सूर्यनाथ सिंह 

उनका मानना था कि मनुष्य अपने स्वरूप और स्वभाव में मूल रूप से एक है। उसे जाति, वर्ग, वर्ण, रंग, भाषा, क्षेत्र आदि के आधार पर हम आपस में बांटते और लड़ते-झगड़ते रहते हैं। डीएनए (डी-आक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड) के माध्यम से लालजी सिंह ने मानव विकास का विस्मयकारी अध्ययन प्रस्तुत किया था। उन्होंने अंडमान-निकोबार के आदिवासियों के डीएनए की जांच करके बताया कि साठ हजार साल पहले अफ्रीका के रास्ते होते हुए ये प्रजातियां यहां तक पहुंचीं। आधुनिक मनुष्य की यह पहली प्रवासी प्रजाति है, जो वर्षों से इधर से उधर भटकते हुए यहां तक पहुंची थी। उन्होंने अध्ययन करके साबित किया कि किस तरह मनुष्य के वैवाहिक संबंधों, प्रवासन आदि के चलते जीन आपस में मिश्रित होते रहे और उनके स्वरूप में बदलाव आता रहा।  डीएनए फिंगर प्रिंट की तकनीक विकसित कर न सिर्फ उन्होंने मानव के विकास की जड़ें तलाशने में मदद की, बल्कि अनेक आपराधिक मामलों को सुलझाने में अदालतों को एक कारगर औजार उपलब्ध कराया। इसके जरिए विलुप्त वन्य जीवों के अध्ययन और संरक्षण-संवर्धन में मदद मिली, अनेक आनुवंशिक बीमारियों का पता लगाने में सहूलियत हुई।

लालजी सिंह को परास्नातक (एमएससी) करते हुए ही भारतीय सांपों की आनुवंशिकी में रुचि पैदा हो गई थी और उन्होंने सांपों की विभिन्न प्रजातियों का अध्ययन करना शुरू कर दिया था। इस दौरान उन्होंने पाया कि करैत यानी कोबरा में बहुत अधिक मात्रा में विशेष प्रकार का डीएनए पाया जाता है। उसका अध्ययन करने पर उन्होंने पाया कि इसके डीएनए का उपयोग फोरेंसिक जांच के लिए मनुष्य के डीएनए फिंगर प्रिंट में किया जा सकता है। फिर इसी दिशा में उन्होंने काम करना शुरू किया और डीएनए फिंगर प्रिंट की तकनीक विकसित की। इसके चलते अनेक चर्चित और उलझे हुए मामलों की असलियत तक पहुंचने में अदालतों को मदद मिली।  पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की आतंकवादी हमले में हत्या हुई, तो जांच एजंसियों के लिए यह पता लगाना मुश्किल था कि आखिर उनकी हत्या में किसका हाथ था, क्योंकि उनकी गाड़ी बुलेटप्रूफ थी और घर के भीतर सुरक्षा के कड़े इंतजाम थे। उनकी गाड़ी में बम लगाना आसान काम नहीं था। मगर गाड़ी में भयानक बम विस्फोट हुआ था, जिसमें बेअंत सिंह मारे गए थे। इस उलझन से निकलने में पहली बार लालजी सिंह की डीएनए फिंगर प्रिंट तकनीक ने मदद की। बम विस्फोट की जगह से मिले अवशेषों की जांच के बाद पता चला कि उसमें मानव बम का इस्तेमाल किया गया था। छानबीन हुई तो पता चला कि हत्या वाले दिन बेअंत सिंह का कार मिस्त्री, जो उनसे बहुत हिला-मिला था, चलते समय उनके साथ कार में आकर बैठ गया था। वह चूंकि बेअंत सिंह का विश्वासपात्र माना जाता था और उसका बिना किसी जांच के उनके घर के भीतर आना-जाना था, आतंकवादियों ने उसे मानव बम के रूप में इस्तेमाल किया था।

