विकास के नारों के बीच आज स्थिति यह है कि रोजगार के अवसर सिकुड़ रहे हैं। बड़े उद्योगों में रोबोट और स्वचालित मशीनों का उपयोग बढ़ने से हाथ से काम करने वालों के लिए जगह लगातार कम हो रही है। मगर यह समस्या यहीं तक सीमित नहीं है। तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर चुके दक्ष लोगों के सामने भी नौकरियों की गंभीर समस्या है। हर रोज तकनीक में बदलाव हो रहा है और जो लोग बदलती तकनीक के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे, उन्हें बेरोजगारी का संकट झेलना पड़ रहा है। यह समस्या वैश्विक है। रोजगार के नए अवसर न सृजित हो पाने के पीछे क्या वजहें हैं, आने वाले समय में इससे क्या मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं, बता रही हैं नाज खान।

संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ‘2017 वर्ल्ड एंप्लायमेंट ऐंड सोशल आउटलुक’ रिपोर्ट बेहद चिंताजनक है। इसमें कहा गया है कि आने वाले समय में आर्थिक प्रगति की वर्तमान दर रोजगार की जरूरतें पूरा करने में कामयाब नहीं होगी और 2017-18 में न सिर्फ बेरोजगारी में इजाफा होगा, बल्कि सामाजिक असमानता भी बढ़ेगी। यह रिपोर्ट इसलिए भी चिंतित करने वाली है, क्योंकि भारत पहले हीनिर्यात क्षेत्र में लगातार आ रही गिरावट से जूझ रहा है, वहीं हाल के कुछ महीनों में सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में बड़े स्तर पर कर्मचारियों की छंटनी की जा रही है। पिछले कुछ महीनों में ही करीब छप्पन हजार कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। नौकरियों पर संकट जहां औद्योगिक उत्पादन में एक फीसद की कमी की वजह से है, वहीं नोटबंदी की मार ने भी रोजगार के अवसर घटाए हैं। विश्व के सबसे युवा देश होने का गौरव पाले भारत के लिए हर साल बढ़ती युवाओं की संख्या और इसके अनुपात में नौकरियों का न होना भी चिंता का विषय है। इसके अलावा औद्योगिक क्षेत्र में बढ़ रहे मशीनी प्रभाव से भी नौकरियों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इंसानों की जगह मशीनें, रोबोट ले रहे हैं और मुनाफे और कुशल काम के लिए कंपनियां मशीनीकरण को बढ़ावा देने में लगी हैं।

हालांकि इस ओर सरकार संजीदा है और इस संबंध में उसने रोजगार से जुड़े आंकड़े जुटाने के लिए कार्यबल गठित करने की तैयारी कर ली है। ध्यान इस ओर भी दिया जा रहा है कि मंत्रिमंडल को भेजे जाने वाले प्रस्तावों से रोजगार के कितने मौके पैदा होंगे। सरकार की मंशा साफ है कि अगर किसी प्रस्ताव पर खर्च हो रहा है, तो उससे नौकरियां भी पैदा होनी चाहिए। मगर भारत में दिक्कत आॅटोमेशन और हर क्षेत्र में बढ़ते आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रभाव को लेकर भी है। सिटी यूनियन बैंक और एचडीएफसी बैंकों ने जहां ‘लक्ष्मी’ और ‘इरा’ जैसे रोबोट के जरिए मशीनीकरण की शुरुआत कर दी है वहीं अन्य क्षेत्रों में भी अब आॅटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में सबसे अधिक नौकरियां देने वाले बैंकिंग क्षेत्र में भी नौकरियों का टोटा है। दरअसल, इस नई तकनीक की बदौलत कंपनियों ने जहां भारी लागत में कटौती की है वहीं कार्यकुशलता में बदलाव से उनको मुनाफा भी हुआ है। मुंबई की ब्रोकरेज फर्म सेंट्रल ब्रोकिंग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि आॅटोमेशन की वजह से कंपनियों की दक्षता में सुधार हुआ है, इसलिए प्रतिस्पर्धी दबाव को देखते हुए भी अब कंपनियां आॅटोमेशन पर अधिक ध्यान दे रही हैं।

