हाल में कई ऐसी घटनाएं देखने-सुनने को मिलीं, जिसमें संतान की चाहत में कइयों ने मासूमों की बलि चढ़ा दी। इससे पहले भी ऐसी घटनाएं घटती रही हैं कि किस तरह ओझाओं, तांत्रिकों और औघड़ों के जाल में फंसकर महिलाएं और पुरुष अपने सगे-संबंधियों (कुछ मामलों में अपहरण किए गए बच्चों) की निर्मम हत्या कर देते हैं। भेद खुलने के डर से ऐसा नाटक रचते हैं जिससे समाज और प्रशासन उन पर शक न कर सके। लेकिन ऐसा करते वक्त वे यह भूल जाते हैं कि उनका नाटक तो महज एक नाटक होता है। बात महज इतनी ही नहीं है। इसके पीछे सैकड़ों साल की वे अंधविश्वासी पंरपराएं, पाखंड, कुरीतियां और बुराइयां हैं जो आज भी किसी न किसी रूप में जिंदा हैं।
तंत्र-मंत्र और षड्यंत्र की समस्या कोई नई नहीं है। यह उसी समाज का हिस्सा है जिस समाज में हजारों सालों से महिलाओं और लड़कियों को दोयम दर्जे का माना जाता रहा है। इसमें कुछ तो मजहब की पाबंदियां रही हैं, कुछ परंपरागत, कुछ आंचलिक अंधविश्वास तो कुछ रू ढ़ियां। वैज्ञानिकता या तर्क की इसमें कहीं गुंजाइश नहीं दखाई देती।
जिस समाज में ऐसे भयावह और क्रूर काले कारनामे होते आ रहे हैं, उसी समाज का हिस्सा वह तांत्रिक भी होता है, जो अपनी ठग विद्या के बल पर ऐसे हिंसाप्रद और गैरइंसानी कारनामों को बिना किसी डर के अंजाम देता है। दरअसल, इसमें समाज का वह हिस्सा ज्यादा रुचि लेता रहा है जो अशिक्षित और संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त होता है। तांत्रिक अपने तंत्र-मंत्र का जाल इन्हीं के इर्दगिर्द ही बुनता है। वह इसके लिए कई तरह के हथकंडे भी अपनाता है। महिलाओं को उनकी ‘चाहत’ को पूरा करने का यकीन दिलाना, उन्हें नशीली दवाएं खिलाना आदि तरकीबें भी हथकंडे में शामिल हैं। अपनी नकली शोहरत और शिगूफों को इस तरह से फैलाना की समाज के लोग यकीन कर सकें कि अमुक तांत्रिक या ओझा पहुंचा हुआ है आदि। आमतौर तांत्रिक खुद को किसी दैवीय चमत्कार से जोड़कर प्रचारित करते हैं। वे परेशानशुदा लोगों को तरह-तरह की कहानियां सुनाकर उनमें अपने प्रति विश्वास जगाते हैं।
इस तथाकथित चमत्कार को गांव ही नहीं शहरी संस्कृति में पले-बढ़े लोग भी नमस्कार करते देखे जा सकते हैं। दरअसल, तंत्र-मंत्र विद्या को प्रतिष्ठा देने का कार्य कभी गांव में लगने वाले मेले, बड़े उत्सवों, पर्वों, त्योहारों, नदियों पर लगने वाले मेलों और गंवई दंगलों के जरिए किया जाता रहा है। तंत्र विद्या की पुस्तकें समाज को सैकड़ों सालों से गुमराह करती रही हैं। इसी का नतीजा है, आज भी भारतीय समाज तंत्र-मंत्र के जाल में फंसा हुआ है।
आज वक्त के साथ तंत्र-मंत्र को प्रतिष्ठा देने के यंत्र बदल गए हैं। इसमें मीडिया, जिसमें अखबार और टीवी खास हैं, की भूमिका सबसे अधिक है। भारत में टीवी के ऐसे तमाम चैनल हैं जिस पर सुबह से लेकर रात तक केवल और केवल तंत्र-मंत्र के विज्ञापन और तांत्रिकों के चमत्कार संबंधी कार्यक्रम आते रहते हैं। इन कार्यक्रमों को देखने वाले खास तरह के दर्शक हैं जिसे देखकर जिंदगी में आजमाने की कोशिश भी करते रहते हैं। जाहिरातौर पर समाज में धन, संपत्ति और निसंतान दपति को संतान पाने की चाहत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि वह बिना कुछ आग पीछा सोचे कोई भी गैर इंसानी कदम उठाने से परहेज नहीं कर रहा है। जबकि अंधविश्वास, पाखंड, ठगी, धूर्तता और इसी तरह के दूसरे गलत कारनामों को रोकने के लिए कई साल पहले कानून भी बनाए जा चुके हैं। कई समाज सुधार, अंधविश्वास मिटाने और सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के आंदोलन भी चलते रहते हैं। अगड़े और पिछड़े दोनों तरह के राज्यों में ऐसी घटनाएं हो रही हैं। आंध्रप्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, पंजाब, राजस्थान और गुजरात, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य इसमें शामिल हैं।
