शरद रंजन शरद
आदमी ने बनाया घर
फिर उसे कई खानों में बांट कर
निकाली हर जरूरत
और काम के लिए जगह
खड़ी होती दीवारों से जोड़ी वजह
सोच विचार कर बाकायदा
उसने एक हिस्सा रखा
बैठने के लिए
एक पकाने खाने के वास्ते
सोने की जगह निकाली
निवृत्त होने नहाने की
पूजाघर बनाया और भंडार भी
मगर घर बन कर तैयार होने
और बरसों रहने के बाद
आखिरकार पता चला
कहीं नहीं उसके लिए
आदमी के लिए जगह!
(दो)
उस डिब्बे में चढ़ा
तो हर सीट पर था कुछ न कुछ
कहीं रूमाल चादर मफलर
अखबार किताब कलम
किसी जगह झोला टोपी पगड़ी
और चश्मा छाता छड़ी
कुछ सरका कर बैठना चाहा
तो उसने हांक दिया
नहीं यहां नहीं है
आदमी की जगह
कोई दूसरी चीज खिसकानी चाही
तो उसने भी टोका
वैसे ही सबने
इस तरह पूरी रेलगाड़ी में
चीजें थीं उपस्थित
आदमी की जगह पर
और मैं एक सिरे से चढ़ कर
उतर गया दूसरी तरफ!
(तीन)
आदमी ने बार बार
कुहनियों से ठेला पहाड़
अंजुली से उलीचीं नदियां
नाखूनों से काटे जंगल
कंधों से हटाए बादल
अब यह दुनिया
हो गई है बस्तियां
खाली आबादियों की
सिर ही सिर टकराते
हर तरफ से
भागते दौड़ते
घरों तक पहुंच चुके
बड़े बाजार में
आदमी की बोली लगाते!
(चार)
कोई जगह खोजे
आदमी के लिए
तो झट से कहूं
बालपन के खिलौने में
घुंघराली लटों में
बढ़ते बढ़ते
जो हो गर्इं बेतरतीब
होंठों पर खिंची मुसकी
गालों की लाली
और आंखों के तारों में
कह दूं आदमी के लिए
जगह है महफूज
अभी अभी आए शिशु की
बंद मुट्ठियों में
पैरों में खुलती
गतियों के संग
बच्चों को उठा कर नहीं
उनके बीच ही ढूंढ़ें
इस सजे शामियाने में
आदमी के लिए जगह!