इसी तरह राजीव गांधी की हत्या में डीएनए जांच से ही ठीक-ठीक पता चल पाया कि उन्हें माला पहनाने मंच पर पहुंची महिला को मानव बम के रूप में इस्तेमाल किया गया था। ऐसे अनेक मामलों- चाहे वह नैना साहनी तंदूर कांड हो, स्वामी प्रेमानंद या फिर श्रद्धानंद हत्याकांड- को सुलझाने में डीएनए फिंगर प्रिंट तकनीक से मदद मिली। इस तरह डीएनए फिंगर प्रिंट को भारत में पहचान मिली और लालजी सिंह को डीएनए के जनक के रूप में जाना जाने लगा। उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के एक छोटे से गांव कलवारी में एक किसान परिवार में पैदा हुए लालजी सिंह की बारहवीं तक की पढ़ाई-लिखाई अपने गांव और उसके आसपास के स्कूलों में हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और वहीं से उन्होंने पीएचडी तक की शिक्षा प्राप्त की। शोध में उनकी गहरी रुचि थी। अनेक शोधवृत्तियों के तहत उन्होंने अलग-अलग जगहों पर शोध किए, मगर उनकी रुचि सदा मानव के विकास और वन्य जीवों के अध्ययन में रही। डीएनए के जरिए फोरेंसिक जांच की तकनीक विकसित करने के बाद उन्होंने न सिर्फ मानव विकास की हजारों साल पुरानी तहों तक पहुंचने में सफलता अर्जित की, बल्कि लुप्तप्राय वन्यजीवों के संरक्षण-संवर्धन में भी कारगर प्रयोग किए। हैदराबाद के सीसीएमबी संस्थान में निदेशक की जिम्मेदारी निभाते हुए उन्होंने महसूस किया कि लुप्तप्राय वन्यजीवों के संरक्षण-संवर्धन के लिए एक अलग से प्रयोगशाला स्थापित करने की जरूरत है। फिर उन्होंने 1998 में लेबोरेटरी फॉर कन्जर्वेशन आॅफ इन्डेजर्ड स्पीशिज की स्थापना की। अब वह प्रयोगशाला अत्याधुनिक तकनीक के साथ सराहनीय काम कर रही है। इसमें अब तक न सिर्फ हजारों वन्यजीवों की प्रजातियों की पहचान की जा चुकी है, बल्कि डीएनए के जरिए विलुप्त होती प्रजातियों के संवर्द्धन में भी सफलता मिली है। विलुप्त श्रेणी की कई वन्यजीव प्रजातियों के पुनरुत्पादन में भी मदद मिली है। पहली बार 2006 में डीएनए की मदद से चित्तीदार हिरण की प्रजाति को पुन: विकसित करने में इस प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने कामयाबी हासिल की। इसी तरह कृत्रिम तरीके से काले हिरण की प्रजाति को विकसित किया गया।

इसके अलावा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में डीएनए की मदद से आनुवंशिक रोगों की पहचान और उनके उपचार में काफी आसानी हो गई। इसके अलावा, इसके पहले तक वैज्ञानिक तथ्य यही था कि स्त्री लिंग और पुल्लिंग का निर्धारण एक्स और वाई क्रोमोसोम के आधार पर होता है। एक्स और वाई क्रोमोसोम के मेल से पुल्लिंग बनता है। मगर लालजी सिंह ने अपने प्रयोगों से यह साबित कर दिया कि एक्स क्रोमोजोम्स को परिवर्तित किया जा सकता है। बिना वाई क्रोमोजोम्स के भी पुल्लिंग बनाया जा सकता है। उन्होंने एक चुहिया पर प्रयोग करके यह दिखा भी दिया। भारत में 1998 से पहले चिकित्सा के क्षेत्र में आनुवंशिक रोगों की पहचान और उपचार की कोई व्यवस्था नहीं थी। मगर लालजी सिंह और उनके साथियों ने डीएनए तकनीक के जरिए इस क्षेत्र में इलाज की सुविधा उपलब्ध कराई। इससे लाखों लोगों को आनुवंशिक रोगों से मुक्ति का रास्ता मिल पाया। 2004 में लालजी सिंह ने जीनोम फाउंडेशन की स्थापना की, जिसका मकसद था दूर-दराज के गांवों में लोगों को मुफ्त में आनुवंशिक रोगों से मुक्ति दिलाना। इसके लिए उन्होंने वैज्ञानिकों और चिकित्सा पेशेवरों का एक स्वयंसेवक दस्ता तैयार किया।  लालजी सिंह ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति के अलावा कई संस्थाओं और संस्थानों की प्रशासनिक जिम्मेदारी संभाली। वे जहां भी रहे, वहां मनुष्य के मूल स्वरूप के अध्ययन और उसकी परेशानियों को दूर करने के मकसद से वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देते रहे। स्वभाव से वे इतने सरल और सहज थे कि किसी भी तरह का आडंबर उन्हें पसंद नहीं था। उनके दोस्त और निकट के लोग उन्हें भोले भंडारी कह कर संबोधित करते थे। इतनी उपलब्धियां हासिल करने के बावजूद उनका गंवई मन सदा गांवों और दूर-दराज के लोगों की समस्याओं को दूर करने पर टिका रहता था।  अजीब संयोग है कि जहां से उनकी पढ़ाई-लिखाई परवान चढ़ी, शोध को दिशा मिली, थोड़े समय उस संस्थान के प्रशासन की जिम्मेदारियां संभालने का भी उन्हें मौका मिला, उन्होंने अंतिम सांस भी उसी संस्थान में ली, जब हवाई यात्रा के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन्हें बीएचयू के सर सुंदरलाल अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। ल्ल