मीना
पति शराबी था। मानता नहीं था। शादी के एक साल के भीतर ही मैं मां बन गई। मुझे और बच्चा फिलहाल नहीं चाहिए था। इसलिए मैंने गर्भ-निरोधक गोली लेनी शुरू कर दी। उस दौरान मुझे गरमी बहुत लगती थी। उल्टी और चक्कर भी आते थे और जब कभी माहवारी होती तो बहुत खून निकलता था। गोलियां खाने के पांच साल बाद मुझे डॉक्टर ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अगर आप ये गोलियां लेंगी तो कैंसर भी हो सकता है। कॉपर-टी से भी फायदा नहीं हुआ। इसलिए मैंने आॅपरेशन करा लिया।’ यह पीड़ा है विमला की। विमला की शादी हुए अब 40 साल हो गए हैं, लेकिन वे स्वस्थ नहीं रहती हैं। उनका कहना है कि अब तक कमर के नीचे वाले हिस्से में उन्हें दर्द रहता है। पैरों में दर्द और सूजन भी आ जाती है। यह सिर्फ विमला की कहानी नही हैं, बल्कि मेरे आसपास ऐसी बहुत-सी महिलाएं रहती हैं, जिन्हें कॉपर-टी, नसबंदी और माला-डी जैसे गर्भ-निरोधकों की वजह से समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकडेÞ बताते हैं कि 2013-2014 में नसबंदी के कारण 162, 2014-2015 में 140 और 2015-2016 में 113 मौतें हुई हैं। सरकार महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए इस तरह के गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन ये आंकड़े कुछ और ही सच बयान कर रहे हैं। रानी कहती हैं, ‘मर्द का क्या है! परेशानी तो हम औरतों को झेलनी पड़ती है। एक दिन मैंने गोली खा ली थी, अपना एक महीने का बच्चा गिराने के लिए। बहुत सारा खून बह गया। लेकिन पति पर कोई असर नहीं हुआ। उसे लगता है कि यह सब औरतों की समस्या है, जो साधारण है और हर औरत को यह झेलना ही पड़ता है।’
यह एक बड़ी विडंबना है कि औरतों की समस्याओं को समाज समस्या ही नहीं मानता है। रानी खीझते हुए कहती हैं, ‘बच्चे भी हम पैदा करें और उन्हें रोकने के झंझट भी हम ही पालें।’ औरतों की समस्याओं को जब उनके पति ही नहीं समझते हैं, तब वे अकेली पड़ जाती हैं और कई बार अवसाद में भी चली जाती हैं। तारावती रामगोपाल मेहरा फाउंडेशन मेडिकल सेंटर में स्त्री रोग विभाग की एक डॉक्टर का मानना है कि औरत को समझदार होना ही चाहिए। अगर मर्द गर्भ-निरोधक का इस्तेमाल नहीं कर रहा है तो औरत को करना चाहिए। वे कहती हैं कि उनके अस्पताल में रोजाना 10-12 महिलाएं गर्भ-निरोधक लेने आती हैं, लेकिन उनमें से कई यह कह कर चली जाती हैं कि वे अपने पति या सास से पूछ कर बताएंगी। ऐसे पुरुष कम ही होते हैं जो गर्भ-निरोधक दवाएं लेने अस्पतालों में आते हैं। इस मामले में औरतें तो समझदार होती ही हैं, लेकिन पुरुष को भी समझदार बनना चाहिए, क्योंकि इस पुरुष-प्रधान समाज में औरतों की बातें नहीं सुनी जातीं, तो ऐसे में एक औरत कैसे गर्भनिरोधक के लिए अपने पति को प्रोत्साहित कर सकती है! सरकार की ओर से कंडोम, कॉपर-टी, माला-डी, नसबंदी और इंजेक्शन जैसे गर्भनिरोधकों प्रचार किए जाते हैं। इनमें से कंडोम और नसबंदी केवल पुरुषों के इस्तेमाल के लिए हैं, जबकि महिलाएं कई उपाय कर सकती हैं। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में विवाहित महिलाओं में गर्भ-निरोधक प्रचलित होने की दर (सीपीआर) 54.8 फीसद है, जिसमें आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल 48.2 फीसद है। यह भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों की तुलना में कम है, जिनका सीपीआर क्रमश: 65.6, 61.2 और 68.4 फीसद है। भारत में विधि मिश्रण (विकल्प की टोकरी) दर्शाती है कि परिवार नियोजन की प्राथमिक विधि महिला नसबंदी है और 90 फीसद से अधिक महिलाएं नसबंदी करवाती हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है। इसके मुख्य कारणों में से एक है- सार्वजनिक क्षेत्र में गर्भनिरोधक तरीकों की एक विस्तृत शृंखला की सीमित उपलब्धता। हालांकि इंजेक्शन निजी क्षेत्र में उपलब्ध हैं। ये आंकड़े महिलाओं द्वारा गर्भ-निरोधकों के इस्तेमाल को दर्शाते हैं। पुरुष कितना इस्तेमाल करते हैं, यह सोचने की जरूरत है।