एचएफएस रिसर्च का अनुमान है कि 2021 तक दुनिया में सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग में करीब चौदह लाख या नौ फीसद नौकरियों में कमी आएगी। वहीं भारत में कम कौशल वाले करीब 6.4 लाख लोगों को नौकरी गंवानी पड़ेगी। पीडब्ल्यूसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक आॅटोमेशन की वजह से अमेरिका में अड़तीस फीसद, जर्मनी में पैंतीस, इंग्लैंड में तीस और जापान में करीब इक्कीस फीसद नौकरियां कम हो जाएंगी। ऐसे में उन लोगों की जरूरत होगी, जो आॅटोमेशन के दौर में रोबोट बनाएं और इनकी निगरानी में सक्षम हों। विशेषज्ञ भी मानते हैं कि 2021 तक विश्व में हर दस में से चार नौकरियां खत्म होंगी और इनमें से एक नौकरी भारत में कम होगी। यानी नौकरियों में करीब तेईस फीसद कमी आएगी।

आॅटोमेशन यानी मशीनों से काम लेने की प्रवृत्ति इंजीनियरिंग, मेन्युफैक्चरिंग, आॅटोमोबाइल, आईटी और बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में बढ़ रही है। इसका उपयोग बढ़ने के साथ ही नौकरियों में भी कमी आ रही है। इस संबंध में मानव संसाधन से जुड़ी फर्म हेड हंटर्स इंडिया ने कहा भी है कि नई प्रौद्योगिकियों के अनुरूप खुद को ढालने में आधी-अधूरी तैयारी के कारण भारतीय आईटी क्षेत्र में अगले तीन साल तक हर साल करीब दो लाख इंजीनियरों की छंटनी की जाएगी।
आल इंडिया मैन्युफैक्चरर्स आॅर्गनाइजेशन, सूक्ष्म, लघु और मध्यम आकार की कंपनियों और कारोबारियों का संगठन है। इससे करीब तेरह हजार उद्योग-धंधे और तकरीबन तीन लाख सदस्य परोक्ष रूप से जुड़े हैं। संगठन के एक अध्ययन के मुताबिक बीते साल 8 नवंबर से 12 दिसंबर के बीच लाखों लोगों की नौकरियां गर्इं। अगर देखा जाए तो नोटबंदी का शुरुआती प्रभाव सबसे अधिक बुनियादी सेवाओं के क्षेत्र खासकर निर्माण के क्षेत्र में काम कर रही इकाइयों पर पड़ा है। इस क्षेत्र में करीब तीन-चार लाख लोगों को नोटबंदी के बाद नौकरियों से निकाल दिया गया। वहीं सड़क निर्माण से जुड़े उद्योगों के रोजगार में भी करीब पैंतीस फीसद की गिरावट दर्ज की गई और मुनाफा भी करीब पैंतालीस फीसद कम हुआ।

