मुरलीधर वैष्णव

सभी चखना चाहते हैं अमृत यहां
विष को कोई नहीं
नाग भी चखता नहीं है विष
पीकर दूध का कटोरा
बना लेता है वह विष
अपने भीतर

डरते भी हैं हम विष से
तभी तो भयभीत हो हमने
सरका दिया विष-घट तुम्हारी ओर
और पिला कर उसे तुम्हें
हम समझे
मानो कर लिया जगत को विषमुक्त
मुस्करा उठे थे तब तुम
हमारी नासमझी पर
और कहा था हमसे
दे दो मुझे इस विषघट के साथ
तुम्हारा मन भी

मन जिसमें फैला है विष
समुद्राकार में
जिसमें बनता है वह
उफनता है वह
तेजाब की तरह
सब कुछ जलाकर ऊंघता है वह
शमशान की तरह

चाहते थे तुम हमारा विष पीकर
दे देना अपना शिवत्व हमें
दे देते जो हम तब
अपना मन भी तुम्हें
तो नहीं बनते नित नए विषघट
हमारे भीतर
मन जो न होता
तो होता ध्यान
होता जो ध्यान
तो फिर शिवत्व होता
साक्षीत्व होता
फिर शायद विष न होता
डर

कभी किसी पल
मन की शिराओं में
चोर की तरह
दबे पांव
उतरता है वह
कांप उठता है
हर रोअां
उसकी निशब्द पदचाप से
बैठ जाता है
पैर पसार कर
हमारे कलेजे पर वह
सुलगाता है वहां
आशंकाओं को
वहम की फूंक से
उठा देता है
कंपकंपाता गुब्बार
कहीं गहरे भीतर
और फिर
चढ़ जाता है ऊपर
रीढ़ की सीढीÞ से
एक अजीब रसायन है वह
सांसों में घुल कर
उभरता है माथे पर
मंडराता है
पुतलियों में
प्रेत-छाया बन
धर्म निरपेक्ष है वह
सबको डसता है
कैसा अजूबा है वह
न होकर भी
खटकता रहता है
बन फांस
जो है बस
एक अहसास