हंसी को आमतौर पर एक सार्थक अभिव्यक्ति और सेहत के लिए अच्छा माना जाता है। इसके उलट रोना एक नकारात्मक प्रवृत्ति मानी गई है। कहा जाता है कि रोना हमारी कमजोरी प्रदर्शित करता है। पर इधर हमारे देश में अच्छे स्वास्थ्य के लिए रोना जरूरी बताते हुए रुदन क्लब तक खुल गए हैं। गुजरात के सूरत में लाफ्टर थेरेपिस्ट कमलेश मसालावाला ने अपने सहयोगियों के साथ ‘हेल्दी क्राइंग क्लब’ की शुरुआत की है, जिसका उद्देश्य लोगों का मानसिक तनाव कम करना है। इस क्लब में व्यवस्था है कि लोग महीने के आखिरी रविवार को सुबह आठ बजे क्राइंग क्लब में आएं और जी भरके रोएं, ताकि वे तनाव, कुंठा, अवसाद से निजात पा सकें।
कमलेश मसालावाला का मत है कि जिस तरह जन्म के वक्त बच्चे के रुदन को जीवन की निशानी माना जाता है, उसी तरह जीवन के किसी भी चरण में रोना फायदेमंद है। उनका मानना है कि खुद को मजबूत दिखाने के लिए लोगों में आंसू छिपाने की आदत हो जाती है। यहां तक कि अकेले में भी रोने से परहेज करते हैं। पर इससे असल में मनोविकार बढ़ते हैं।
विकासवाद के जनक चार्ल्स डार्विन ने रुदन को आंसू निकालने वाली एक व्यर्थ प्रक्रिया बताया था। उन्होंने कहा था कि रुदन असल में आंखों के इर्दगिर्द की मांसपेशियों के संचालन का एक उत्तर प्रभाव (साइड इफेक्ट) मात्र है। पर उन्होंने बच्चों और किशोरों में इसका महत्त्व यह कह कर निरूपित किया था कि इसके जरिए वे भूख महसूस होने या चोट लगने पर अपने अभिभावकों का ध्यान खींचने में सफल होते हैं। मनोविज्ञानी विलियम एच. फे्र के अनुसार रुदन सिर्फ दुख और कुंठा की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि यह स्वास्थ्य के लिए भी जरूरी है। असल में रोकर ही हम अपने भावनात्मक तनाव और शरीर पर पड़ने वाले उसके घातक असर से बच सकते हैं। ऐसे प्रभावों में मनोरोग ही शामिल नहीं होते, बल्कि दिल की बीमारियों की लंबी फेहरिस्त है, जो नहीं रोने के दुष्परिणाम से पैदा होती हैं।
शेक्सपियर ने अपनी रचना- किंग हेनरी पंचम में लिखा था, ‘रो देने से हम दुख की गहरी जकड़ में जाने से बच जाते हैं।’ मनोविज्ञान ने कुछ दशक पहले इस तथ्य की छानबीन की थी कि क्या रोना सेहत के लिए फायदेमंद है। 1981 में मिनिसोटा के प्रख्यात मनोविज्ञानी विलियम एच. फ्रे ने अपने शोध में पता लगाया था कि एक दुखभरी फिल्म देख कर दिल से रोने वालों में प्रोटीन की मात्रा उन लोगों के मुकाबले ज्यादा बढ़ गई, जिनकी आंख में प्याज काटने की वजह से आंसू आए थे। असल में, विज्ञान की नजर में इस बात का काफी महत्त्व है कि आंख में आंसू किस वजह से आए। ये तीखी मिर्च खाने से पैदा हुए या फिर किसी शोक, तनाव या कष्ट की वजह से। माना जाता है कि बच्चे मां-बाप का ध्यान खींचने और अपनी कोई मांग मनवाने के लिए रोते हैं। पर मनोविज्ञानियों की नजर में बड़ों का रुदन बिना किसी प्रयोजन के नहीं होता। वे भी असल में रोकर अपने मित्रों-परिचितों का समर्थन-सहयोग चाहते हैं। अगर किसी विपरीत स्थिति में फंसा व्यक्ति उससे बाहर नहीं आ पा रहा है तो वह अपने दोस्तों-रिश्तेदारों के सामने रोकर उनसे मदद की अपेक्षा करता है। कुछ शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि उम्रदराज व्यक्ति प्राय: तब रोता है, जब वह खुद को बहुत अकेला और असहाय महसूस करता है।
