बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा, उनसे मजदूरी कराने, उन्हें आवश्यक बुनियादी शिक्षा की सुविधाएं उपलब्ध न हो पाने, आतंकवाद-नक्सलवाद जैसी गतिविधियों में उन्हें हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने जैसे अनेक मुद्दे समय-समय पर उठते रहते हैं। बाल अधिकारों की रक्षा के लिए कड़े कानून हैं, पर उनके उल्लंघन के मामले सामने आते ही रहते हैं। सरकारें बच्चों के हितों का खयाल रखने का दम भरती हैं, पर जमीनी हकीकत उनके दावों से मेल नहीं खाती। नोबेल शांति पुरस्कार से विभूषित कैलाश सत्यार्थी का मानना है कि सरकारी प्रयास ही नहीं, सामाजिक जागरूकता भी बहुत जरूरी है। इस बार बारादरी में बच्चों से जुड़े मुद्दों पर उनसे विस्तृत बातचीत हुई। बातचीत का संचालन किया कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज ने।
मनोज मिश्र : तमाम प्रयासों के बावजूद बाल अपराध कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। इसका क्या कारण है?
कैलाश सत्यार्थी : जब मैंने बाल मजदूरी का मुद्दा उठाया, तो भारत ही नहीं, दुनिया में कहीं बाल अपराध को लेकर कोई कानून नहीं था। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र का बाल अपराध घोषणापत्र भी 1990 में आया। मैंने 1980 के आसपास इस दिशा में काम शुरू किया था। तब बाल अधिकार को लेकर दुनिया भर में कोई चेतना नहीं थी। भारत में भी बाल मजदूरी कानून 1986 में बना। शिक्षा हमारे यहां मौलिक अधिकार नहीं थी। 2001 में संविधान के बाद यह मौलिक अधिकार के रूप में मिली। बाल मजदूरी दुनिया भर में बढ़ रही थी। 1999 या 2000 के आसपास अंतरराष्ट्रीय आंकड़ा आया कि छब्बीस करोड़ बच्चे पूर्णकालिक बाल मजदूरी में लगे हुए थे। वह संख्या इन पंद्रह सालों में घट कर करीब साढ़े सोलह करोड़ रह गई है।
हमने एक यात्रा की थी 1998 में- ग्लोबल मार्च अगेन्स्ट चाइल्ड लेबर। वह दुनिया के तीन सिरों से शुरू हुई थी- लैटिन अमेरिका, मनीला और दक्षिण अफ्रीका से। इस यात्रा में अस्सी हजार किलोमीटर का सफर तय किया गया सड़क मार्ग से। और इस तरह हम इस मांग के साथ जेनेवा पहुंचे थे संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय कि एक अंतरराष्ट्रीय कानून बनना चाहिए। तब तक यानी 1999 तक बच्चों की गुलामी और वेश्यावृत्ति जैसे विषयों को लेकर कोई अंतरराष्ट्रीय कानून नहीं था। हमारी मांग पर कानून बना। उसके बाद से बाल मजदूरी में कमी आनी शुरू हुई। इसी तरह शिक्षा को लेकर हमने पूरी दुनिया में जनांदोलन किया। उससे एक मंच बना ग्लोबल कैंपेन फॉर एजुकेशन। सन 2000 में यूनेस्को के अनुसार तेरह करोड़ बच्चे स्कूलों से बाहर थे। अब वह संख्या घट कर आधे से भी कम यानी करीब छह करोड़ रह गई है। तो इस तरह हमने कुछ प्रयास किए और उसके परिणाम भी निकले। लेकिन जितनी रफ्तार, जितनी संजीदगी, जितनी राजनीतिक और जितनी सामाजिक इच्छाशक्ति के साथ काम होना चाहिए, उतना नहीं हुआ है। इस वक्त बाल यौन शोषण की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। इस पर लोग बोलते नहीं हैं। इसके खिलाफ भी आवाज उठानी जरूरी है।
अनुराग अन्वेषी : क्या बच्चों को यह शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए कि यौन शुचिता ही सब कुछ नहीं है?