नोटबंदी से भ्रष्टाचार और काले धन पर कुछ लगाम भले लगी हो, लेकिन नोटबंदी के बाद के दो महीनों में ही सिर्फ लघु और मझोले उद्योगों के क्षेत्र में ही करीब पंद्रह लाख लोगों ने अपनी नौकरियां गंवार्इं। ऐसे में खेती, छोटे और मझोले उद्योगों में भी रोजगार के मौके कम हुए हैं। वहीं श्रम ब्यूरो की सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि हाल के वर्षों में जहां स्व-रोजगार के मौके घटे हैं वहीं केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं से मिलने वाले रोजगार में भी कमी आई है। 2015 में महज 1.35 लाख नए रोजगार पैदा किए जा सके। विशेषज्ञों का मानना है कि निर्यात में हो रही इस गिरावट के पीछे वैश्विक मंदी और मांग के अलावा सरकार की कुछ नीतियां भी जिम्मेदार हैं। सीधे तौर पर कहा जाए तो सरकार निर्यात में हो रही कमी को नियंत्रित करने में विफल रही है और इसे मात्र वैश्विक मंदी का प्रभाव कह कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस गिरावट के कारण कारोबार का वातावरण चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। पेट्रोलियम के निर्यात में जहां करीब चौदह फीसद की कमी आई है वहीं चमड़ा के निर्यात में 7.82 फीसद, रसायन में 5.0 फीसद की कमी दर्ज की गई। ऐसे में इसका असर रोजगार पर पड़ रहा है। 2015-16 की उद्योग मंडल एसोचैम और थॉट आर्बिट्रिज की एक संयुक्त रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि निर्यात में हो रही इस गिरावट के कारण करीब सत्तर हजार नौकरियां जा चुकी हैं। 2015 में श्रम मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के मुताबिक करीब तिरालीस नौकरियों में गिरावट देखने को मिली थी और इसमें करीब छबीबस हजार नौकरियां निर्यात करने वाली कंपनियों से जुड़ी थीं।

प्रतिस्पर्धा के दौर ने भी नौकरियों को प्रभावित किया है। जियो रिलायंस की मुफ्त सेवाओं से जहां आम आदमी को फायदा हुआ, वहीं वोडाफोन और आईडिया के विलय से करीब सत्रह हजार लोगों के बेकार होने स्थिति पैदा हुई। स्टेट बैंक आॅफ इंडिया से करीब दस फीसद कर्मचारियों की छंटनी होने की आशंका है। एसबीआई का कहना है कि उससे संबंधित करीब छह बैंकों का उसमें विलय होने के कारण कंपनी करीब दस फीसद कर्मचारियों की छंटनी करेगी। भारत में वर्तमान स्थितियों के मद्देनजर बेरोजगारी अब गंभीर चिंता का विषय बनती जा रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश की कुल आबादी के लगभग ग्यारह फीसद यानी बारह करोड़ लोग नौकरियों से वंचित हैं। इनमें भी शिक्षित बेरोजगार कहीं अधिक हैं। बीस वर्ष की उम्र से ऊपर के करीब 14.30 करोड़ युवाओं को नौकरी की तलाश है। 2011 की जनगणना के मुताबिक इन बेरोजगार युवाओं में करीब आधी संख्या महिलाओं की है। वहीं करीब सोलह फीसद ऐसे युवा भी बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं, जिन्होंने महंगी तकनीकी शिक्षा हासिल की है। 2001 में जहां 3.35 करोड़ युवा बेरोजगार थे, 2011 तक उनकी तादाद 4.69 करोड़ पहुंच गई। भारत में पिछले कुछ समय में बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है।

केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद हुए कई सर्वेक्षण बताते हंै कि सरकार के तमाम दावों और नए रोजगार सृजित करने के वादों के बावजूद हालात में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। 2015-16 के दौरान बेरोजगारी दर बढ़ कर पांच फीसद तक पहुंच गई है, जो बीते पांच सालों में सबसे ज्यादा है। 2009 में यूपीए सरकार के शासन काल में दस लाख से अधिक नए रोजगार सृजित हुए थे। मगर 2012 के बाद से किसी भी वर्ष पांच लाख से अधिक रोजगार उपलब्ध नहीं कराए जा सके। एक अन्य रिपोर्ट के हवाले से तो यहां तक कहा गया है कि रोजाना साढ़े पांच सौ नौकरियां घट रही हैं। नौकरियों के घटने की अगर यही दर रही तो वर्ष 2050 तक देश में सत्तर लाख नौकरियां खत्म हो जाएंगी। सोसायटी ग्रुप प्रहार की ओर से कराए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया है कि किसानों, ठेका मजदूरों, छोटे वेंडरों और निर्माण कार्य में लगे मजदूरों पर इसका सबसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। बीते वर्ष श्रम ब्यूरो के सालाना सर्वेक्षण में सामने आया था कि जहां पुरुषों की बेरोजगारी दर 4.3 फीसद है वहीं महिलाओं की बेरोजगारी दर 8.7 फीसद तक पहुंच गई है। देश के करीब अड़सठ फीसद परिवारों की मासिक आय दस हजार रुपए पर सिमट कर रह गई है और करीब सतहत्तर फीसद परिवारों के पास नियमित आय का कोई जरिया नहीं है। वहीं ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के हालात भी बेहतर नहीं हैं। करीब बयालीस फीसद कामगारों को साल के बारह महीने काम नहीं मिलता। ऐसे में खेती के मौसमी रोजगार पर उनकी निर्भरता बढ़ी है।