रुदन को विरेचन यानी साफ-सफाई की प्रक्रिया का जरूरी चरण भी बताया गया है। यूनानी दार्शनिक अरस्तू के अनुसार रुदन असल में ‘मस्तिष्क के विकारों की सफाई है।’ गौरतलब है कि 1986 में अमेरिका के प्रख्यात अखबारों और पत्रिकाओं में मानसिक स्वास्थ्य पर छपे लेखों का अध्ययन करने के बाद एक मनोविज्ञानी ने दावा किया था कि इनमें से चौरानबे प्रतिशत लेख रुदन के बारे में थे, जिनमें सलाह दी गई थी कि रुदन से व्यक्ति अपने मानसिक तनाव से निजात पा सकता है। बेशक, एक वयस्क व्यक्ति किसी सार्वजनिक स्थान पर अपने दुख को व्यक्त करते समय रो नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा करने पर उसे और शर्मिंदगी महसूस होगी। मनोविज्ञानी कहते हैं कि सबके सामने रोने के बजाय अकेले में या फिर अपने बेहद नजदीकी दोस्त या रिश्तेदार के सामने रो देना ज्यादा लाभदायक साबित होता है। शोध में यह निष्कर्ष भी निकाला जा चुका है कि जो लोग जरूरत पड़ने पर भी नहीं रोते या फिर ऐसे मनोभावों को छिपा या दबा ले जाते हैं, उन्हें अपने दुख या कुंठा से बाहर निकलने में भी जल्दी कोई राहत नहीं मिलती।
आंसू और रोना
विभिन्न शोधों से अब तक कुल पांच ऐसे कारण पता चले हैं, जिनके मुताबिक रोना सेहत के लिए अच्छा होता है। रोने से मन दुरुस्त होता है: नीदरलैंड में एक शोध के दौरान असमिर ग्रैकानिन ने पाया कि एक दुखभरी फिल्म देखने के बाद जीभर के रोने वाले लोग करीब बीस मिनट बाद सामान्य स्थिति में लौट आए और करीब नब्बे मिनट बाद उन्होंने उन लोगों के मुकाबले ज्यादा अच्छा अनुभव हुआ, जिन्होंने फिल्म देख कर एक आंसू नहीं टपकाया था। इससे साबित हुआ कि अच्छी हंसी की तरह अच्छा रुदन भी सेहत को बेहतर करता है।
’तनाव-मुक्ति का तरीका : मिनिसोटा (अमेरिका) स्थित साइकेट्री रिसर्च लैबोरेटरी के निदेशक और प्रख्यात बायोकेमिस्ट डॉ. विलियम एच. फ्रे ने दूसरे संस्थानों और मनोविज्ञानियों के साथ मिल कर लोगों को दुखभरी गाथा वाली फिल्म दिखा कर जो शोध किया है, उसका निष्कर्ष है कि रुदन के बाद लोग इसलिए अच्छा महसूस करते हैं, क्योंकि इससे तनाव के दौरान शरीर में बने रसायन आंसुओं के जरिए शरीर से बाहर निकल जाते हैं। फ्रे कहते हैं कि वे पक्के तौर पर यह तो नहीं जानते कि तनाव के दौरान कौन-कौन से रसायन शरीर में बनते हैं, लेकिन रोने से आंसुओं के जरिए एसीटीएच जैसा रसायन बाहर आता है, जिसकी तनाव में बड़ी भारी भूमिका है।
’आंखों की सफाई : वैज्ञानिकों का मत है कि आंखों की सफाई सबसे बेहतर ढंग से हमारे आंसू कर सकते हैं। प्याज छीलने-काटने या किसी दुख में रोने से हमारी पुतलियों पर जो हलचल मचती है, उससे सल्फ्यूरिक एसिड पैदा होता है। इससे छुटकारा पाने के लिए आंसू बनाने वाली ग्रंथियां फौरन सक्रिय हो जाती हैं और उसे आंख से बाहर निकालने में जुट जाती हैं। उल्लेखनीय है कि आंसुओं में लाइसो-एंजाइम भी होता है, जो ग्लूकोज से भरपूर होने के साथ-साथ जीवाणु और कीटाणुरोधी (एंटीबैक्टीरियल और एंटीवायरल) होता है। इस एंजाइम से आंखों की सतह और पुतलियों को काफी आराम मिलता है।
’नासिका रंध्रों की स्वच्छता : इमोशनल फ्रीडम किताब के लेखक जूडिथ आॅरलॉफ के मुताबिक, आंसू सिर्फ आंखों की सेहत बेहतर नहीं करते, बल्कि ये नासिका रंध्रों से होकर भी गुजरते हैं, जहां म्यूकस जमा रहता है। आंसुओं की मात्रा ज्यादा होने पर म्यूकस ढीला होकर बहने लगता है। इससे नाक की भीतरी सतह नम हो जाती है और बैक्टीरिया मुक्त हो जाती है। मर्दों को भी रोना चाहिए: डॉ. फ्रे का एक और दिलचस्प आकलन है। उन्होंने अपने शोध में यह भी निष्कर्ष निकाला है कि महिलाएं एक महीने में औसतन पांच बार रोती हैं, जबकि मर्द औसतन 1.3 बार। इसकी एक जैवविज्ञानी वजह यह है कि महिलाओं में प्रोलैक्टिन नामक हॉर्मोन ज्यादा मात्रा में होता है, जो ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है। पर डॉ. फ्रे कहते हैं कि रसायनों और हॉर्मोन्स के मुकाबले स्त्री-पुरुषों के रुदन औसत में अंतर की ज्यादा बड़ी वजह सांस्कृतिक और लैंगिक भिन्नता वाले परिवेश की है। इसमें मर्दों को यह कह कर नहीं रोने के लिए प्रेरित किया जाता है कि मर्द को दर्द नहीं होता। पर इस तरह असल में मर्दों को रोने के फायदे से वंचित कर दिया जाता है। रोने में लैंगिक भिन्नता असल में ज्यादा त्रासदकारी है, इसलिए इससे बचना चाहिए। ०