’बिल्कुल ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए। अगले महीने हम लोग जो यात्रा निकालने जा रहे हैं, उसका भी एक बड़ा लक्ष्य है कि हम बताएं कि जिसके साथ यौन अपराध होता है, उसकी इज्जत नहीं लुटती, बल्कि इज्जत तो उस आदमी की लुटती है, जो यह अपराध करता है। ऐसी सोच पैदा करने की जरूरत है। हम धर्मगुरुओं और सामाजिक संगठनों से भी कह रहे हैं कि वे लड़के और लड़कियों को इस तरह दबा कर न रखें कि वे आपस में बात करें तो भी उन्हें यह अपराधबोध बना रहे कि शुचिता भंग हो गई। हम चाहते हैं कि एक स्वस्थ यौन शिक्षा भी हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा बने। बच्चे खुद समझें कि वे अपनी सुरक्षा खुद किस तरह कर सकते हैं। यौन हिंसा के खिलाफ भी उनमें चेतना जागनी चाहिए।
सूर्यनाथ सिंह : बहुत सारे बाल अधिकारों का हनन गरीबी की वजह से हो रहा है। मगर क्या वजह है कि सरकारें गरीबी उन्मूलन संबंधी योजनाएं ठीक से लागू नहीं कर पा रही हैं?
’यह सही है कि बच्चों के बहुत सारे अधिकारों का हनन हो रहा है। मगर जब हम कोई आंदोलन शुरू करते हैं, तो वह बहुत लक्षित होता है। जब हमने शिक्षा को केंद्र में रख कर कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा शुरू की थी, तब भी यही कहा गया था कि समस्याएं और भी हैं, सिर्फ शिक्षा क्यों। मगर हमने शिक्षा पर केंद्रित किया और उसका नतीजा निकला। इसी तरह बाल मजदूरी को लेकर हमने आंदोलन किया और उसका नतीजा निकला। अब हम बाल यौन शोषण पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं कि दूसरे मुद्दों पर बात नहीं करेंगे। अभी हमने कश्मीर में पत्थर फेंकने और आतंकी गतिविधियों में जिस तरह बच्चों का इस्तेमाल हो रहा है, वह भी हमारा मुद्दा है। इसी तरह नक्सली लोग बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उधर भी हमारा ध्यान है। जहां तक गरीबी का सवाल है, गरीबी, अशिक्षा और बच्चों के बाल अधिकारों के हनन का त्रिकोणात्मक रिश्ता है। कई देशों में अध्ययन हुए तो पता चला कि बाल मजदूरी और माता-पिता की बेरोजगारी में भी एक समांतर रिश्ता है। मां-बाप इसलिए बेरोजगार रह जाते हैं, क्योंकि वे महंगे मजदूर हैं, वे यूनियन बना सकते हैं, पर बच्चे कम मजदूरी पर बिना कोई विरोध किए अधिक काम कर सकते हैं, इसलिए वे मजदूर बनाए जा रहे हैं। इसी तरह शिक्षा का मुद्दा है। अगर हम अपने बच्चों पर निवेश नहीं कर सकते, तो उसका नतीजा ठीक नहीं निकलेगा। तो, यह कहना कि गरीबी की वजह से ये सब चीजें हो रही हैं, आधा सच है। ऐसा नहीं कि जो देश अमीर हो गए हैं, वहां ये बुराइयां खत्म हो गई हैं। बल्कि वहां बच्चों के यौन अपराध बढ़ रहे हैं। सामाजिक जागरूकता इस बुराई को कम कर सकती है।
पारुल शर्मा : बलात्कार की शिकार लड़कियों के गर्भ निस्तारण के मामले में कानून भी एक तरह से उन्हें नियति के भरोसा छोड़ देता है। ऐसे में क्या होना चाहिए?
’दरअसल, इसमें कई तरह के कानून लागू होते हैं। गर्भ निस्तारण का कानून अलग है, उसका संबंध केवल बच्चों से नहीं है। गर्भ कितने हफ्तों के भीतर गिरा सकते हैं, यह अदालत कानून के आधार पर देखती है। इसके अलावा एक कानून है पाक्सो वाला। वह बहुत अच्छा और सख्त कानून है। मगर उस पर ठीक से अमल नहीं हो पा रहा। उसमें करीब नब्बे फीसद मामले लंबित हैं। इसकी एक वजह यह है कि पाक्सो कानून में पीड़ितों को पूरी तरह संरक्षण का प्रावधान नहीं है। गवाह की सुरक्षा का भी प्रावधान नहीं है। दूसरी बात कि त्वरित अदालतें नहीं हैं। अगर ऐसे मामलों का शीघ्र निपटारा नहीं हो पाता तो दोषी और पीड़ित दोनों बड़े हो जाते हैं और वे इस मामले में अदालत जाने से परहेज करने लगते हैं। इसलिए हम विशेष अदालत की मांग कर रहे हैं। पाक्सो और बच्चों के खिलाफ हिंसा पर सुनवाई के लिए विशेष अदालतें हों, वे मामलों का शीघ्र और समयबद्ध तरीके से निस्तारण करें और वे चाइल्ड फ्रेंडली हों।
मृणाल वल्लरी : शिक्षा हो या स्वास्थ्य, बच्चों को लेकर जनता और सरकार के बीच दूरी बढ़ी है। इसका क्या असर आप देखते हैं?