अच्छे दिन का नारा और रोजगार सृजन के दावों के साथ भाजपा की सरकार बनी थी। इसी के मुताबिक अब जनता भी सरकार के कामों का आकलन कर रही है। सरकार के तीन वर्ष के कार्यकाल पर सिटिजन इंगेजमेंट प्लेटफॉर्म लोकल सर्विस के सर्वे में कहा गया है कि करीब इकसठ फीसद लोग सरकार के काम से खुश तो हैं, मगर छियासठ फीसद लोगों के मुताबिक इन तीन वर्षों में चीजें महंगी हुई हंै। वहीं तिरसठ फीसद लोगों ने बेरोजगारी की बढ़ी दर पर भी निराशा व्यक्त की। हर साल 2.5 करोड़ नौकरियां देने का दावा करने वाली वर्तमान सरकार से खासकर युवाओं को बहुत उम्मीदें हैं, लेकिन लगातार घटते रोजगार से सरकारी दावों को ठेस पहुंची है। हालांकि इस ओर सरकार ने आर्थिक सुधारों को तेज करने और निवेश बढ़ाने जैसी पहल जरूर की है, मगर रोजगार सृजन के क्षेत्र में नतीजे उत्साहजनक नहीं लगते। कुछ हालिया रिपोर्ट बताती हैं कि रोजगार का विकास धीमा है और 2.31 लाख नई नौकरियों में से करीब 1.1 लाख तो शिक्षा और स्वास्थ के क्षेत्र से ही संबद्ध हैं।

कुछ समय पहले श्रम ब्यूरो ने एक सर्वे में कहा था कि वस्त्र, चमड़ा, आॅटोमोबाइल, रत्न-आभूषण, यातायात, सूचना तकनीक और हथकरघा क्षेत्रों में नौकरियां कम हो रही हैं। वहीं आशंका यह भी जताई गई है कि अगले दो-तीन वर्षों में आईटी, टेलीकॉम, बैंकिंग और वित्त जैसे क्षेत्रों में करीब दस लाख नौकरियां जा सकती हैं। वहीं आईटी क्षेत्र की कंपनियों के संघ नैसकॉम ने भी कहा है कि मौजूदा समय में इस क्षेत्र में करीब चालीस लाख लोग कार्यरत हैं। मगर अगले चार-पांच वर्षों में इनमें से करीब आधे से अधिक लोगों पर छंटनी की तलवार लटकी होगी। दरअसल, नए उद्योगों में मशीनों और रोबोट से काम लिया जा रहा है। वहीं बिजली उत्पादन के क्षेत्र और टैक्स्टाइल उद्योग भी कंप्यूटराइज्ड हो रहे हैं, इसलिए नौकरियां घट रही हैं। इस समय पारंपरिक आईटी क्षेत्र बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है और इसका असर नौकरियों के स्वरूप और अवसरों पर पड़ना तय है। नई अर्थव्यवस्था ज्यादा डिजिटल और टेक्नोलॉजी संचालित है, जो जिंदगी जीने के तरीकों को भी बदल रही है। इसका प्रभाव खेती, ग्रामीण, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, खुदरा और अन्य स्तरों पर भी पड़ रहा है। इससे कुछ नई नौकरियां पैदा होंगी तो कुछ मौजूदा नौकरियां खत्म भी हो जाएंगी। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि बीते चार वर्षों से देश में प्रतिदिन करीब साढ़े पांच सौ नौकरियां खत्म हो रही हैं। हालात यही रहे तो 2050 तक करीब सत्तर लाख नौकरियां समाप्त हो जाएंगी।

