महेश आलोक
वह डूब गई थी
समुद्र और चंद्रमा वाले रिश्तों के हाहाकार में
मछलियों को न आने वाली नींद के जागरण में
डूब गई थी वह
मछलियों के रुदन वाले आंसुओं को उसने पढ़ा था
इसका पता समुद्र में घुले उसके आंसुओं के नमकीन स्वाद
से मिलता है
इतना तो समुद्र की उस डायरी में भी दर्ज है
जिसमें उसकी आत्महत्या की पहली खबर होने का प्रमाण है
समुद्र ने अपनी गोद में उठा कर
नर्म बालू पर लिटाया था उसे
यह हमारे समय की सबसे भयानक खबर है
कि प्रेम में एक स्त्री ने
आत्महत्या कर ली है।

रूपक

मैं हवा के रूपक बनाता हूं
उसके दरवाजे खोलता हूं
हवा की कमर में सूरज की खुशी वाले धागे बांधता हूं
गांठ ढीली रखता हूं
खुशी वाले आंसुओं को अपनी आंखों में भरता हूं
पेड़ की खुशबू अपने फेफड़ों में भरता हूं
और पत्तियों के हरेपन को फैला देता हूं कमरे में फैले समय को
उसके जख्मों को कुरेदकर जिंदा होने से
बचाने के लिए
और रात को जो मेरी त्वचा की तरह काली है
अपनी त्वचा पर इस तरह रखता हूं
कि जैसे अंधेरे का मकान बना रहा हूं
चीटियों के हमलों तक से सुरक्षित रखने की कोशिश
करता हूं उसे
स्मृतियों की आग की तीली बनाता हूं
और खुजाता हूं हवा के कानों को कि समय की दुर्गंध को
मजा लेते हुए बाहर कर सकूं
दुनिया के सारे बादलों को इकठ्ठा करता हूं
अपने कमरे में फैली हवा की सवारी करने के लिए
चंद्रमा जो तुम्हारे होठों पर बैठा लगभग अमर होने की
तैयारी कर रहा था
हवा के होठों को चूमता है
और मेरी सांसें बतियाना सीख लेती हैं
प्रकृति में फैली तमाम रंगों वाली पत्तियों की सांसों में बजती
शास्त्रीय रागों की धज्जियां उड़ाती
लोक धुनों से
मैं लोक धुनों से हवा के रूपक बनाता हूं
और पुरखों वाली कविता की आग से जलाता हूं
अपने घर की देहरी पर एक नया दीपक
और लिखता हूं पत्थरों को पानी का स्वाद
चखाने वाली कविता।