राकेश भारतीय

फ्लैटों की आधी जनता सर्विस लेन में उतरी हुई थी। लोग अपने-अपने सेलफोन पर आने वाले टैंकर के बारे में पता कर रहे थे कि वह कहां तक पहुंचा है। तभी कतार में लगी बाल्टियों के मालिकों ने एक मोटू को अपनी तरफ बढ़ते हुए देखा। पास आते ही मोटू चिल्लाया- ‘देख लिया, इंतजाम हमारे हाथ में असोसिएशन थी, तो कभी ऐसी परेशानी हुई आप लोगों को?’ गेलिस वाले पैंट की वजह से ‘विशिष्ट’ दिख रहे एक सज्जन बोले- ‘अरे! आपके हाथ में जब असोसिएशन थी, तो पानी लाने वाली नहर में तोड़फोड़ भी तो नहीं हुई थी।’‘आप तो कहेंगे ही सिन्हा जी! नए वाले प्रेसिडेंट के दोस्त जो हैं।’ मोटू ने गेलिसधारी को तिरछी नजर से देखते हुए कहा।

‘दोस्ती में नहीं कह रहा, सही बात यही है।’ गेलिसधारी के इतना कहते ही पास खड़ी कुछ महिलाएं तेज स्वर में बोलने लगीं। ‘सिन्हा जी सही कह रहे हैं। इन दुष्टों ने डेढ़ किलोमीटर तक नहर में तोड़फोड़ कर डाली।’‘भगवान इन्हें बूंद-बूंद के लिए तरसा दे, जाहिल-जपाट सब।’ ‘अरे! इनकी जात ही…’ कहते-कहते एक महिला ने पड़ोस वाली महिला की जाति याद कर वाक्य रोक दिया। ‘अब इन्हें कोसने से क्या फायदा। इस शहर का अपना पानी काफी होता तो अड़ोसी-पड़ोसी राज्यों से पानी की भीख ही क्यों मांगनी पड़ती…’

महिलाओं के वार्तालाप को कुछ विनोद, कुछ गंभीरता से सुनने में लगे पुरुषों में से एक ने अपने सेलफोन का स्क्रीन निहारा और चिल्ला पड़ा- ‘टैंकर मेन गेट पर आ गया!’ स्त्री-पुरुष और चंद उपस्थित बच्चे भी अपनी-अपनी बाल्टियों के पास खड़े होने के लिए लपके। और, तभी एक लंबा-सा व्यक्ति नमूदार हुआ और सबको संबोधित कर बोला- ‘जिन्होंने पैसे दिए हैं, पहले वही भरेंगे।’ लंबे व्यक्ति की घोषणा पर नए सिरे से वाद-विवाद शुरू हो गया। उपस्थित निवासियों में से अधिकतर ने असोसिएशन द्वारा भुगतान पर बुलाए गए प्राइवेट टैंकर के लिए पैसे दे रखे थे और उसकी रसीद लहराते हुए वे समवेत स्वर में बोले- ‘दे रखे हैं, दे रखे हैं…’

पर पैसे न देने वाले कुछ अल्पसंख्यक कतार में बीच-बीच में घुसे खड़े थे, घोषणा को अनसुना करते हुए। पैसे न देने वालों में वह मोटू यानी रेजिडेंट असोसिएशन का पूर्व-प्रमुख धरणीधर शुक्ल भी था। वह अपनी जगह से खड़े-खड़े लंबे व्यक्ति यानी वर्तमान प्रमुख नवीन महाजन को संबोधित कर बोल पड़ा- ‘ज्यादा चौधरी न बनो, महाजन! पैसे आगे-पीछे सबके आ जाएंगे।’ उसकी बात पर कोई ध्यान दिए बिना महाजन ने फिर घोषणा की- ‘जिन्होंने पैसे दिए हैं, पहले वही भरेंगे।’
‘तू क्या डिक्टेटर है!’ ‘तमीज से बात करें।’ शुक्ल के वाक्य पर महाजन का चेहरा लाल हो गया।

