जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ का प्रकाशन 1937 में हुआ और गांधी का ‘हिंद स्वराज’ 1909 में लिखा जा चुका था। यानी ‘हिंद स्वराज’ के लगभग अठाईस वर्षों बाद ‘कामायनी’ प्रकाशित हुई। अपने रचना-काल से ही कामायनी जीवन-दर्शन, विचारधारा या जीवन-दृष्टि को लेकर काफी चर्चित और विवादित रही। किसी ने इसे ‘हृदय-बुद्धि-मन के त्रिपुर में सामंजस्य स्थापित कर मानव-जीवन को संतुलित और समरस बनाने का मार्ग-दर्शन’ बताया, तो किसी ने प्रत्यभिज्ञा-शैव दर्शन के काव्य के रूप में महिमामंडित किया। किसी ने दर्शन की प्रधानता के कारण इसे काव्य की दृष्टि से घटिया कृति घोषित किया, तो किसी ने आधुनिक पंूजीवादी सभ्यता से उत्पन्न समस्याओं के समाधान स्वरूप मार्क्सवादी-समाजवादी दर्शन को न अपनाने के कारण कामायनीकार को खूब कोसा, लताड़ा। लेकिन इस काव्य कृति को गांधी के विचारों, खासकर उनके ‘हिंद स्वराज’ की संगति में देखने-समझने का प्रयास हिंदी आलोचना में न के बराबर हुआ। गांधीजी को लेकर जयशंकर प्रसाद की मान्यता के संबंध में रामविलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्य साधना’ में उनका यह कथन उद्धृत किया है- ‘‘इस युग के तीन व्यक्तियों को महापुरुष मानता हूं- गांधीजी, रवींद्र बाबू और मालवीयजी, और मैं अपने को इन तीनों में से किसी एक का अनुयायी नहीं मानता।’’ प्रसाद भले गांधीजी के अनुयायी न रहे हों, लेकिन ‘कामायनी’ में वे औद्यौगिक सभ्यता और उससे उत्पन्न उपभोक्तावाद के प्रति वैसा ही आलोचनात्मक दृष्टिकोण ‘मधुचर्या’ की ओट में प्रकट करते हैं, जैसा गांधी ने हिंद स्वराज में प्रकट किया था। गांधी की तरह प्रसाद भी इस मत के कायल दिखाई देते हैं कि मशीनी सभ्यता और उससे पैदा हुए उपभोक्तावाद को अंगीकार करने के बजाय आवश्यकताओं पर नियंत्रण कर, सादगीपूर्ण और शारीरिक श्रम आधारित जीवन-पद्धति अपना कर ही विश्व मानव को भौतिक सभ्यता की तबाही से बचाया जा सकता है। इस दृष्टि से गांधी का ‘हिंद स्वराज’ मशीनी सभ्यता और उपभोक्तावाद का राजनीतिक-अर्थशास्त्रीय आलोचना है, तो प्रसाद की ‘कामायनी’ उसकी काव्यात्मक आलोचना।
गौरतलब है कि मशीनीकरण के खतरनाक स्वरूप से ‘हिंद स्वराज’ में गांधी ने आगाह किया था- ‘‘यंत्रों से यूरोप उजड़ रहा है और वहां की हवा भारत में आ गई है। यंत्र आधुनिक सभ्यता की निशानी है और वह महापाप है, ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूं। अगर यंत्रों की यह हवा ज्यादा चली तो भारत की बड़ी शोचनीय स्थिति हो जाएगी।… भारत में मिलें कायम करने के बजाय मैनचेस्टर को अभी और रुपया भेजते रह कर उसका सड़ा हुआ कपड़ा इस्तेमाल करते रहने में हमारा भला है, क्योंकि उसका कपड़ा इस्तेमाल करने में केवल हमारा पैसा जाएगा। अगर हम भारत में मैनचेस्टर बना डालें, तो पैसा भारत में रहेगा, पर वह पैसा हमारा खून चूस लेगा।’’ प्रसादजी का सबसे पहले चरखाधर्मी उपकरण तकली के प्रति प्रेम प्रकट होता है। ‘इर्ष्या’ सर्ग में जब मनु का मन गर्भवती श्रद्धा से विरक्त होकर आखेट करने में ज्यादा समय बिताना पसंद करता है, तब उन एकांत क्षणों में तकली चला कर ही श्रद्धा अपनी एकरसता दूर करती है। वह मनु से कहती है- ‘तुम दूर चले जाते हो जब/ तब लेकर तकली यहां बैठ/ मैं उसे फिराती रहती हूं/ अपनी निर्जनता बीच पैठ।/ मैं बैठी गाती हूं तकली के/ प्रतिवर्तन में स्वर विभोर/ चल रही तकली धीरे-धीरे/ प्रिय गए खेलने को अहेर।’
यहां ‘तकली के प्रतिवर्तन में स्वर’ गांधी के चरखे का ही तो स्वर है। तकली जैसे मानवीय श्रम पर आधारित उपकरण का, सीधे-सादे जीवन का ही तो महत्त्व है श्रद्धा के जीवन में, जिससे मनु चिढ़ता है, क्योंकि उसे ऐश्वर्य से परिपूर्ण, ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियों से, भौतिक सुविधाओं से भरपूर जीवन चाहिए। इसीलिए एक रात वह चुपके से सोती हुई श्रद्धा को छोड़ कर पलायन कर जाता है और सारस्वत प्रदेश में आकर इड़ा यानी बुद्धि के सहयोग से वह ज्ञान-विज्ञान के बल पर यांत्रिक विकास का चरम रूप विकसित करता है। लेकिन इस यांत्रिक विकास का दुष्परिणाम तब पता चलता है जब ‘संघर्ष’ सर्ग में प्रजा विद्रोह कर उठती है और मनु को उलाहना देती है- ‘प्रकृति शक्ति तुमने यंत्रों से सबकी छीनी/ शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी।’गांधी ने भी तो यही कहा था ‘हिंद स्वराज’ में कि हम भारत में मैनचेस्टर बना डालें, तो पैसा भारत में रहेगा, पर वह पैसा हमारा खून चूस लेगा। मैनचेस्टर जैसी मिलों के यंत्र खून चूसने वाले थे, तो मनु द्वारा बिछाये गए यंत्रों के जंजाल ने भी जनता का खून चूस कर ‘उसकी जीवनी को जर्जर झीनी’ बनाने वाले सिद्ध हुए।
