जाबिर हुसैन

मेरी मां कहती थी-

कभी हुआ करता था
मेरे घर के बड़े से आंगन के
बीचोबीच, एक बड़ा-सा चबूतरा
जिसके फर्श हर दिन
गोबर से लीपे जाते थे
गोबर, जिसमें मिट्टी की गंध
मिल कर अजीब खुशबू
पैदा कर देती थी

उस बड़े चबूतरे के मध्य
पीपल या नीम का छायादार पेड़
जरूर हुआ करता था

मां कहती थी-

गांव की पंचायत इसी चबूतरे पर
बैठा करती थी
तरह-तरह के मसले सुलझाने
आपस की नोंक-झोंक
जब कभी उत्तेजना में बदल जाती थी
पेड़ से दो-चार हरी पत्तियां अचानक
चबूतरे पर गिर पड़ती थीं

वृक्ष-देव का हस्तक्षेप मान कर
उत्तेजित जन शांत पड़ जाते थे, और
मसले का हल अपने आप निकल आता था

उदास होकर मेरी मां कहती थी-

क्या पता, किस अशुभ घड़ी
पेड़ की बाहें तने से अलग हो गर्इं
धीरे-धीरे, एक-एक कर
बाहों का बोझ घटने से
पेड़ का तना कमजोर होता गया
फिर, अचानक ही, एक दिन, जड़ें हिलने लगीं
थक-हार कर, बारिश वाली एक अंधेरी रात
तेज आवाज के साथ पेड़
चबूतरे पर गिर पड़ा
जगह-जगह, चबूतरे में दरारें पड़ गर्इं

तब मेरा जन्म नहीं हुआ था

कुछ समय बाद, चलने-फिरने लायक हुआ तो
हाथ पकड़ कर मुझे मेरी मां
चबूतरे के पास ले गई
चबूतरे की दरारें तब भी कायम थीं
चबूतरे के मध्य एक बड़ा गड्ढा
तब भी साफ दिख रहा था
वर्षों से, लेकिन चबूतरे पर
गोबर की लेप नहीं चढ़ी थी
पंचायत अब वहां नहीं बैठती थी
मेरी मां तब मेरा हाथ पकड़ कर
मुझे घर लौटा लाई थी

मेरी मां को गए लंबा समय बीत गया

अब मैं पटना शहर में रहता हूं
आवास निगम के बनाए छोटे-से घर में
यहां कोई चबूतरा नहीं है
यहां कोई पीपल या नीम का
छोटा या बड़ा पेड़ भी नहीं है

पता नहीं, कब से, मैं अपने गांव के
उस चबूतरे की खोज में हूं
जिसके फर्श गोबर-मिट्टी
की लेप से खुशबू में
बदल जाते थे
जहां पंचायत बैठती थी
और, तमाम तरह के मसले
अपने-आप सुलझ जाते थे

कभी, खाब में आकर
मेरी मां ने मुझसे
उस चबूतरे के बारे में पूछ दिया
तो मैं क्या जवाब दूंगा।