(एक)
‘विचारक को युवा लेखन पर भरोसा है’
चिंतकों, विचारकों की टोली बैठी है।
मन तो ‘गिरोह’ कहने का हो रहा है पर चलिए, टोली मान लें। टोली बैठी हो तो ये उसे गोष्ठी कहते हैं। बैठे हैं। कुछ उंकड़ूं। कुछ आलथी-पालथी। कुछ लेटे कुछ अधलेटे। कुछ गंभीर कुछ गुरु गंभीर, तो कुछ मनहूस। कुछ खुसफुस, कुछ बेबात ठहाके मारते। कुछ विचार-विमर्श में लगे। कैसा विमर्श? समझें कि बड़ी-बड़ी बातें। उत्कृष्ट किस्म की निकृष्ट बातें। देश की चिंता। धर्म की बातें। धर्मनिरपेक्षता के छींटे। क्रांति की आंच। पूंजीवाद। स्वतंत्रता। यहां-वहां के सौंदर्यशास्त्र। फतवे। न जाने क्या क्या! चिंतन चल रहा है कि बड़बड़ा रहे हैं, बताना कठिन। विचारों का सन्निपात जैसा कुछ। बाद में इस गोष्ठी की रपट भी जारी होगी। नहीं, थाने में नहीं, पत्रिकाओं में। थाने वाले तो अभी तय नहीं कर सके हैं कि ऐसी गोष्ठियों पर कौन-सी धारा लगनी चाहिए। तभी तो सब मजे से बेखटके बैठे हैं।
गोष्ठी निपटी। अब सभी चिंतक परेशान। यार, रमेशजी अभी तक नहीं पहुंचे?
रमेशजी ही न पहुंचे तो फिर इत्ता विचार-फिचार करने का क्या मतलब रह जाएगा?
… कि रमेशजी पहुंच गए।
सारे विचारक खुशी से झूम-झूम गए।
‘हमारी ब्रांड मिली कि नहीं?’ एक वरिष्ठ चिंतक ने पूछा है।
रमेशजी ने थैले में हाथ डाल कर उनकी चीज निकाल कर वहीं धर दी, जहां कुछ संकलन, कुछ चिंतन जाजम पर बिखरे थे।
‘यार, ये कचरा तो समेटो।’ एक निरे यथार्थवादी चिंतक ने जाजम पर जगह बनाते हुए बोतल, नमकीन, प्याज और काजू को उस करीने से सजाया है, जो सालों के अभ्यास से ही सीखा जाता है।
सभी चिंतक फालतू का चिंतन छोड़ कर देर तक रमेशजी की तारीफ करते रहे कि है तो अभी युवा लेखक, पर देखिए कि कैसा चुस्त, स्पष्ट चिंतन और सही सोच वाला- आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ है कि इस लड़के ने कभी इंतजाम में कमी-बेसी करी हो!
बाद में वे उन सक्रिय युवा लोगों की बात भी करते रहे, जो अन्य शहरों में भी इसी तरह सक्रिय हैं।… और बाद में तो खैर वे कोई बात करने लायक ही नहीं रहे।
चिंतकों को अपनी ब्रांड मिल भर जाए, युवा लेखन पर उनका भरोसा देखने लायक होता है।
(दो)
‘स्त्री विमर्श वाला सजग विचारक’
गोष्ठी चल रही है।
पर विचारक का मन उचट गया है विमर्श से, वरना विचारक स्त्री विमर्श का ‘सुपर स्पेशलिस्ट’ टाइप है। अभी विचलित लग रहा है। दरअसल, उसकी निगाह गोष्ठी में मौजूद उस स्त्री पर पड़ गई है।… स्त्री लोचवोचदार-सी सुंदर है और बगल में बैठे चातकजी से रम कर बातें किए जा रही है। चातकजी भी अपना दिल उंड़ेलते उसे कविता के सूत्र पकड़ा रहे लगते हैं।
‘मित्र, कौन है ये।’ बेचैन विचारक ने बगल वाले से अंतत: पूछ ही लिया।
जिनसे पूछा वे स्वयं भी विकट स्त्री विमर्शी।
‘नवोदित है कोई…। इसी शहर की। पति बड़ा कारोबारी है। संस्कृति, साहित्य वगैरह में सक्रिय परिवार है…।’ साथ वाले पूरा इतिहास बता रहे हैं। वे इसी शहर के हैं। शहर में संभावनाएं ताड़ने में माहिर।
विचारक मौन हो गया है। बगल वाले खूब जानते हैं विचारक की बेचैनी। स्त्रियां कैसे आगे बढ़ें, इस चिंता में राष्ट्रीय स्तर पर अलख-सी जगाए बैठा है विचारक। वर्षों से। सो, उसकी बेचैनी जायज है। वह शहर में है। उसके रहते हुए यह कौन है जो चातकजी से विमर्श में अपना समय जाया कर रही है।
‘बात कराऊं?’ बगल वाले ने सादर पूछा।
‘अरे, बस यह संदेशा दिला दें कि अपनी पत्रिका का पावस अंक मैं नवोदितों पर केंद्रित कर रहा हूं। चाहे तो कविताएं और फोटू भेज दे। मैं देखूंगा कि क्या संभावनाएं बनती हैं।…’ विचारक ने अपना बड़प्पन और वरिष्ठता का चोला ठीक करते हुए कहा।
फिर?