उत्पादन की नई मशीनी पद्धति ने आधुनिक सभ्यता को भोगवादी बनाया और यह अतिशय भोगवादी प्रवृत्ति ‘सच्ची सभ्यता’ से कोसों दूर थी। ‘हिंद स्वराज’ के ‘सच्ची सभ्यता कौन सी’ वाले अध्याय में गांधी सभ्यता को परिभाषित करते हुए कहते हैं- ‘‘सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के मानी हैं नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इंद्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उलटा है वह बिगाड़ करने वाला है।… मनुष्य की वृत्तियां चंचल हैं। उसका मन बेकार की दौड़ धूप किया करता है।… भोग भोगने से भोग की इच्छा बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बांध दी।’’ मनु भी चंचल वृत्तियों का प्रतिनिधि चरित्र है, जो हमेशा ज्यादा लेकर भी अतृप्त रहता है, भोग भोगने से उसकी भोग की इच्छा बढ़ती जाती है। मनु सारस्वत प्रदेश में बहुत कुछ भौतिक सुख-सुविधा प्राप्त कर लेने के बाद भी असंतुष्ट, उद्विग्न रहता है, और वह सत्ता, ऐश्वर्य और स्त्री-देह का और अधिक भोग करना चाहता है। कर्म सर्ग में मनु अपनी असीम भोगेच्छा को इस रूप में प्रकट करता है: ‘आकर्षण से भरा विश्व यह केवल भोग्य हमारा,/ जीवन के दोनों कुलों में बहे वासना धारा।/ तुच्छ नहीं है अपना सुख भी श्रद्धे। वह भी कुछ है,/ दो दिन के इस जीवन का तो वही चरम सब कुछ है।/ इंद्रिय की अभिलाषा जितनी सतत सफलता पावे,/ जहां हृदय की तृप्ति विलासिनि मधुर-मधुर कुछ गावे।’
पर श्रद्धा इस असीम इंद्रिय-सुख की लालसा वाले मनु को प्रबोध देती है: ‘अपने में सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा?/ यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।/ औरों को हंसते देखो मनु, हंसो और सुख पाओ,/ अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।’
स्पष्टत: यहां श्रद्धा के मुख से गांधी की वह ‘पुरखों’ की परंपरा बोल रही है, जिन्होंने भोग की हद बांध दी थी। मगर मनु को श्रद्धा की यह बात पसंद नहीं आई और सुख-भोग की इच्छा लिए सारस्वत प्रदेश जा पहुंचा। वहां पर भी बहुत कुछ विकास करने के बाबजूद उसकी भोगने की इच्छा पर विराम नहीं लगा, तो वहां प्रजा-विप्लव हुआ। सारस्वत प्रदेश में भी श्रद्धा पहुंच कर उसे इंद्रिय-संयम, अपरिग्रह, अहिंसा, शांति आदि का पाठ पढ़ाती है और सारस्वत प्रदेश को जिस भौतिक, यांत्रिक उन्नति से मनु मोहाविष्ट था उसके खोखलेपन को बेनकाब करती है: ‘श्रममय कोलाहल, पीड़नमय/ विकल प्रवर्तन महायंत्र का/ क्षण भर भी विश्राम नहीं है/ प्राण दास है क्रिया-तंत्र का/ यहां सतत संघर्ष, विकलता/ कोलाहल का यहां राज है/ अंधकार में दौड़ लग रही/ मतवाला यह सब समाज है।’स्पष्टत: श्रद्धा उन गांधीवादी मूल्यों, विचारों का पुंजीभूत रूप है, जिनके अनुसार यंत्रों, महायंत्रों, प्रौद्यागिकी पर सवार आधुनिक सभ्यता मनुष्य के जीवन में अशांति, कोलाहल, प्रतिस्पर्धा या अंधकार, लोभ का बवंडर पैदा करने वाली है। इसलिए श्रद्धा निरंतर मनु को आत्म-सुख के दायरे से निकल कर अन्य के साथ भी समरस, दुख-सुख का साथी बनने को प्रेरित करती है। अत्यधिक धन-संग्रह, या लोभ को अहितकर बताते हुए मनु को सादगीपूर्ण सौम्य जीवन की ओर लाती है। जहां मनु को सारस्वत प्रदेश के वैभव में वह आत्मीयता नसीब न हुई, जो श्रद्धा-मानव से संयुक्त छोटे घर में हुई- ‘आत्मीयता घुली उस घर में छोटा सा परिवार बना।’’ इस प्रकार ‘कामायनी’ का अंत प्रतीकात्मक रूप में यही दर्शाता है कि मानव-जीवन में उपभोक्ता, शारीरिक सुख-सुविधा की निरंतर वृद्धि करने वाली यांत्रिक सभ्यता का हस्तक्षेप कम से कम होना चाहिए, आबाध यांत्रिक विकास कोलाहल, संघर्ष, खूनी प्रतिस्पर्धा, विनाशक अस्त्र-शस्त्र आदि को जन्म देकर मनुष्य जाति क्या, पूरी संसृति को ही सर्वनाश की ओर अग्रसर करेगा। ०