‘सही बात कह रहे हैं, महाजन जी। हमने पैसे दे रखे हैं।’ एक महिला ने इतना कहा ही था कि शुक्ल ने काया मुश्किल से तिरछी कर, उनकी ओर जैसे बरजते हुए, कहा- ‘बहन जी!’ ‘ठीक बात है… पैसे देने वाले ही पहले भरेंगे…’ कुछ महिलाएं उस महिला के समर्थन में मुखर हो उठीं। नवतेज कॉलोनी में दो महीने पूर्व ही आया था। अपनी बाल्टी के पास से ही उसने पांच सौ रुपए का नोट जेब से निकाल कर लहराया और बोला- ‘अभी दे रहा हूं। सुबह से रात तक दफ्तर झेलता हूं, तभी दे नहीं पाया था। आज दफ्तर से जल्दी…’ ‘ठीक है, ठीक है!’ उसके पास खड़े हुए पैसे दे चुकने वाले निवासियों ने उसके इरादे पर मुहर लगा दी।

विवाद का नया आयाम आकार ले, इसके पहले ही टैंकर की भड्भड् भटर भटर, भड्भड् भटर भटर सुनाई दी और सारे लोग अटेंशन की मुद्रा में आ गए। टैंकर के पीछे-पीछे साइकिल पर बनवारी चला आ रहा था। जो लोग उससे काम करवाते थे, उसे देखते ही राहत की सांस भर लिए। बनवारी ने इस कॉलोनी में कई काम पकड़ रखे थे, एक काम उसका कुछ निवासियों की पानी की टंकी में सुबह पानी आने पर मोटर से पानी चढ़ाना था। सुबह देर से उठने वाले, मियां-बीवी कामकाजी, अधिक उम्र की वजह से सुबह पानी भरने की मशक्कत करने में असमर्थ- ऐसे ही लोगों का यह काम वह करता था।

टैंकर के साथ पहुंच कर बनवारी ने साइकिल दीवाल से टिकाई और चिल्लाया- ‘बोल पानी माई की जय!’ कतार में खड़े कुछ लोग हंस पड़े। एक बच्चा भी हंसा, जो अपनी मां के साथ एक छोटी-सी बाल्टी हाथ में थामे हुए कतार से अलग किनारे वाली दीवाल के पास मौजूद था। उसकी मां उसके कंधे थपथपा कर बोली- ‘बड़ा लोगन के बीच मती घुसियो। सारे आपन बाल्टी भर लें तबहीं तू भरियो।’ बच्चे ने मां की ओर मुंडी घुमा कर जैसे बात मान लेने की सहमति जताई। टैंकरवाले ने अपने गमछे को सिर पर पगड़ी की तरह लपेट रखा था और बड़े रोब से खड़ा हुआ निवासियों को एक-एक कर बाल्टी भरते हुए निहार रहा था। एक बाल्टी भरे जाने और दूसरी लगाने में थोड़ा भी अंतराल होता, तो पानी सड़क पर गिर जाता। महाजन इसे देख कर कुढ़े और बोले- ‘एक पर तुरंत एक लगाइए न। बेमतलब पानी बरबाद कर रहे हैं।’

‘संभाल के…’ ‘धीरज रखिए, धीरज रखिए… टैंकर की कैपेसिटी बहुत है…’ ‘पीछेवालों का भी खयाल रखो…’ तरह-तरह की बोली मारते हुए स्त्री-पुरुष बाल्टियां भरते जा रहे थे, बाल्टी भर चुके लोगों के चेहरे पर तुरंत विजयी मुस्कान पसर जाती थी। ‘जाहे बिधि राखे राम, ताहे बिधि रहिए… थोड़ा-थोड़ा पानी आराम-आराम से भरिए…’ टैंकरवाले ने तरंग में आकर तान भरी तो लोग हंसने लगे। पर तान भरते-भरते टैंकरवाले ने शुक्ल की दिशा में हल्के से मुंडी घुमा कर, बाकी लोगों के लिए अबूझ, कोई इशारा भी कर दिया।
‘बहुत हो गया आप लोगों का पानी भरना। अब हमें भी भर लेने दीजिए।’ कहते हुए शुक्ल अपनी छोटी-सी टोली के साथ आगे बढ़े।