फिर, शाम को विचारकजी देर तक उस स्त्री के काव्य-विमर्श और स्त्री विमर्श का कॉकटेल पेश करते दिखे। सब लोग मुस्करा कर विचारकजी के खटकरम देखते रहे।
बस, चातकजी नहीं मुस्कराए।… वे अपने अंतरंग मित्रों के बीच कोने में बैठ कर गरिया रहे हैं कि स्साले, कहीं तो दूसरे के लिए भी छोड़ दिया कर कुछ!
(तीन)
‘विचारक से नया सोचने को मत बोलो’
देश के कुख्यात की हद तक विख्यात विचारक हैं वे।
रोज ही यहां वहां विचार प्रकट करते फिरते हैं। लोग निमंत्रण देते हैं। वे प्रकट कर देते हैं। फिर वे नया तो कुछ भी नहीं कहते। वही वही प्रकट करते रहते जो पहले भी सौ बार कर चुके। शहर का हर श्रोता उनके मुंह खोलने से पहले ही जान जाता था कि वे क्या प्रकट करेंगे। माइक वाला भी मुस्करा कर धीरे से बगल वाले को बता देता कि अब ये, ये बोलेंगे। दबाव पड़ने लगा कि कुछ नया सोचें, नया बोलें।… नया सोचते, इससे पहले ही दूसरे शहरों से बुलावे आने लगे कि हमारे यहां आकर प्रकट करें, क्योंकि हमें पता चला है कि आपको माइक भर पकड़ा दो तो आप शानदार ही प्रकट करते हैं। अब नया सोचने की जरूरत नहीं थी। वे पुराना शानदार माल लेकर शहर-शहर घूमने लगे। यहां अध्यक्ष। वहां मुख्य अतिथि। गोष्ठी गोष्ठी। मंच मंच। सम्मेलन सम्मेलन। सनन सनन। घनन घनन। घूम-घूम कर दिमाग चकराने लगा तो नए विचार आने और भी बंद हो गए। चकराते दिमाग में घुसें कैसे! विचारक को फुर्सत भी नहीं थी कि नया सोचे। रेल। हवाई जहाज। फोटू। साक्षात्कार। रात में बोतल। दिन में विचार प्रकट करना। दिन में ऊंघना। ऊंघते-ऊंघते विचार, प्रकट-करते करते ऊंघना। विचारों में ऊंघना। विचारों का ऊंघना। सुनने वाले बिचारों का भी ऊंघना।
पर धीरे-धीरे सारा देश भी जान गया कि उनको बुलाया तो क्या प्रकट करेंगे। श्रोता बिदकने लगे। आयोजक कन्नी काटने लगे। माइक वाले दया की दृष्टि से देखने लगे।
अब विचारक, जीवन में पहली बार इस तरह चिंतित हुआ।… उसने घोषणा की। वह शीघ्र ही नया रचेगा। नया सोचेगा। नया प्रकट करेगा। नए की डकार लेगा।… कहने को कह तो दिया, पर मुसीबत हो गई। अब विचारक कुछ सोचने बैठा है तो नया विचार मन में आता ही नहीं। वह कभी प्रखर चिंतक रहा है। भटकते-भटकते वह प्रखरता न जाने कहां गुम हो गई। अब तो मानो यह कोई दूसरा ही शख्स है, जो उसमें रह रहा है।
अब तो विचारक कुछ नया सोचने की कोशिश करता है तो मन में इतनी तेज तालियां बजने लगती हैं कि उनकी गूंज ही खत्म नहीं होती। प्रशस्तियां, पुरस्कार, हार-फूल, पत्तियां, दाद का कचरा अहर्निश उड़ता रहता है मन में। आंखें खोलने से डर लगता है उसे। बेचारा चिंतक!
माना कि विचारक कुछ भी नया नहीं बोलता। माना कि वह, वही वही दोहराता है। फिर भी। कृपया उसे अपने शहर में सादर बुलाते रहें। उसकी यह दशा करने में थोड़ा हाथ आपका भी है। उसे अब यों बेसहारा न छोड़ें।
(चार)
‘विचारक मौलिक चिंतन को समर्पित है’
विचारक कभी-कभी पुस्तकालय भी जाता है।
कुंभ के मेले में जैसा तो नहीं। हां, दिवाली दशहरा टाइफ। एकाध बार।
वह गया।… वहां संयोगवश, बहुत पुरानी किसी किताब में कोई अद्भुत मौलिक विचार पढ़ने को मिला। पढ़ कर वह उत्तेजित हो उठा। वाह! क्या तो क्रांतिकारी चिंतन। कितनी गजब की बात।… वह अपने लेखन में, यहां-वहां गोष्ठियों में इसी बात को इसी तरह से इस्तेमाल करेगा।
पर मान लो कि तब तक किसी और के हत्थे यही किताब ‘बाई द वे’ पड़ गई तो? पुस्तकालय में धरी है। इश्यू भी करा ले जाएं तो वापस करने पर कोई पढ़ ही सकता है। है दशकों पुरानी किताब। और शायद ही कहीं मिले, किसी को। पर यहां तो मिल ही सकती है न!
फिर?
विचारक ने इधर-उधर देखा। पुस्तकालय में इक्का-दुक्का लोग। लाइब्रेरियन ऊंघ रहा है। उसने झट से किताब को पेंट में, शर्ट के नीचे खोंस लिया। तसल्ली की। कहीं से पता नहीं चल रहा कि बेल्ट के नीचे किताब छिपी है।
इस तरह विचारक एक मौलिक बात खोज कर घर लौटा।
चोरी तो बहुत छोटी-सी चीज है। विचारक मौलिक चिंतन के लिए किसी भी हद तक जाने को तत्पर रहता है।