’सरकार एक कल्याणकारी संस्था है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में वह जनता की भावनाओं का आईना होती है। अगर जनता की प्राथमिकता में बच्चे नहीं हैं, उनका स्वास्थ्य नहीं है, उनकी शिक्षा नहीं है, तो सरकार पर इसका असर नहीं पड़ता। सरकार पर उसी का असर पड़ता है, जो जनता की मांग होती है, जिसका चुनाव पर प्रभाव पड़ता है। अगर लोग उम्मीदवारों से पूछने लगें कि हमारे क्षेत्र में बच्चों की शिक्षा के लिए क्या करेंगे, हमारे बच्चे सुरक्षित रहेंगे कि नहीं रहेंगे, तभी हम आपको वोट देंगे, तब देखिए वे इन मुद्दों पर काम करते हैं या नहीं। मगर आम लोग ये बातें नहीं करते। इसलिए यह जनजागरण का भी मुद्दा है। जहां तक सरकारों का मामला है, अगर वे मानती हैं कि शिक्षा बेहतर होगी तो अर्थव्यवस्था सुधरेगी, तो उन्हें बच्चों की शिक्षा के लिए निवेश करना चाहिए। अभी हम अपने सकल घरेलू उत्पाद का महज 3.6 फीसद शिक्षा पर खर्च करते हैं। यह कोई एक सरकार का मामला नहीं है। सालों से ऐसा ही चला आ रहा है। इसके लिए निस्संदेह बजट बढ़ाने की जरूरत है।
राम जन्म पाठक : तमाम कानूनों के बावजूद चोरी-छिपे बच्चों से काम कराने की प्रवृत्ति पर रोक क्यों नहीं लग पा रही है?
’यह बहुत पुरानी बात हो गई। पहले जो कानून बना था, उसमें कमियां रह गई थीं। मगर अभी जो नया कानून बना है, वह ज्यादा प्रगतिशील है। पहले कानून सिर्फ चौदह साल तक के बच्चों की बात करता था। अब नया कानून अठारह वर्ष तक के बच्चों को समेटता है। पहले यह संज्ञेय अपराध नहीं था, अब हो गया है। यानी पुलिस को तुरंत मुकदमा दायर करना और गिरफ्तार करना पड़ेगा। सजा का प्रावधान भी बढ़ा है। घरों में काम करने की जो पहले छूट थी वह हटा ली गई है और खतरनाक उद्योगों की सूची काफी छोटी थी, उसे बढ़ा दिया गया है। अब बच्चों से न तो घरों में काम करा सकते हैं और न उद्योगों में।
अनुराग अन्वेषी : राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक करीब साठ हजार बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं। इस पर रोक क्यों नहीं लग पा रही है?
’यह मामला गंभीर है। 2011 तक एनसीआरबी को भी नहीं पता था कि यह कितना गंभीर मामला है। पहले कोई बच्चा घर से भाग कर कहीं काम करने लग जाता था, तो उसे भी गुमशुदगी में डाल दिया जाता था। यानी बच्चा एक जगह तो गुमशुदा है और दूसरी जगह काम कर रहा है। हमने सूचनाधिकार के तहत जिलों के पुलिस सुपरिंटेंडेंटों को चिट्ठी लिख कर गुमशुदा बच्चों का आंकड़ा मांगा। पौने चार सौ जिलों से सूचनाएं आर्इं। उसके आधार पर हमने विश्लेषण किया तो पता चला कि करीब एक लाख बीस हजार बच्चे गायब हैं पूरे देश में। यह 2011 की बात है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर की अध्यक्षता में हमने वह रिपोर्ट जारी की। उसके एक हफ्ते बाद ही हम लोगों ने इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय के सामने रखा। उस पर न्यायालय का बहुत सख्त आदेश आया। न्यायालय ने ऐसी घटनाओं को अपराध माना। कहा कि गुमशुदगी की कोई भी शिकायत आती है, तो उस पर एफआइआर लिखा जाए और तुरंत उसकी छानबीन शुरू की जाए। उसके बाद से ऐसी घटनाओं में कमी आई है। एक लाख बीस हजार से घट कर वह करीब पैंतालीस हजार रह गई है। यह लगातार घट रही है।
सूर्यनाथ सिंह : मुक्त कराए गए बच्चों का कितना पुनर्वास हो पाता है?