‘ये क्या! पैसे दे चुके लोग पहले भरेंगे।’ कतार में खड़ी एक थुलथुल महिला वहीं से चिल्ला पड़ी। ‘और बाकी लोग प्यासे मरेंगे क्या! बड़ी आई पैसे देनेवाली…’ शुक्ल की टोली में खड़ी एक महिला ने हाथ नचाते हुए इतना कहा और अपनी बाल्टी को भांजते हुए ‘भरेंगे या मरेंगे’ के अंदाज में आगे बढ़ी। लफड़ा यहीं से शुरू हुआ। ‘झगड़ा नहीं, झगड़ा नहीं… जब असोसिएशन के लोग घर-घर जाकर कह रहे थे कि पैसा पूल कर ही प्राइवेट टैंकर आएगा, तो आप…’ कतार में घुस चुका शुक्ल महाजन की बात काट कर चिल्लाया- ‘पैसे आगे-पीछे सब दे देंगे, यहां कोई भिखमंगे नहीं खड़े हैं।’

‘हां हां, दे देंगे।’ कहते हुए छोटी टोली की एक महिला कतार में शुक्ल के पीछे ही घुसने को लपकी। ‘खबरदार! ये चालाकी नहीं चलेगी।’ उस महिला के घुसने को हाथ बढ़ा कर बरजती हुई एक कतारकाबिज महिला इतना बोली नहीं कि कतार की कुछ और महिलाएं एक साथ बोल पड़ीं- ‘नहीं चलेगी…’ शुक्ल बड़ी कुशलता से दाएं-बाएं डोलते हुए मोर्चा फतह ही करने वाला था कि नवतेज अपनी जगह से तेजी से आगे बढ़ा और बोला- ‘देखिए मिस्टर! मेरे हाथ में मेरे शेयर का रुपया है और मैं इसे यहीं देकर भरूंगा। नियम सबके…’

‘तू कौन!’ शुक्ल उसे हिकारत से देखते हुए हिनहिनाया। ‘देखिए, मैं भी इस कॉलोनी का इतना ही निवासी हूं, जितने आप। और, बात तमीज से करें तो अच्छा, वर्ना…’ वाक्य अधूरा ही छोड़ कर नवतेज ने सांस भी न भरी थी कि शुक्ल फुफकारा- ‘वर्ना क्या उखाड़ लेगा मेरा, ये ले…’ और अपनी बाल्टी को मुगदर की तरह भांजते हुए शुक्ल ने टैंकर के पाइप की बगल में स्थापित कर दिया। छोटी-सी धक्का-मुक्की और बतबड़ जो शुरू हुई वह एक अधभरी बाल्टी के बनवारी के पैर पर उलट जाने पर रुकी। ‘अंकल-आंटी लोग… भैया लोग, मैं तो आप लोगों की मदद कर रहा हूं।’ दर्द से बिलबिला कर बनवारी चिल्लाया।

‘हमारी मदद कर रहा है! अरे तू तो उनकी मदद कर रहा है, जो हर महीने तुझे पैसे देकर टंकी में पानी चढ़वाते हैं।’ दर्द भूल कर बनवारी यह बोलने वाली महिला की ओर मुड़ – ‘वाह! आंटी जी। हर तरह के लोगों की पंद्रह बाल्टी भरवा कर उठा चुका होऊंगा।’
दूर से अपने पति की मुश्किल देख कर बनवारी की पत्नी वहां पहुंच चुकी थी। उसने अपने पति के पक्ष के दो शब्द बोले नहीं कि चार महिलाएं उस पर झौंझिया पड़ीं। ‘तू जा उधर…’ पत्नी को वापस भेजते हुए बनवारी ने अनुमान लगाया कि टैंकर में अब ज्यादा पानी नहीं बचा होगा। वैसे दस-बारह लोग ही अब तक पानीविहीन बाल्टी थामे खड़े दिख रहे थे। नवतेज भी उनमें से एक था।

