उन्हें हाकी का जादूगर कहा जाता है। उन्होंने अपने खेल जीवन में एक हजार से अधिक गोल दागे। तीन बार ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हाकी टीम के सदस्य रहे। मेजर ध्यानचंद का जन्म इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ था। बाल्य-जीवन में उनमें खिलाड़ीपन के कोई विशेष लक्षण नहीं दिखाई देते थे। मगर निरंतर अभ्यास, लगन, संघर्ष और संकल्प के बल पर उन्होंने यह प्रतिष्ठा अर्जित की थी। साधारण शिक्षा प्राप्त करने के बाद सोलह वर्ष की अवस्था में 1922 में वे सेना की प्रथम ब्राह्मण रेजीमेंट में एक साधारण सिपाही के रूप में भर्ती हो गए।

उस समय तक उनके मन में हाकी के प्रति कोई विशेष दिलचस्पी नहीं थी। उन्हें हाकी खेलने के लिए प्रेरित किया रेजीमेंट के सूबेदार मेजर तिवारी ने। उन्हीं की देखरेख में ध्यानचंद हाकी खेलने लगे। फिर देखते ही देखते वे दुनिया के एक महान खिलाड़ी बन गए। फिर हाकी के कारण ही सेना में उनकी पदोन्नति होती गई। 1938 में उन्हें ‘वायसराय का कमीशन’ मिला और वे सूबेदार बन गए। बाद में उन्हें मेजर बना दिया गया।

ध्यानचंद की तुलना फुटबाल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन से की जाती है। गेंद इस कदर उनकी स्टिक से चिपकी रहती कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती कि वे जादुई स्टिक से खेल रहे हैं। हालैंड में उनकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई। जापान में उनकी हाकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई।

ध्यानचंद की हाकी की कलाकारी के जितने किस्से हैं, उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी को लेकर सुने गए हों। उनकी हाकी की कलाकारी से मोहित होकर रुडोल्फ हिटलर ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश कर दी थी। मगर ध्यानचंद ने हमेशा भारत के लिए खेलना गौरव समझा। विएना में ध्यानचंद की चार हाथ में चार हाकी स्टिक लिए एक मूर्ति लगाई गई और दिखाया कि ध्यानचंद कितने जबर्दस्त खिलाड़ी थे।

1928 में एम्सटर्डम ओलंपिक खेलों में पहली बार भारतीय टीम ने हिस्सा लिया। वहां भारतीय टीम पहले सभी मुकाबले जीत गई। 26 मई को फाइनल मैच में हालैंड को 3-0 से हरा दिया और ध्यानचंद चैंपियन घोषित किए गए। 29 मई को उन्हें पदक प्रदान किया गया। 1932 में लास एंजिल्स में हुई ओलंपिक प्रतियोगिताओं में भी ध्यानचंद को टीम में शामिल कर लिया गया।

इस दौरे में ध्यानचंद ने 262 में से 101 गोल किए। निर्णायक मैच में भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया था। तब एक अमेरिका समाचार पत्र ने लिखा था कि भारतीय हाकी टीम तो पूरब से आया तूफान थी। 1936 के बर्लिन ओलंपिक में ध्यानचंद को भारतीय टीम का कप्तान चुना गया। उन्होंने अपने इस दायित्व को बड़ी ईमानदारी से निभाया। 15 अगस्त के दिन भारत और जर्मन की टीमों के बीच फाइनल मुकाबला था। अभ्यास के दौरान जर्मनी की टीम ने भारत को हराया था, यह बात सभी के मन में बुरी तरह घर कर गई थी।

भारतीय खिलाड़ी कुछ निराश थे। तभी भारतीय टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने सहसा खिलाड़ियों के सामने तिरंगा झंडा रखा और कहा कि इसकी लाज अब तुम्हारे हाथ है। सभी खिलाड़ियों ने श्रद्धापूर्वक तिरंगे को सलाम किया और वीर सैनिक की तरह मैदान में उतर पड़े। वे जम कर खेले और जर्मनी की टीम को 8-1 से हरा दिया। उस समय कौन जानता था कि पंद्रह अगस्त को ही भारत का स्वतंत्रता दिवस बनेगा। उन्हें 1956 में भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उनके जन्मदिन को भारत का ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ घोषित किया गया है।