अब यों हो रहा है कि मैं अकेला पड़ता जा रहा हूं और मेरा जुर्म सिर्फ इतना है कि मैं सच कहने और सुनने की मामूली कोशिशें कर रहा हूं। एक वक्त था, लगभग पच्चीस-तीस साल पहले का, जब मेरे परिवार के लोग मुझसे तरह-तरह की झूठी कहानियां सुन कर खुश होते और खूब हंसते थे। जब भी मैं किसी रिश्तेदारी से लौट कर आता, तब वे मुझे घेर कर बैठ जाते और वहां क्या-क्या हुआ की फरमाइशें करने लगते। मैं भी पूरे मनोयोग से, नमक-मिर्च लगा कर, घटनाओं में झोल, पेंच और विस्तार देकर झूठे किस्से गढ़ा करता। वे खूब हंसते। वे जानते थे कि इस सब में बीस प्रतिशत ही सच है और बाकी फसाना, पर वे इसे पूरे उत्साह से सुनते। उनके उत्साह से मुझे इसमें और आनंद मिलता।

‘एक नंबर का झूठा है ये उल्लू का पट्ठा…।’ पिता यह कहते हुए दिखावटी गुस्सा करते हुए, उठ कर चले जाते। ‘जो काम की बात होगी वो सबसे आखिर में बताएगा।’ पर यह सब छूट गया; लगातार अकेला होता जा रहा हूं अब। ‘अब कुछ कहोगे भी या यों ही कहीं बंद रहोगे?’ उसकी झिड़की ने मुझे झिंझोड़ दिया। अब जब उसने तीसरी-चौथी बार दोहराया तो मैं समझ गया कि आज उसके मन में गांठ कस कर बंधी है। वह पीछे नहीं हटेगी।

मैंने मुस्कुरा कर उसकी तरफ देखा और कहा- ‘मुझे वाकई तुम्हारा शरीर सुंदर लगता है, हालांकि वह पर्याप्त भारी-भरकम है, लेकिन फिर भी वह मुझे अच्छा लगता है।’ अब मैं उसकी तरफ देख रहा था और पाया कि वह भी मुझे एकटक घूर रही है। ‘कुछ कहोगे अब।’ ओह तो मैंने कुछ कहा नहीं… शुक्र है कि यह सब मैंने अपने मन में कहा, वरना भारी-भरकम देह वाली बात सुन कर अब तक वह रुंआसी हो चुकी होती और उसके अवसाद की सूखी गर्म रेत सब तरफ भर जाती। यह मुझे अच्छा नहीं लगता। दुख ही होता मुझे।

‘यह जरूरी नहीं वीणा कि हर सवाल का जवाब तुम तलब करके ही रहो… क्या वाकई इतना जरूरी है ये?’ कुछ पल रुका मैं और फिर कहा- ‘मैंने आज तक तुमसे कुछ पूछा?’ ‘मैं तुम्हारी तरह नहीं… मैं खुद ही सब बता देती हूं, तुम पूछोगे क्या… चोर तो तुम्हारे मन में ही रहता है।’ वह सीधे-सीधे आरोप पर उतर आई। अब मुझसे यह गांठ खुल नहीं रही थी। ऐसा नहीं था कि मुझे इसे खोलना नहीं आता था, आता था, आता है और उसमें बहुत कुशल हूं मैं, इससे भी ज्यादा कसी हुई जाने कितनी गांठें, मैं अतीत में आराम से खोल चुका था। उसके बाद वीणा आराम से दुनिया-जहान के काम में खो जाती थी।

नहीं कह सकता ठीक-ठीक कि वह क्या था या कि क्यों था कि अब मैंने इन गुत्थियों को हंसते-खेलते सुलझाना छोड़ दिया। बस यहीं से दिक्कतें शुरू हुर्इं। तभी मन में बात उठी कि यह मेरी पत्नी ही नहीं, दारोगा की बेटी भी है और अगर इसके मन पर मेरे जवाब का कोई बुरा प्रभाव पड़ा तो यह कई दिन तक मेरा गुस्सा बच्चों पर निकालेगी। उसकी आदत है यह। उन मासूम बच्चों की शामत आ जाएगी और उनकी सारी गलतियां, सारे दोष, सारी कमियां, इस वक्त इसे दिखने लगेंगी और वह उन्हें आज ही सुधार कर दम लेगी।

मैं इस खयाल से सिहर गया और झूठ बोलने को उद्यत हुआ। पर अफसोस कि एक पांव उठाने के बाद दूसरा आगे नहीं बढ़ा। ‘चलो तुम्हें एक लतीफा सुनाता हूं।’ बात बदलने का मैंने उपक्रम किया। ‘एक पत्नी ने अपने पति की अपने प्रति उदासीनता देख कर धमकाते हुए कहा- देखोजी तुम्हारे लिए भले ही मैं घर की मुर्गी हूं, पर बाहर बहुतों के लिए बटर चिकन हूं मैं…।’ हालांकि लतीफा बहुत निचले स्तर का था, पर क्या करता लगभग सभी लतीफों का यही हाल है और लोगों की सुरुचि का भी। उनमें छिछलापन होता ही है।