शायद बनवारी-बहू ने छोटी-सी बाल्टी थामे खड़े अपने लड़के को निर्देश दिया होगा, वह अपने पिता की ओर बढ़ने लगा। संयोग से ही; बनवारी का लड़का जब अपनी छोटी-सी बाल्टी टैंकर के पाइप की ओर बढ़ाया, नवतेज का पानीभराऊ नंबर पैसे पुजा कर लगा ही लगा था। टैंकर में पानी खत्म हो जाने की संभावना पर पहले से ही आशंकाग्रस्त नवतेज एकदम से बौखला गया- ‘अरे, हट! झुग्गियों वाले भी घुसने लगे यहां…’ दोष उसका नहीं था, लड़के का हुलिया ही वैसा हो रखा था, पर बनवारी का खून खौल गया- ‘तो आप बाबूजी महल में रहने वाले हैं क्या, हमारे गांव में यहां के फ्लैट बराबर जगह में कुत्ते भी नहीं रहते। क्या समझ लिया है आपने हमें!’

नवतेज को तुरंत अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने अपनी तिहाई भरी बाल्टी से ही उस बच्चे की बाल्टी भर देना चाहा, पर बच्चा उससे डर कर दूर छिटक चुका था। ‘अरे पूछ तो लेते हमसे…’‘बनवारी का बच्चा है, यहीं रहता है और ऐसे झटक दिया…’
कुछ सहानुभूतिपूर्ण आवाजें आसपास गूंजीं, तो नवतेज ग्लानि से भर गया। टैंकर के पाइप से निकलने वाली धार अब बिल्कुल ही पतली हो गई। अचानक टैंकरवाला समापन के अंदाज में टैंकर पर सवार होकर बोला- ‘अब यहां की दिहाड़ी खत्म!’
‘अरे, रुको! अब भी थोड़ा पानी आ रहा है।’ कहते हुए तीन-चार बचे व्यक्ति पाइप की ओर लपके।

बूंद-बूंद ही सही; जब तक पानी टपक रहा था, बाल्टी कुछ-कुछ तो भर जाने की उम्मीद लिए हुए वे तत्परता से लगे रहे। टैंकर का पानी अंतत: खत्म हो गया, पर इस बीच टैंकर चालक एक बीड़ी सुलगा चुका था। शुक्ल अपनी भरी बाल्टी की रखवाली करता हुआ किसी मूजी को तलाश करती हुई नजरें घुमा रहा था, पर इस बेगारी के लिए कोई सुपात्र दिख नहीं रहा था। नवतेज को तिहाई भरी बाल्टी के अलावा पानी मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी, पर वह पछतावे की हल्की छाया से आप्लावित चेहरे से उस बच्चे की ओर अब भी देखे जा रहा था।

बनवारी थका-थका सा फ्लैट की दीवाल से पीठ टिका कर उकड़ू बैठ गया था। उसके बीवी-बच्चा साथ खड़े थे। अचानक नवतेज ने बाल्टी हाथ में लेकर बनवारी की ओर बढ़ना शुरू किया।अभी वह आधी दूरी ही तय कर पाया था कि वहीं बैठे-बैठे बनवारी ने उसकी दिशा में हाथ जोड़ दिए और कहा- ‘बख्शो, बाबूजी!’ग्लानि और अवसाद की मिली-जुली लहर नवतेज के चेहरे पर आई-गई। दो क्षण बीच में ही खड़ा रह कर, वह लौटने लगा।अंतिम सुट्टा मार कर टैंकर चालक ने बीड़ी फेंकी और एक बार फिर ‘भड्भड्… भटर भटर’ करता हुआ टैंकर चलने को हुआ।

शुक्ल ने भी पानी ढोने के लिए एक मूजी पकड़ लिया और काया थुलथुलाते हुए अपने फ्लैट की ओर बढ़ा।टैंकर द्वारा खाली की हुई जगह निकलते ही वहां फैला हुआ कुछ पानी निहारते हुए बनवारी बोला- ‘धक्कामुक्की कर पानी बरबाद करते हैं सब और बड़का फ्लैटवाला बूझते हैं अपने को।’जब सर्विस लेन में न टैंकर, न टैंकर से पानी लेने वाला कोई और प्राणी बचा तो बनवारी झटके से उठा और अपनी पत्नी से बोला- ‘मेन गेट के चौकीदार भैया के पास एक बाल्टी पानी पहले ही रखवा आया था।’पत्नी ने पूरी बत्तीसी निकाल दी और मां-बाप को दांत चियारते देख कर बच्चा भी हंस दिया।