अवनींद्रनाथ ठाकुर की गणना भारत के महान चित्रकारों में की जाती है। वे द्वारकानाथ ठाकुर के पोते तथा रवींद्रनाथ ठाकुर के भतीजे थे, जिन्होंने बेहद कम आयु में चित्रकला की योग्यता प्राप्त कर ली थी। 1895 में ‘कृष्ण-लीला’ संबंधी चित्रों की प्रदर्शनी से उन्होंने दुनिया के चित्रकारों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, जिसमें भारतीय और पाश्चात्य शैली का विश्लेषित रूप था।
संउनकी ‘अरेबियन नाइट्स’ यानी ‘अरब की रातें’ चित्र शृंखला ने वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान छोड़ी थी, क्योंकि यह भारतीय चित्रकला की पिछली परंपराओं से अलग और कुछ नया लेकर आई थी। उन्होंने भारतीय कला में स्वदेशी मूल्यों को शामिल करने और कलाकारों के बीच पश्चिमी कला-शैली के प्रभाव को कम करने की कोशिश की।
वे अपनी चित्रकला ‘भारतमाता’ और विभिन्न मुगल विषयक चित्रों के लिए जाने जाते हैं। अवनींद्रनाथ ठाकुर ‘इंडियन सोसाइटी आफ ओरिएंटल आर्ट’ के मुख्य चित्रकार और संस्थापक थे। भारतीय कला में स्वदेशी मूल्यों के वे पहले सबसे बड़े समर्थक थे।
इस प्रकार उन्होंने ‘बंगाल स्कूल आफ आर्ट’ की स्थापना में अति प्रभावशाली भूमिका निभाई, जिससे आधुनिक भारतीय चित्रकारी का विकास हुआ। उनकी शैली ने बाद के कई चित्रकारों को प्रभावित किया, जिनमें नंदलाल बोस, असित कुमार हालदार, क्षितींद्रनाथ मजूमदार, मुकुल डे, मनीषी डे और जामिनी राय प्रमुख हैं।
उन्होंने कोलकाता के संस्कृति कालेज में अध्ययन के दौरान चित्रकारी सीखी। फिर कलकत्ता स्कूल आफ आर्ट में दाखिला लिया, जहां उन्होंने यूरोपीय शिक्षकों जैसे ओ. घिलार्डी से पेस्टल का प्रयोग और चार्ल्स पामर से तैल चित्र बनाना सीखा।
इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश चित्रकार चार्ल्स पाल्मर के स्टूडियो में लगभग तीन से चार साल तक काम करके तैल चित्र और छायाचित्र में निपुणता हासिल की। इसी दौरान उन्होंने कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों के तैल चित्र बनाए और ख्याति अर्जित की। कलकत्ता स्कूल आफ आर्ट के प्रधानाचार्य ईबी हैवेल उनके काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अवनींद्रनाथ को उसी स्कूल में उप-प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया।
हैवेल के साथ मिलकर उन्होंने कलकत्ता स्कूल आफ आर्ट में शिक्षण को पुनर्जीवित और पुनर्परिभाषित करने की दिशा में कार्य किया। इस कार्य में उनके बड़े भाई गगनेंद्रनाथ टैगोर ने भी उनकी बहुत सहायता की। उन्होंने विद्यालय में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए, विद्यालय की दीवारों से यूरोपीय चित्रों को हटा कर मुगल और राजपूत शैली के चित्र लगवाए और ‘ललित कला विभाग’ की स्थापना की।
वे मुगल और राजपूत कला-शैली से बहुत प्रभावित थे। धीरे-धीरे वे कला के क्षेत्र में दूसरे महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के संपर्क में भी आए। उनमें जापानी कला इतिहासविद ओकाकुरा काकुजो और जापानी चित्रकार योकोयामा तायकन शामिल थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अपने बाद के कार्यों में उन्होंने जापानी और चीनी सुलेखन पद्धति को अपनी कला में समाहित किया।
सन 1913 में उन्होंने लंदन और पेरिस में तथा 1919 में जापान में अपनी कला की प्रदर्शनी लगाई। एक दिलचस्प बात कम लोगों को ज्ञात है कि रवींद्रनाथ ठाकुर को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिलने से भी पहले अवनींद्रनाथ ठाकुर का नाम यूरोप में एक प्रतिष्ठित चित्रकार के तौर पर स्थापित हो चुका था और अवनींद्रनाथ और उनके बड़े भाई गगनेंद्रनाथ के ब्रिटिश और यूरोपिय मित्रों ने ही रवींद्रनाथ ठाकुर को अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीतांजलि’ को अंग्रेजी में प्रकाशित कराने के लिए प्रोत्साहित किया।
अवनींद्रनाथ ठाकुर ने विभिन्न विषयों पर तीस पुस्तकों की रचना भी की। उनका उपन्यास ‘पथेर दाबी’ उन युवकों के लिए प्रेरणास्रोत बन गया, जिन्होंने क्रांतिकारी समूहों में भाग लेकर देश के स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई थी।