्य अक्सर सत्य के ऊपर चढ़ बैठता है। बहुत सारे लोगों के दिमाग में असत्य को ही सत्य मनवा लेने की युक्तियां सफल होने लगती हैं। यांत्रिक ज्ञान ने हमारे समय में यही किया है। उसने अधूरे ज्ञान का साम्राज्य रच दिया है। उसमें कुज्ञान ही ज्ञान का पर्याय बनता जा रहा है।
ज्ञान की पहली शर्त है तर्क, मीमांसा। गलत और सही का फर्क करना। मगर सूचनाओं के घटाटोप ने इस कदर हमारी तर्क करने की क्षमता को कुंद कर दिया है कि हम सूचनाओं को जस का तस ग्रहण कर, मान लेते हैं कि हमारे ज्ञान में वृद्धि हो गई। तर्क करना जरूरी नहीं समझते। जांचना आवश्यक नहीं समझते कि जो सूचना हम तक पहुंची या पहुंचाई गई है, वह सत्य है या असत्य। बस, उसे मान लेते हैं।
इस तरह गलत सूचनाएं, गलत जानकारियां जब हमारे भीतर ज्ञान की जगह स्थापित हो जाती हैं, तो वे कुज्ञान कहलाती हैं। वह ज्ञान नहीं है, उसे हमने ज्ञान मान लिया है और उसी के आधार पर हम दुनिया भर से झगड़ते रहते हैं। विचित्र यह है कि जो चीज बिना तर्क के ग्रहण कर ली गई है वह दूसरों के सामने तर्क करके स्थापित हो ही नहीं सकती। हम अपनी जानकारी को तर्क से दुरुस्त नहीं करना चाहते, दूसरे की जानकारी को तर्कहीन और बेबुनियाद, झूठी करार देते रहते हैं।
भारतीय दर्शन में संदेह और नकार का भी महत्त्व है। हर संकल्पना पर संदेह करो, तभी सत्य तक पहुंचने का मार्ग बनता है। इसीलिए ‘नेति नेति’ कहा गया। जो भी अवधारणा, जो भी संकल्पना सामने आई, उसे तरह-तरह से नकारने की प्रक्रिया सिखाई जाती थी। यह भी नहीं, वह भी नहीं। इस तरह तर्क करके सत्य तक पहुंचने का रास्ता बनता था। फिर संकल्पनाओं को अंतिम सत्य कभी नहीं माना गया। उसकी भी मीमांसा की जाती। उसकी चीर-फाड़। विज्ञान भी यह सिद्धांत अपनाता है, तर्कों पर, परीक्षणों के जरिए किसी संकल्पना को सिद्ध करने का प्रयास करता है।
इसीलिए हर सिद्धांत का वर्षों तक खडन-मंडन चलता रहता है, उसकी कमियों को तलाशने का प्रयास किया जाता है। जो यंत्र एक बार बन गया, उसे अंतिम नहीं मान लिया जाता, उसमें गुणात्मक परिवर्तन के प्रयास चलते रहते हैं। इसी तरह हर तकनीक उन्नत होती है। मगर अब जैसे तर्क करने, संकल्पनाओं, सिद्धांतों की चीर-फाड़, खंडन-मंडन, मीमांसा करने की प्रवृत्ति खत्म होती जा रही है। इसलिए कि हमें तर्क पसंद नहीं। संदेह बुरी चीज मानी जाने लगी है।
चीजों के सही अर्थ तभी खुलते हैं, उनका सही स्वरूप तभी प्रकट होता है, जब हम उन्हें तर्क के माध्यम से ग्रहण करते हैं। जहां तर्क करना छोड़ देते हैं, संकल्पनाओं या सिद्धांतों को अंतिम मान लेते हैं, गड़बड़ी वहीं से शुरू हो जाती है। इस तरह न सिर्फ हम कुज्ञान की जकड़ में आ जाते हैं, बल्कि उग्र अज्ञानता को जन्म देते हैं। हालांकि सामान्यतया अज्ञान उतनी बुरी चीज नहीं, बशर्ते व्यक्ति को यह समझ हो कि वह अज्ञानी है, उसे सत्य का पता नहीं। मगर कुज्ञान इस बोध को ढंक देता है।
व्यक्ति के अज्ञान-बोध को छिपा देता है। उसकी जगह अहंकार भर देता है कि वह ज्ञानी है। उसे हर चीज की जानकारी है, वह सब जानता है, सत्य का वाहक सिर्फ वही है। इस तरह वह इतराए फिरता है, सबको हिकारत से देखना शुरू कर देता है और फिर अधिकार प्राप्त कर अपने कुज्ञान को दूसरों पर थोपना शुरू कर देता है। इसलिए समाज को उतना खतरा अज्ञानियों से नहीं माना गया, जितना कुज्ञानियों से माना गया।
मगर हमारी पूरी शिक्षा पद्धति ही मीमांसा से दूर होती गई है।
किताबों में जो लिख दिया गया है, उसे रट कर परीक्षाएं पास कर लेने भर की सीख दी जाती है। तर्क करने वाले विद्यार्थी को उद्दंड कह कर दंडित करने की प्रथा है। शासन से तर्क करने वाले नागरिक को द्रोही माना जाता है, उसे दंडित किया जाता है। इस तरह समाज में एक अजीब तरह का यथास्थितिवाद पनपता गया है। इससे सत्य कहीं तिरोहित हो गया है।
अपने अधिकारों तक के प्रति आवाज उठाने की कूव्वत लोगों में नहीं बची। सत्य का तिरोहित होना किसी भी समाज के लिए ठीक नहीं। यांत्रिक सूचनाओं को ज्ञान की जगह स्थापित कर देना खतरे से खाली नहीं। मनुष्यता सत्य की तलाश से सुरक्षित रहती है। बाजार या शासन व्यवस्था के थोपे हुए सिद्धांतों को अंतिम मान कर उन्हें स्वीकार कर लेने, उन्हें जीने लगने में न तो जीवन की सार्थकता है, न मनुष्य के विकास की निशानी।