’यह एक पेचीदा मामला है। इतने सालों तक पुनर्वास की कोई योजना नहीं थी। जब बनी तो उसे लागू करना कठिन था। अभी सरकार ने एक अच्छा काम यह किया है कि पुनर्वास राशि बढ़ा दी है। पहले बीस हजार रुपए तक की उन्हें रोजगार लायक कोई चीज दिलाई जाती थी। अब उसे बढ़ा कर तीन लाख रुपए तक कर दिया गया है। दो लाख रुपए बंधुआ मजदूर के मामले में और अगर वह यौन हिंसा का भी शिकार है तो तीन लाख रुपए तक देने का प्रावधान किया गया है। मगर उसे लागू कराने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि स्थानीय स्तर पर बहुत भ्रष्टाचार है, उपेक्षा का भाव है। पीड़ितों में चेतना भी नहीं है। ऐसे में जब पुलिस या एनजीओ बच्चों को छुड़ाते हैं तो आसान तरीका अपनाते हैं कि कानूनी पचड़े में पड़े बगैर बच्चों के साथ फोटो-वोटो खिंचवा कर अपना काम पूरा मान लेते हैं। मगर क्या उसमें बंधुआ मजदूरी या बाल मजदूरी का मामला दर्ज हुआ, किशोर न्यायालय में मामला गया? पुनर्वास तो तब होगा, जब कानूनी प्रक्रिया से गुजरेंगे। अभी हमने पंद्रह राज्यों में एक-एक वकील और एक-एक सामाजिक कार्यकर्ता नियुक्त किया है, जो ऐसे मामलों की कानूनी प्रक्रिया को देखेंगे।
पारुल शर्मा : प्राकृतिक आपदा के समय बहुत से बच्चे अनाथ होते हैं और उनकी तस्करी के मामले सामने आते हैं। ऐसे बच्चों के पुनर्वास के मामले में आप क्या करते हैं?
’ऐसे मामलों में सीधे तो हम कुछ नहीं करते, पर हमारे तीन आश्रम हैं, जिनमें कुछ बच्चों को रखते हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई का प्रबंध करते हैं। इसके अलावा दुनिया के एक सौ चालीस देशों में करीब दो हजार संगठन हमारे साथ मिल कर काम करते हैं। सबसे अधिक बच्चे प्राकृतिक आपदा और युद्ध का शिकार होते हैं। उन्हें अपना घर-बार, देश छोड़ कर दूसरी जगहों पर शरण लेने को मजबूर होना पड़ता है। इससे निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक समिति गठित की है। अभी इस मुद्दे पर एक उच्च स्तरीय फोरम भी बना है, जो युद्ध और प्राकृतिक आपदा के शिकार बच्चों के पुनर्वास के लिए कोष जुटा रहा है।
मुकेश भारद्वाज : आपने बच्चों का आतंकवाद में मानव दीवार के रूप में और कश्मीर जैसी जगहों पर पत्थरबाजी के लिए इस्तेमाल किए जाने का जिक्र किया। इस पर काबू पाने का क्या तरीका है?
’मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है कि इस समस्या का समाधान कर सकूं। पर मैं बार-बार अपील करता हूं कि ऐसे कामों में बच्चों का इस्तेमाल न करें, चाहे वे नक्सल समूह हों या फिर कश्मीर जैसी जगहों पर आंदोलन चला रहे लोग। दूसरी बात कि युवाओं के बीच चेतना जगाने की बहुत जरूरत है। सरकार और सामाजिक संगठनों को मिल कर उन्हें भरोसा दिलाने की जरूरत है कि हम तुम्हारे साथ हैं। फिर युवाओं को गुमराह करने वाले तत्त्वों पर नजर रखने की जरूरत है।