पूरे देश में बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ अभियान केंद्र सरकार चला रही है। और दूसरी तरफ मासूम बच्चों की बलि ले ली जाती है। कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें मांएं भी बच्चों की बलि में शामिल रही हैं।
समाज जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है, बहुत संभव है कि आने वाले वक्त में इस तरह की हिंसा और क्रूरता की घटनाएं दूसरे रूप में हमारे सामने हों। पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनियां मीडिया के सहारे लोगों को अपने चंगुल में फंसाने में पूरी तरह से कामयाब हो चुकी हैं। नई पीढ़ी में पैसे और संसाधनों की इस कदर चाहत पैदा कर दी गई है कि लगता है बगैर विलासिता ही जिंदगी है। अशिक्षित ही नहीं, शिक्षित व्यक्ति भी तंत्र-मंत्र के चक्कर में पड़ा रहता है और अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरने में उसे कोई परहेज नहीं होता।
महिलाएं भावुक किस्म की होती हैं। तांत्रिक उनकी इसी भावुकता का फायदा उठाकर ऐसे अधम कार्य करवा डालता है जिसे आमतौर पर कोई महिला नहीं करना चाहेगी। महिलाएं टीवी पर आने वाले विज्ञापन, सीरियल और फिल्मों में दिखाए जाने वाले फटाफट लाभ और चमत्कार को असलियत समझ बैठती हैं। बच्चों के लिए ऐसे चित्र और संवाद बहुत खतरनाक होते हैं। इसके बावजूद महिलाएं और बच्चे इन्हें देखने और वैसा ही हासिल करने की कोशिश करते हैं। तांत्रिक उनकी इस कोशिश को सरल बनाने का कार्य करता है और इसके लिए ऐसे उदाहरण पेश करता है कि महिलाओं या लड़कियों को लगने लगता है कि उनकी चाहत के बीच आने वाले रोड़े को हटाना जरूरी है। ऐसे में किसी मासूम की जान लेना भी उनके लिए कोई अपराध नहीं नजर आता।
बस, तांत्रिक का काम पूरा हो जाता है। वह इस दौरान महिला के पति और दूसरे लोगों से इस तरह घुलमिल जाता है कि सारे लोग उसे भाग्यविधाता समझने लगते हैं। उसे धन, संपत्ति, शराब, मांस और वस्त्र जैसी तमाम चीजें दे दी जाती हैं। इसलिए तांत्रिकों की बताई बातों पर अमल करना ‘चाहत’ रखने वाले के लिए न कोई अपराधबोध पैदा कर पाता है और न हिंसा के प्रति कोई ग्लानि जगती है।
देश में तांत्रिकों, फलित ज्योतिषियों और ओझाओं का एक बड़ा जाल फैला हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक दस लाख से ज्यादा लोग इसमें लगे हुए है। इंटरनेट की सुविधा के बाद फरेब के इस धंधे में ऐसे लोग भी आ रहे हैं जो कभी इसे गंदा धंधा समझते थे। महिलाएं और लड़कियां भी इस धंधे में धन कमाने की लालच में आती जा रही हैं। एक महिला दूसरी महिला पर यकीन जल्दी करती है। इसलिए उसे मोहरे के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है।
सरकारें और गैरसरकारी संस्थाएं और समाजसेवा के क्षेत्र में लगे लोग अभी तक भू्रण हत्या के खिलाफ जैसा अभियान चला रहे हैं और उसका सकारात्मक परिणाम आ रहा है। कुछ ऐसा ही इस बुराई को खत्म करने के लिए आगे आना होगा। आर्य समाज, अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, वैज्ञानिक ज्ञान प्रसार संस्था की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। इसके लिए जहां जनजागृति जरूरी है वहीं पर शिक्षा के स्तर को भी बढ़ाने की आवश्यकता है। महिला आयोग, महिला समितियां, महिला पुलिस और महिलाओं के हक की लड़ाई लड़ने वाली समाज सेविकाओं की भूमिका भी अहम हो सकती हैं। जब तक इस कुरीति के प्रति समाज में संवेदना नहीं जगती, इससे छुटकारा पाना मुश्किल लगता है।
(शंकुतला देवी)