आशा शर्मा
घर में शौचालय बनवाइए और इस्तेमाल कीजिए…’ महिलाओं की अस्मिता को शौचालय से जोड़ते हुए जब विद्या बालन टीवी और रेडियो पर दिखाई और सुनाई देती हैं तो अक्सर एक प्रश्न उभरता है कि क्या महिलाओं का अस्तित्व सिर्फ घर तक ही सीमित है? क्या सिर्फ घर में शौचालय का बनवाना ही काफी है? क्या उन्हें घर से बाहर इनकी आवश्यकता नहीं है? महिलाओं के लिए अलग शौचालय बनाने की जोरदार मुहिम के बावजूद देश के ज्यादातर हिस्सों में इनका अभाव है। सार्वजनिक शौचालयों का न होना महिलाओं के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। देश में फील्ड जॉब करने वाली महिलाओं का एक बड़ा प्रतिशत हर रोज घर से बाहर काम के लिए निकलता है। पुरुषों के कंधे से कंधे मिला कर देश की उन्नति और विकास में अपनी भागीदारी निभाता है मगर आज भी ये महिलाएं इस मूलभूत सुविधा और अपने अधिकार से वंचित हैं।
एक कामकाजी महिला होने के नाते मुझे अक्सर इस परेशानी से रूबरू होना पड़ता है। मुझ जैसी अनेक महिलाएं हैं जिन्हें दफ्तर के काम से बाहर टूर पर जाना पड़ता है। सिर्फ साफ-सुथरे शौचालयों की कमी ही एकमात्र वजह है जिसके कारण ये अक्सर इन अपने दौरों को टालने की कोशिश करती हैं। पुरुष प्रधान व्यवस्था में महिलाओं की सुविधाओं को किस प्रकार नजरअंदाज किया जाता है इसका भी यह एक बड़ा उदाहरण सार्वजनिक शौचालय हैं। पुरुषों की स्थिति यह है कि वे कहीं पेशाब कर लेते हैं। मैं अक्सर ऐसे लोगों देखती हूं जो स्वच्छता अभियान की धज्जियां उड़ाते हुए दीवारों के कोनों को सार्वजनिक शौचालय की तरह इस्तेमाल करते लघुशंका का निवारण करते हैं और हम महिलाओं के लिए शर्मिंदगी का कारण बनते हैं। बसों का सफर हो या फिर बाजार में खरीदारी करना, हर जगह महिलाओं को सार्वजनिक शौचालय न होने से जो परेशानी होती है उसे सिर्फ वही समझ सकती हैं। कई बार महिलाओं किस भयानक स्थिति से गुजरना पड़ता है, इंसका पुरुष समाज अंदाज तक नहीं लगा सकता। ऐसा नहीं है कि सार्वजनिक शौचालय बनवाए नहीं जाते, मगर बनवाना ही काफी नहीं है…उनकी साफ-सफाई का ध्यान रखना भी बहुत जरूरी होता है, वर्ना कई तरह की बीमारियां घेर लेती हैं। अक्सर सार्वजनिक शौचालय इतनी सड़ांध मारते हैं कि उन्हें इस्तेमाल करना तो दूर उनके पास से गुजरना भी मुश्किल होता है।
सिर्फ कामकाजी ही नहीं घरेलू महिलाएं भी विभिन्न कारणों से घर के बाहर निकलती हैं। कई बार आस-पास के गांवों से भी महिलाएं खरीदारी करने के लिए शहर में आती हैं। लघुशंका आने पर उनके साथ आए पुरुष तो इधर-उधर जगह तलाश करके अपनी शंका का निवारण कर लेते हैं मगर महिलाओं और लड़कियों के लिए यह बड़ी ही विकट स्थिति होती है।
दैनिक मजदूरी करने वाली महिलाओं के साथ भी कमोबेश यही स्थिति नजर आती है। असंगठित महिला मजदूरों के लिए तो यह दूर की कौड़ी ही है। देश की महत्त्वाकांक्षी योजना ‘मनरेगा’ में पंजीकृत महिला कामगारों को भी कार्यस्थल पर शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जाती। मजबूरी में उन्हें अपनी अस्मिता से समझौता करके लघुशंका या दीर्घशंका आदि के लिए खुले में और असुरक्षित जगहों का चुनाव करना पड़ता है जो कई बार उनके साथ दुर्घटना का कारण भी बन जाता है। हालांकि इंडियन सीटीज एक्ट 1887 के अनुसार देश का कोई भी होटल चाहे वह फाइव स्टार ही क्यों न हो किसी को भी पानी पीने और शौचालय इस्तेमाल करने से मना नहीं कर सकता।
मगर पहली बात तो यह कि मुख्य बाजारों और बस स्टैंडों पर इस तरह के होटल होते ही नहीं जिनमें महिलाओं के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था हो और दूसरा प्रश्न ये है कि इस नियम की जानकारी है कितनी महिलाओं को या खुद होटल मालिकों को। जहां जानकारी भी है तो उसे लागू कौन कराएगा। आमतौर पर होटल या ढाबा मालिक मना कर देते हैं। इस बात की शिकायत कहां , कब और किससे की जाए। अमूमन होटल मालिक टॉयलेट आदि का इस्तेमाल सिर्फ अपने ग्राहकों को ही करने देते हैं। ऐसे में महिलाएं क्या करें?
कुछ बड़े शहरों में सुलभ शौचालयों की सुविधा अवश्य दिखाई देती है। मगर इसे कुछ खास स्थानों तक ही सीमित न रख कर जगह-जगह बनवाने चाहिए, विशेषतया शहरों के मुख्य और व्यस्त बाजारों में और छोटे शहरों के बस स्टेशनों पर भी इनकी सहज उपलब्धता होनी चाहिए। सुविधा के साथ-साथ इनकी निरंतर साफ-सफाई भी होनी चाहिए और स्वच्छता का भी पूरा खयाल रखा जाना चाहिए। इन सुविधाओं के लिए मामूली शुल्क का प्रावधान भी रखा जाए तो भी हर्जा नहीं है। ये महिलाओं की अस्मिता, शुचिता, सुविधा और सुरक्षा का सवाल है, इस पर सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं को ध्यान देना ही चाहिए। सिर्फ महिलाएं ही नहीं बल्कि पुरुषों को भी इनका इस्तेमाल करने के लिए पाबंद किया जाना चाहिए ताकि खुले में लघुशंका निवारण द्वारा फैलने वाली गंदगी से बचा जा सके और उन्हें यहां-वहां ऐसा करते देख महिलाओं को शर्मिंदा न होना पड़े।
कई बस स्टेशनों या दूसरे स्थानों पर यह भी देखा गया कि शौचालय हैं। मगर जहां पुरुषों से निर्धारित शुल्क लिया जाता है, वहीं महिलाओं से चार गुना, पांच गुना शुल्क मंगा जाता है। शौचालय पर काम करने वाले कर्मचारियों को पता है कि पुरुषों से ज्यादा शुल्क मांगेगे तो वे लघुशंका वगैरह कहीं और निपटा लेंगे, लेकिन महिलाएं तो मजबूर हैं। बस स्टेशनों आदि पर जरूरी है कि इसके लिए शिकायत पुस्तिका रखी जाए तो उस त्वरित कार्रवाई हो। आमतौर पर शिकायत पुस्तिकाएं भी शोभा बढ़ाने के लिए होती हैं। पहली बात तो अधिकारी या कर्मचारी उसे मांगने पर देते नहीं, देते हैं शिकायतों पर कार्रवाई नहीं होती। ०