मैं भी बड़ा आदमी बन सकता था। महापुरुष टाइप। बल्कि, बन ही गया होता। वो तो बचपन के मेरे दो-तीन समझदार मित्रों ने उचित समय पर सही सलाह न दी होती और महापुरुषाई में निहित खतरों से सही मौके पर मुझे आगाह न कर दिया होता तो मैं भी खामखा बड़ा आदमी बन कर आज परेशान हो रहा होता। मेरे लंगोटिया मित्र लखनलालजी मुझे छुटपन से ही महापुरुषाई के खिलाफ सचेत करते रहे। वे समझाते कि अध्यापकों और पिताजी के झांसे में आकर तुम कभी कहीं बड़े आदमी न बन जाना। वे बताते कि बड़ा आदमी बनने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि एक बार बड़ा आदमी बन जाओ तो फिर आप कभी छोटा आदमी नहीं बन सकते। ऐसे में आप फंस जाते हो। हां भाई, बड़े आदमी का मन भी तो कभी-कभी छोटी-मोटी बदमाशी का करता होगा कि नहीं? पर वो चाह कर भी नहीं कर सकता। आदमी महापुरुष बन कर मजबूर टाइप हो जाता है। कमीनापन करने को तरस जाता है। मजबूरी में हर समय बड़ा बना घूमता है। महापुरुषाई ‘वन वे’ जैसी रोड है। आदमी लौट नहीं सकता। वह छोटा काम, ओछी हरकतें, घटियापन आदि, मात्र इसीलिए नहीं कर पाता कि जमाना क्या कहेगा? इस ‘वन वे’ मार्ग पर लौटो तो सजग दुनिया चालान काटने बैठी रहती है। बेचारा बड़ा आदमी फिर और बड़ा होने के मार्ग पर बढ़ते चले जाने को अभिशप्त हो जाता है।…

लखनलालजी का मानना था कि आदमी शुरुआत में ही संभल जाए तो ठीक, वर्ना एक बार बड़ा बन जाने पर वह मजबूरी में, फिर बड़ा ही होता चला जाता है। और इस बात पर वह न तो माथा पीट सकता है, न ही छाती कूट कर रो सकता है, क्योंकि महापुरुष माथा नहीं पीटते। फंस जाता है आदमी। लखनलालजी खुद अपना उदाहरण प्रस्तुत करते। कहते कि हमें छोटे आदमी होने का फायदा यह है कि छोटा होने में, कम से यह संभावना (जिसे वे आशंका कहते थे) रहेगी कि हम कभी बड़ा आदमी भी बन सकते हैं- पर, मान लो कि आज हम पहले ही कोई बड़ा आदमी होते तो अभी छोटा होने को तरस रहे होते कि नहीं? वे समझाते कि कुछ छोटी-मोटी फूलमालाओं और नारों को छोड़ दो तो बड़ा आदमी बनने में ऐसा कुछ खास धरा नहीं है। छोटा आदमी होने में जो मजे हैं, वे सब आपके हाथ से अलग निकल जाते हैं। इसे यों समझो कि महापुरुष चाह कर भी गांजा नहीं पी सकता। चिलम लिए महापुरुष की कोई कल्पना करने को भी राजी नहीं।

मेरे दूसरे मित्र भुवानीदीन भी लंगोटिया यार अवश्य थे, पर लंगोटिया शब्द मुहावरे के तौर पर ही उन पर लागू होता था। लंगोट पर कभी विश्वास नहीं रहा उनका। खासे नंगे आदमी थे। लोग इसी बात के लिए उन्हें जानते-पहचानते भी थे। यही उनकी मशहूरी थी। लोग कहते कि उससे न भिड़ना, बड़ा नंगा है। इन्हीं भुवानीदीन के विचार महापुरुषों को लेकर कुछ ज्यादा ही स्पष्ट थे। वे कहते कि यह अवश्य है कि तुम यदि कभी कोई बड़ा आदमी बन गए तो हो सकता है कि तुम्हारा पाठ स्कूलों की किताब में लग जाए, और बेचारे बच्चों को शायद तुम्हारी जीवनी भी रटनी पड़े, पर मात्र इत्ती-सी बात के लिए बड़ा आदमी बनने में तुम्हें अपना जीवन खराब नहीं करना चाहिए। देश के छात्र वैसे ही परेशान रहते हैं बेचारे। उन्हें एक और जीवनी रटवाने के लिए यदि आदमी महापुरुष बनने की कोशिश करे तो यह उसकी नितांत नंगई है। यह महापुरुष को शोभा नहीं देती। यह बताते हुए वे कहते कि बड़ा आदमी बन जाने में यह बात गड़बड़ है कि फिर आप ठीक से नंगा नहीं हो सकते।

