महेश आलोक

छाया का समुद्र

छाया का समुद्र फैलता जा रहा है पृथ्वी पर

और मैं कूदता हूं छाया में
पृथ्वी की अंतिम हिचकी से पूर्व तमाम सांसों को
स्वाभाविक लय में लाने के लिए

कैसे बचाए जा सकते हैं
दादा-दादी पत्नी-बच्चे और कबीर
केदारनाथ सिंह आदि

छाया में जितनी जगह है उतनी जगह में
पृथ्वी की आग मुर्दा है

छाया का समुद्र या समुद्र की छाया
कहना मुश्किल है, कौन कितना अलग है
एक-दूसरे की छाया से

मैं छाया में छाया को पकड़ता हूं
हाथ से छूटती छाया में पृथ्वी का कुल समय डूबता है
डूबता हूं मैं भी समुद्र के नमक को
छाया से अलग करने के लिए

छाया में खड़े होकर देखने से नमक की रोशनी
सूरज की तरह चमकती है

अगर बचा है नमक
बची रहेगी पृथ्वी

घर

इस घर की कुल आंखों में। किसकी आंखों का पहरा
इस घर की कुल सांसों में
किसकी सांसों का चेहरा
पुरखों वाला घर कोठर। जबसे गिरवी रखा है
मेरा उसमें कितना है
कितना वह बाल सखा है
अब किस घर से बतियाएं। उस डर को कहां बिठाएं
डर में पग की आहट थी
आहट में घर की राहें
वह खुशी कहां है जिसमें। सूरज चलता रहता था
बैठे-ठाले का दिन भी
कितना घर-सा लगता था
आकाश उतर कर घर में। करता था खूब ढिठाई
एक दिन हौले से बोला
ले लो भैया उतराई

यह दुख भी कैसा दुख है। दुख का मन जहां दुखी है
अब किससे बोलें चालें
सांसों में कहीं नमी है
भीतर-बाहर के घर में। कुछ फर्क नहीं मंजर में
दोनों में हम रहते हैं
दोनों को घर कहते हैं