देवशंकर नवीन
हर कालखंड का बौद्धिक समुदाय अपने समाज की अगुआई करता आया है। आम नागरिक उनकी नैतिकता, निष्ठा और विवेक पर विश्वास करता है। बीसवीं शताब्दी में कुछ लोगों ने इस नागरिक आस्था का दुरुपयोग कर उन्हें धोखा देना शुरू किया। आज तो इस धोखे का भरा-पूरा बाजार है। आए दिन नेता, अफसर, संत, शिक्षक, वैद्य आदि ऐसे धोखे करते रहते हैं। दरअसल, इन दिनों हम एक बाजार में जी रहे हैं। खरीद-बिक्री की हरी-भरी व्यवस्था चारों ओर कायम है। जिनके पास कीमत है, वे सब कुछ खरीद लेना चाहते हैं; जिनके पास कीमती सौदा है, वे ऊंची से ऊंची कीमत पर खुद को या नीति-नियम, ईमान-धर्म, बुद्धि-विचार, समय-सत्कार को बेच देना चाहते हैं।
असंगत आचरण में लीन भारतीय बुद्धिजीवियों के नवनिर्मित व्यक्तित्व पर राजकमल चौधरी ने टिप्पणी की थी: ‘मानिक बंद्योपाध्याय ने शराब पीकर आत्महत्या कर ली। जीवनानंद दास ट्राम के पहियों के नीचे आकर मर गए। निराला को वक्त पर समाज का अपनत्व और सुरक्षा नहीं मिली। मुक्तिबोध को दवा की जरूरत थी, तो वे प्रूफरीडरी करके उम्र काट रहे थे, और जब उन्हें दवा मिली, तो वे दवा की सारी मियाद पूरी कर चुके थे।… हमारे देश के… सभी प्रकार के बुद्धिजीवी किसी भी कवि या क्रांतिकारी की मौत से मरना नहीं चाहते। वे जीना चाहते हैं, जबकि जीने के सारे तरीके सरकारी गोदामों में और ऊंचे व्यापारियों के दफ्तरों में बंद कर लिए गए हैं।’ शर्मनाक है कि हमारे उन पूर्वजों को अपने समाज के बौद्धिकों से वैसा कुछ भी नहीं मिला, जिसकी उन्हें सख्त जरूरत थी।
उसी लेख में ‘एनकाउंटर’ (लंदन) के संवाददाता की एक घोषणा है कि आज भारतीय बुद्धिजीवी अपने देश की समस्याओं के प्रति तटस्थ, अपनी सामाजिक जिम्मेवारियों की ओर एकदम निश्चेष्ट, मात्र अपने संकटों के लिए हाहाकार मचाने वाले, आलसी और निष्क्रिय हैं। ये वक्तव्य पांच दशक पूर्व के हैं, पर आज भी भारतीय बुद्धिजीवियों का हाल इससे अलग नहीं है। आज भी हंगामा खड़ा कर अपना वर्चस्व कायम करने में लिप्त हैं। सभा-समारोहों और पत्र-पत्रिकाओं में बोलते-लिखते समय ये बुद्धिजीवी नाखून कटा कर शहीदों में नाम लिखाने को तत्पर रहते हैं। ज्ञान और उपदेश की पुड़िया बांटते फिरते हैं। पर धरातल का सत्य यह है कि अपनी ‘नैतिकता’ और ‘सामाजिक जिम्मेवारी’ बेच कर वे ‘सरकारी गोदामों’ और ‘व्यापारियों के दफ्तरों’ की चाबी हथियाने के तौर-तरीके जानने में मशगूल रहते हैं। ऊंची कीमत पर अपना जमीर बंधक रख आए ये बुद्धिजीवी आज के समाज में अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं।
इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों, प्रकाशन व्यवसाय और पत्र-पत्रिकाओं के प्रचार-प्रसार से आधुनिक समाज को इतना लाभ तो हुआ है कि आम जनता तक अपनी बात पहुंचाने में आज के बुद्धिजीवियों को बहुत आसानी हो गई है। पर आम जनता को ऐसा लगने लगा है कि देश के जो बुद्धिजीवी हमारे लिए उपदेश बांट रहे हैं, व्यवस्था की विकृतियों से हमें सावधान कर रहे हैं, वे खुद उन व्यवस्थाओं से अलग नहीं हैं। निरंतर वे अपने और अपनी संततियों के लिए सुविधा और पूंजी जुटाने में लगे हुए हैं। पुराने समय में साहित्य का दायरा थोड़ा छोटा था। कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि को ही लोग साहित्य मानते थे। इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, राजनीति-शास्त्र आदि पाठ्यक्रम या जानकारी के स्रोत के रूप में थे। आलोचना कर्म के विकास के साथ साहित्य की सीमा विस्तार पा गई। मनोरंजन का स्वरूप भी आत्मिक विकास की ओर चला गया। इसी क्रम में आज का हिंदी पाठक अपने तमाम उपदेशकों को शंका की दृष्टि से देखने लगा है। आज के लेखकों-चिंतकों के पाखंड के कारण पाठक वर्ग पढ़ते समय भी निर्द्वंद्व नहीं रह पाता।