‘मैं नहीं समझी, मेरे सवाल से इसका क्या रिश्ता?’ वीणा के चेहरे पर तनाव यथावत था। उसकी सीमा यह थी कि उसे हर बात सीधी सुनानी या समझानी पड़ती थी। वह स्प्राइट कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन की भाषा में मुझसे कहा भी करती- ‘सीधी बात, नो बकवास।’ और मेरी मुश्किल या हद यह कि मैं सीधे बोलने को ही सबसे बड़ी बकवास समझता था।
पर उसे इस लतीफे ने कोई सहारा नहीं दिया। अब…

मैंने सोचा कि मैं उससे पूछूं कि क्या मैं उसे सुंदर लगता हूं, क्या वह मुझे प्यार करती है। हालांकि इन सब सवालों के जवाब मैं पहले से जानता था कि वह झट से हां कहेगी और कहेगी, ‘तुम मुझे बहुत सुंदर लगते हो।’ और यह सब इतनी सहजता और बिना द्वंद्व और दुविधा के होगा कि मैं शर्मिंदा हो जाऊंगा। मुझे अपराधबोध होगा। क्या कुछ लोगों को द्वंद्व-दुविधा जरा भी नहीं व्यापता? अपने अतीत को याद कर मैं मुस्कुरा गया।

जबकि ऐसा नहीं है कि मैं इस बात से अनजान था कि वह दूसरे आदमियों की तरफ आकर्षित होती है। उसे दूसरे मर्दों की तरफ घूरते हुए मैंने कई बार पकड़ा है, पर वह कहेगी यही। शाहरुख खान की फिल्म देखते हुए वह उठती तक नहीं किसी काम से, पर वह कहेगी वही। शादियों में खूब सज-धज कर, उस तरफ से वह ज्यादा गुजरती, जहां ज्यादा पुरुष खड़े हों और उनकी आखों में अपने लिए कामना या तारीफ देख कर वह इतराने लगती। पर वह कहेगी वही जो उसकी जबान पर या फिर दिमाग में भी चढ़ा है।

आखिर बचने की कोई राह न देख मैं उसी पर बढ़ा- ‘क्या तुम मुझे प्यार करती हो, मैं सुंदर लगता हूं तुम्हें?’ वह एकदम शुरू हुई- ‘तुम्हें मैं बहुत-बहुत प्यार करती हूं, जान भी दे सकती हूं… तुम तुम्म मुझे शाहरुख खान की तरह सुंदर लगते हो।’ जवाब लगभग वही था, जो पिछले सोलह साल में उसने कई बार दोहराया था, पर इस बार उसमें ‘शाहरुख खान की तरह’ और जुड़ गया था, बस।

मुझे खुशी हुई। वह सच की तरफ कुछ और बढ़ी, पिछले सालों की तुलना में। अब उसका डर और उसकी चिंताएं काफी कुछ खत्म हो रही हैं। उसकी बढ़ती उम्र, बच्चों के बड़े होने, पक्की सरकारी नौकरी में होने ने उसकी दुश्चिंताएं और असुरक्षा को झाड़ना शुरू कर दिया है। वह थोड़ी और निर्भय और आत्मविश्वासी हो गई है। अभी छह महीने पहले ही उसने मुझसे पूछा था- ‘जब तुम आंख बंद करते हो तो तुम्हें किसका चेहरा दिखता है?’ ‘किसी का नहीं…।’ और उस वक्त तक इसमें कुछ झूठ भी नहीं था। हां, यही सवाल अगर उसने दो महीने पहले पूछ लिया होता तो मैं जरूर फंस जाता। बेशक, उसने हाल ही में कोई ऐसी फिल्म देखी होगी, जिसमें नायक या नायिका ने यही सवाल पूछा होगा।

पिछले लगभग दो महीनों से जिस उलझन से मैं गुजर रहा था, उसे मैं खुद भी नहीं समझ पा रहा था कि आखिर यह क्या है। मैं जूझता रहा और बहुत तरह से, लगभग निर्मम होकर, खुद को लगातार छीलता भी रहा और आखिर मैं उस जगह पहुंच गया, जहां से सुलझाव शुरू होता है। यकायक जैसे किसी ने सोते से जगा दिया कि यह कुछ और नहीं, बस अपनी ही मनोवांछित छवियों और आकांक्षाओं का प्रक्षेपण है। नहीं कहा जा सकता कि कहने को यह कोई नया अनुभव होगा। पुनरावृत्ति के भय से सिहर गया मैं। इस क्षण से निकलते ही बेहद ऊर्जा से भर गया। उस दिन मैं फिर से, केंचुल उतर गई जैसे, उछल पड़ा मैं हल्का होकर- ‘हनीमून इज ओवर।’