आ ज युवा लाखों रुपए खर्च कर महंगे संस्थानों से डिग्रियां लेकर तो निकल रहे हैं, मगर इसके बावजूद वे नई तकनीक में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। वहीं कंपनियों के सामने समस्या है कि उन्हें अपने पचास-साठ फीसद कर्मचारियों को नई तकनीक के मुताबिक फिर प्रशिक्षित करना पड़ेगा। इसलिए भी कंपनियां पुराने कर्मचारियों को निकाल कर कम वेतन में और नई प्रौद्योगिकी में निपुण कर्मचारियों को रखना बेहतर समझ रही हैं। ऐसे में सवाल महंगी व्यावसायिक शिक्षा परोसने वाले संस्थानों पर उठना लाजिमी है। हाल में रोजगार आकलन से जुड़ी कंपनी एस्पायरिंग माइंड्स के कराए एक अध्ययन से यह सवाल और जरूरी हो जाता है। इस अध्ययन में कहा गया कि देश के करीब पंचानबे फीसद इंजीनियर सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट से जुड़ी नौकरियों के काबिल ही नहीं हैं। अध्ययन में कहा गया कि लगभग 4.77 उम्मीदवार ही प्रोग्राम के लिए सही तर्क लिख पाते हैं। वहीं आॅटोमेटा टेस्ट में करीब दो तिहाई छात्र सही कोड तक नहीं डाल सके। उच्च शिक्षा का हाल बेहाल है और इसका खमियाजा युवाओं को भुगतना पड़ रहा है। करीब तिरानबे फीसद एमबीए पास युवाओं को नौकरी नहीं मिल रही। वहीं कोटक इंस्टिट्यूशनल इक्विटीज की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में हर साल करीब पंद्रह लाख इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स विभिन्न संस्थानों से निकलते हैं। ऐसे में इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स की संख्या कहीं अधिक है और इस कारण डिमांड-सप्लाई में असंतुलन है। वहीं आॅटोमेशन और रोबोट के कारण भी आने वाले समय में करीब चालीस फीसद इंजीनियरों की जरूरत नहीं होगी।

मगर चिंता इस बात की है कि लाखों की संख्या में हर साल निकलने वाले इंजीनियर कहां खपाए जाएंगे। ऐसे में जरूरी हो गया है कि तकनीकी शिक्षा का स्तर सुधरे और श्रमिकों को मशीनों के संचालन का प्रशिक्षण पहले ही दिया जाए। अपनी हालिया रिपोर्ट में एसोचैम और पीडब्ल्यूसी ने भी कम कार्यकुशल कर्मचारियों को दूसरी दक्षताएं सिखाने की जरूरत पर बल देते हुए कहा है कि आईटी, मैन्युफैक्चरिंग, कृषि और वानिकी जैसे क्षेत्रों पर रोबोटिक सिस्टम की वजह से ज्यादा असर पड़ेगा और नौकरियां कम पैदा होंगी। इसलिए कार्यकुशलता में बदलाव जरूरी है। इसको देखते हुए हाल में नीति आयोग ने भी अपने तीन वर्ष के एक्शन प्लान में रोजगार बढ़ाने संबंधी कई सुझाव सरकार को दिए हैं। इसमें स्किल डेवलपमेंट और श्रम कानूनों में बदलाव जैसी सिफारिशें भी शामिल हैं।