लेखन कार्य आज धंधा बन गया है, पांच-छह दशक पूर्व यह एक सामाजिक कर्म था। यह काम किसी तात्कालिक उद्देश्य और लाभ के लिए नहीं होता था। आत्म-स्थापन, आत्म-प्रचार की धारणा का प्रवेश जबसे इस कर्म में हुआ, हमारे देश के बुद्धिजीवी अपने को महाबली और समय का देवता साबित करने में लग गए। मान्यता, पुरस्कार और नौकरी देने वाले बाबा बन गए। इस आत्मकेंद्रित व्यापार में वे अपने सामाजिक और नैतिक कर्तव्य भूल गए और खुद को इस व्यापक बाजार का नियंता बना लिया। आज स्पष्ट दिख रहा है कि सरकार, व्यवस्था, उद्योगपति और प्रशासनिक अधिकारियों को चीख-चीख कर समाजविरोधी साबित करने वाले समाज के नव-बौद्धिक इन अभिकरणों में साहित्य, शिक्षा और संस्कृति के संवर्द्धन के लिए कोई संभावना भांप कर फौरन क्रियाशील हो जाते हैं और खुद को वहां का भाग्यविधाता बनाने के उद्योग में लीन हो जाते हैं। कुर्सी पर काबिज होने के बाद वे वहां समाज के प्रति अपना कर्तव्य भूल कर मठाधीश बन जाते हैं। तमाम नैतिकता भूल कर वे अपने और मुंहलगुओं के हितसाधन में जुट जाते हैं। साहित्य, शिक्षा और संस्कृति में प्रयासपूर्वक महत्त्व अर्जित कर शक्तिवान हुए इन लोगों की धांधली को आज के नागरिक पहचानने लगे हैं।
उत्सवप्रेमी बुद्धिजीवी आज आपदाओं का भी उत्सवीकरण करने में मशगूल हैं। उदाहरण एक ढूंढ़ें, हजार मिलेंगे। थोड़े-थोड़े अंतराल पर हमारे देश में आपदाएं आती रहती हैं। हमारे बुद्धिजीवी आनन-फानन उसे मुद्दा बना कर कुछ दिनों तक अपना बाजार गरम करते रहे हैं, फिर सब कुछ शांत हो जाता है! किसी महान रचनाकार या संस्कृतिकर्मी की अप्रतिम देन पर ताउम्र निश्चेष्ट रहा हिंदी समाज अचानक उसकी सौंवी जयंती पर जागता है और घोषणाओं की हुड़दंग मचा देता है। कहता है कि बड़े दुख की बात है कि इन पर कायदे से कोई काम नहीं हुआ है।… समझ नहीं आता कि उन्हें किस पर दुख है। अगर यह काम उन्हें इतना जरूरी लग रहा था तो अब तक किया क्यों नहीं, किसने रोक रखा था! यह बात तो समझने की है कि वे समारोह नहीं कर सकते, क्योंकि उसके लिए संसाधन चाहिए। पर लिखने के लिए तो संसाधन की आवश्यकता नहीं थी, क्यों नहीं लिखा। जब हरिवंश राय ‘बच्चन’, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आदि की जन्मशती आई, तो हंगामों का सिलसिला शुरू हो गया। फिर आगे अज्ञेय, नागार्जुन, शमशेर, नलिन विलोचन शर्मा, जानकीवल्लभ शास्त्री के शताब्दी वर्ष पर भी ऐसा ही हुआ, आगे अमृतलाल नागर पर भी ऐसा ही होगा।
सब जानते हैं कि आज हिंदी आलोचना का जो स्वरूप हमारे सामने है, उसका विकास प्रारंभिक वाद-विवाद से हुआ है। पर, आज का वाद-विवाद अपने समकालीनों या पूर्वजों को खारिज या लांछित करने के लिए किया जाता है। मामला चाहे राजनीतिक हो या साहित्यिक-सांस्कृतिक वक्तव्य का, उनका उद्देश्य दाखिल-खारिज का ही रहता है, सामाजिक सरोकार का नहीं। उन्हें इस बात की कतई चिंता नहीं होती कि परवर्ती पीढ़ी पर उनके इस आचरण का प्रभाव पड़ेगा। खुद को प्रगतिगामी घोषित करने वाले विचारक अपने वक्तव्यों या आचरणों में दो दशक आगे की बात भी नहीं सोचते। यह उनकी कैसी प्रगति कामना है, स्पष्ट नहीं होता! खुद तो अपने जीवन-काल तक जीवित रह सकने वाले साहित्य या विचार की रचना नहीं कर पाते; पर कालजयी साहित्य के सर्जक तुलसीदास, भारतेंदु, प्रेमचंद, हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि की धारणाओं पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं।
असल में हिंदी में क्रियाशील हमारे आज के विचारकों का चरम उद्देश्य चूंकि समाज-संबद्ध नहीं होता, इसलिए वे कदम-कदम पर पैंतरे बदलते हैं, अपने हित में समझौता करते हैं। इसी कारण संभवत: उनके विरोध के स्वर को भी लोग शक की निगाह से देखते हैं। असल में वे अपने स्वार्थ में बिके हुए लोग हैं। स्वार्थ-साधना में बिके हुए इन नेताओं, विचारकों, बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, उपदेशकों द्वारा संचालित समाज-व्यवस्था में अब आम नागरिक ही कुछ बेहतर कर सकेगा। ०