भुवानीदीन मुझे खास तौर पर जुलॉजी के प्राध्यापक शुक्लाजी से हमेशा सतर्क रहने की सलाह देते। वे चेताते कि यह शुक्ला का बच्चा, हरदम, हर छात्रों को महापुरुष बनाने की ताक में रहता है। बच्चों को ऊंची-ऊंची बातें करके फांसता है।… ‘खुद हमें फांसने की कोशिश भी करी थी इसने। इसके जवाब में हम एक दिन शुक्लाजी के सामने से सिगरेट पीते निकल गए, और अगले दिन उनके पास ताश की गड्डी लेकर इस महत्त्वपूर्ण अकादमिक समस्या का निदान पूछ आए कि सर, तीन पत्ती के खेल में पत्ते किस तरह लगाए जाएं कि अपने पास हरदम इक्का, बादशाह, बेगम की टिरेल आ जाए?’… भुवानीदीन का मानना था कि एक देश में, एक सदी में औसतन आठ-दस महापुरुष ही हो सकते हैं, और अपने यहां पहले ही जरूरत से ज्यादा हो चुके हैं। देश अभी पहले वाले महापुरुषों के दिखाए गए मार्ग पर ही पूरा नहीं चल पा रहा। महापुरुष लोग इतने मार्ग बना गए हैं कि बड़ा कन्फ्यूजन मच जाता है कि कौन-सा पकड़ा जाए? फिर महापुरुषों के बारे में हर जगह यह भी आग्रह है कि हमें उनके अधूरे कामों को पूरा करना है। महापुरुषों की यही बात हमें ठीक नहीं लगती। वे काम चालू करके आधे में छोड़ जाते हैं। दीवारें खड़ी कर दीं और कह गए कि छत तुम डाल लेना, और ठाठ से उस घर में रहना। खंडहर खड़े हैं देश भर में। सो, महापुरुष पहले ही इत्ता काम देश के लिए छोड़ गए हैं। ऐसे में और नया महापुरुष बनाना कहां का इंसाफ कहाया, सो जरा बताना? भुवानीदीन हर उस छात्र की ठुकाई के पक्षधर थे, जो महापुरुष बनने की छिप कर भी कहीं प्रेक्टिस कर रहा हो।

यों ऐसा भी नहीं था कि मेरे सभी टीचर शुक्लाजी जैसे रहे हों। हमारे एक शिक्षक गुप्ताजी तो खुद भी बड़ा आदमी बनने-बनाने के सख्त खिलाफ थे। वे पढ़ाई के भी सख्त विरोधी थे। पढ़ाने से नफरत-सी थी उन्हें। पोथियों को जलाने लायक मानते थे। वे कक्षा में हमें ताश का जादू, सीटी बजाना, गुलेल चलाना, फिल्मी गाने गाना आदि सिखाते थे। वे किस विषय के अध्यापक थे, यह हमें अंत तक पता नहीं चल पाया था। ठीक-ठीक तो उनको भी पता नहीं था। बस, हल्का-सा संदेह जैसा था कि शायद ‘मॉरल साइंस’ पढ़ाने की उम्मीद उनसे की जाती थी। वे मानते थे कि उम्मीद करने वाले को उम्मीद से रोकना संभव नहीं, पर यह कतई जरूरी नहीं कि हम सबकी उम्मीदें पूरी करते फिरें। उसी दी हुई शिक्षा में कभी यह डर नहीं रहा कि उससे कोई महापुरुष पैदा हो जाएगा। जितनी गलत बातें उन्होंने हमें उत्साहपूर्वक सिखार्इं, अगर हम सारी ही सीख जाते तो स्कूल से सीधे जेल में कदम रखते। स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में कई ऐसी बातें, जो उस समय हमारे लिए ‘आउट आॅफ कोर्स’ जैसी थीं, उन्होंने हमें रुचिपूर्वक सिखार्इं। कभी-कभी तो कुछ बच्चों को यह ज्ञान उन्होंने सोदाहरण भी देने की कोशिश की। बाद में, ऐसे ही एक सेशन में रंगे हाथों पकड़े जाने के कारण वे स्कूल से निकाल दिए गए थे। पर इसी बीच वे हमें इतना सिखा गए थे कि स्कूल से कोई महापुरुष निकलने का खतरा हमेशा को टल गया था।

तो मित्रों, मैं बड़ा आदमी बनते-बनते अगर रह गया हूं तो इसके पीछे मेरे ये मित्र और सहृदय अध्यापक थे। सोचिए कि ये न रहे होते तो मैं किस फजीहत में पड़ गया होता।