पर वाकई इन दो महीनों ने मुझे बहुत कुछ दिया, किसी रिफ्रेशर कोर्स की तरह। कितने जरूरी और तरोताजा करने वाले होते हैं ऐसे दो, तीन या छह महीने, जिंदगी में, खासकर चालीस को छूते अधेड़ के लिए। आभार जताने के लिए मैंने सबसे पहले उसे ही फोन मिलाया, जिसका नाम फोन पर फ्लैश होते ही मेरे चेहरे पर अपूर्व मुस्कान आ जाती थी और दिल धक से रह जाता, क्योंकि उसी की वजह से मुझमें सच कहने और सुनने की ताब पैदा हुई… नहीं जानता कि क्यों, पर शायद इस सबके पीछे वही है।

मेरे वही मस्तमौला दिन लौट आए थे, फिर से। आज फिर बहुत दूर तक सड़क पर पैदल चलता गया, पता नहीं कहां तक और कब तक चला मैं, मन में उस मित्र की आगे की यात्राओं के लिए मंगलकामनाओं से भरा, एक भारमुक्त और आभारी मन। ‘अब तुम बताओ।’ वीणा कुर्सी खींच कर सामने बैठ गई। ‘आज तुम्हें हुआ क्या है… चालीस को पार करते हम और ये सब बातें… हमें बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए अब तो बस।’ उसे बरगलाने की आखिरी कोशिश तब भी की मैंने। ‘ठीक है… अब जवाब दो।’ वह इंच भर पीछे नहीं हटी।

मन में सोचा कि क्या इसने मेरी आखों में उजास देख ली थी कोई, जिसमें इसे अंधकार दिख गया है। किस बात से असुरक्षित या आशंकित हुई है यह? ‘अब कुछ बकोगे मौनी बाबा।’ उसकी जबान गुस्ताख होने लगी। ‘सुनो, देखो तुम मुझे बहुत-बहुत सुंदर लगती हो और खासकर तब, जब तुम किसी शादी या पार्टी के लिए तैयार होती हो… और मैं तुम्हें बहुत-बहुत प्यार करता हूं… अपनी जान भी दे सकता हूं।’ मैं यही सब कह कर उसे टाल देना चाहता था, पर शायद उससे यह सब नहीं कहा था मैंने। यकीनन मेरे मुंह से कुछ और ही निकला होगा, क्योंकि वह पैर पटकती हुई चली गई और अब दूसरे कमरे से बच्चों पर उसके चीखने-चिल्लाने की आवाजें लगातार आ रही थीं।

‘किताबों में आग लगा दो, क्या करोगे यही सब मोबाइल, कंप्यूटर पर रहो चौबीसों घंटे… पढ़-लिख कर भी अपने बाप जैसे ही बनना, कोई बात साफ मत करना… हर चीज से भागते रहना।’ वीणा की झल्लाहट में बच्चों के मिमियाने की आवाजें आ रही हैं- ‘हम मोबाइल और कंप्यूटर पर पढ़ ही तो रहे हैं मम्मा।’ क्या वाकई और अकेला होता जाऊंगा मैं!

मुझे फ्रांस के दक्षिणी हिस्से में बसा मोंते पेलिये शहर याद आया और याद आई अपनी दोस्त सोफी की कही बात, जो उस वक्त सत्रह बरस की नवयुवती थी… अट्ठारह-उन्नीस बरस कब उड़ गए बीच से, कोई आवाज भी तो नहीं हुई कमबख्त- ‘मुझे यकीन है… पूरा यकीन, अपने निष्कंप हृदय में… कि सच कहना और सुनना अकेलापन नहीं लाता, वह अमरत्व लाता है… जिसमें बहुत से लोग, लाखों-करोड़ों लोग शामिल होते जाते हैं धीरे-धीरे… दीप्त हो जाती हैं उनकी आत्माएं, एक-दूसरे से जुड़ कर, धीरे धीरे।’ सोफी कह रही थी और मैं सुन रहा था। हम वे बातें कभी नहीं भूलते या कि नहीं भूल पाते, जो आत्मा से कही गई हों और आत्मा ने सुनी हो।

हम दोनों चलते हुए उस हिस्से तक आ गए थे, जहां से आगे सिर्फ हहराता समुद्र था… अथाह और अनंत… यह अंतरीप था, जहां जमीन का दामन छूटने को ही था और अपार नील का आरंभ… जहां आगे का सब कुछ अनिश्चित, अस्पष्ट और जोखिमों से भरा था। ‘और फिर इससे आगे?’ सोफी की आखों में समुद्र के विस्तार का विस्मय था। ‘क्या अंत…’ कुछ पल के मौन के बाद वह खुद बुदबुदाई- ‘शायद एक और जिंदगी का आमंत्रण… आमंत्रण… शायद जोखिमों से भरा और अनिश्चित भी, पर यकीनन आह्लाद और आत्मतोष से भरा-पूरा।’

सोफी की आवाज आ रही थी और मैंने पांव बढ़ा दिया… समुद्र ने जैसे बढ़ कर मेरा स्वागत किया और लहर के छपाके से मैं पूरा भीग गया… जमीन के उस आखिरी टुकड़े पर अब भी आधा उठा हुआ मेरा पिछला पांव, पंजे पर टिका था।