विकासशील देशों में परिवार नियोजन को लेकर 1960 में गर्भ-निरोधकों की शुरुआत हुई। लेकिन ये भी जनसंख्या रोकने के नाम पर महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। अगर महिलाएं गर्भ-निरोधकों का लंबे समय तक इस्तेमाल करती हैं तो उन्हें नुकसान झेलने पड़ सकते हैं। महिलाओं के लिए काम करने वाले संगठनों ने गर्भ-निरोधकों के कई नुकसान बताए हैं। मसलन, दिमाग पर असर, सिरदर्द, चक्कर, वजन बढ़ना, घबराहट, तनाव, थकान, उच्च रक्तचाप, कामेच्छा में कमी, पाचन समस्याएं, योनि स्राव और पीड़ा, त्वचा की समस्याएं और भूख में कमी, कार्डियो-नाड़ी की सक्रियता में बदलाव। आजकल इंजेक्शन के रूप में एक और नया गर्भ-निरोधक आया है। लेकिन इसे लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच आशंकाएं हैं। इंजेक्शन के सबसे गंभीर दुष्प्रभावों में से एक हड्डी घनत्व की हानि है। डेपो-प्रोवेरा पर एक चेतावनी के रूप में इसका उल्लेख किया गया है। ये नुकसान उन्हें कई कारणों से हो सकते हैं। लेकिन डॉक्टरों की राय इससे अलग है। हमदर्द इंस्टीट्यूट आॅफ मेडिकल साइंस एंड रिसर्च में स्त्री रोग विभाग की प्रमुख डॉ रेवा त्रिपाठी बताती हैं कि गर्भ-निरोधकों के इस्तेमाल से महिलाओं को कोई नुकसान नहीं होता है। औरतें खुद गर्भ-निरोधक नहीं मांगती हैं। हमें खुद उन्हें देना पड़ता है। वहीं उसी विभाग के सलाहकार दानिश का कहना है कि ‘वे अपने मरीजों को कंडोम का इस्तेमाल करने से मना करते हैं, क्योंकि यह फट या फिसल सकता है।’ लेकिन अगर कोई विकल्प नहीं बताया जाता है तो इससे यही पता चलता है कि अभी भी कई डॉक्टर पितृसत्तात्मक सोच में जकड़े हुए हैं। आज सरकारों के लिए गर्भनिरोधक चुनौती बन गए हैं। मैरी स्टोप्स इंटरनेशनल संस्था का मानना है कि दुनिया में बहुत सी महिलाओं को गर्भनिरोधक आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं और उनका सुरक्षित गर्भपात नहीं होता है। संस्था के आंकड़े बताते हैं कि जब महिलाओं को गर्भनिरोधक उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, तब उन्हें गर्भपात कराना पड़ता है। दुनिया में हर साल 44000 महिलाएं असुरक्षित गर्भपात के कारण मर जाती हैं। वहीं एक गैर सरकारी संगठन के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर दो घंटे में एक औरत असुरक्षित गर्भपात के कारण मर जाती है। इन दवाओं का उपलब्ध न हो पाना पहले परिवारों का आकार, फिर समाज में गरीबी और अशिक्षा को बढ़ाता है। यही कारण है कि महिलाएं अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पातीं हैं, क्योंकि वो अपना ज्यादा समय घर और बच्चों की देखभाल में लगा देती हैं। दूसरी बड़ी चुनौती सरकार के सामने जागरूकता को लेकर है। पुरुष अभी भी गर्भनिरोधकों को लेकर सजग नहीं हैं।
गर्भनिरोधक और अर्थव्यवस्था
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक कम आय और मध्य आय वाले देशों में गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल कम होता है और यही वजह है कि अनियमित परिवार नियोजन बढ़ रहा है। इन देशों का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य बढ़ जाता है। सरकार की तरफ से अनुदान भी जारी हो जाते हैं, लेकिन महिला स्वास्थ्य को ध्यान में नहीं रखा जाता है। उनका ध्यान अर्थव्यवस्था के विकास पर अधिक होता है। संगठन का मानना है यह एक अधूरा एजेंडा है। बहुत से देशों में परिवार नियोजन को लेकर कई नीतियां हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वे सीमित पहुंच में हैं। यह दर्शाता है कि ऐसी योजनाओं में सरकार की रुचि नहीं होती। इसके जरिए सरकारों का पितृसत्तात्मक रवैया दिखाई देता है, क्योंकि उन्हें अर्थव्यवस्था के विकास से मतलब है, महिलाओं के स्वास्थ्य से नहीं।
हिंसा और गर्भनिरोधक
महिलाओं को कई कारणों से हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वह बेटा ही पैदा करेंगी और जब ऐसा नहीं होता है तब उन्हें मारा-पीटा जाता है। बेटे की चाह में उन्हें कई तरह के गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करना पड़ता है और कभी-कभी गर्भपात भी कराना पड़ता है। अस्पतालों में डॉक्टर भी महिलाओं को गर्भ-निरोधकों का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करते हैं। जब गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी बन जाती है, तब यह भी हिंसा की वजह भी बनती है। परिवारों और सरकारों को समझना होगा कि गर्भ-निरोधकों का इस्तेमाल महिलाओं को फायदे के मुकाबले नुकसान भी काफी पहुंचाता है। दूसरी बड़ी समस्या यह है कि पुरुषों के बजाय महिलाओं को ही गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने के लिए कहा जाता है। परिवार नियोजन सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी नहीं है, इसलिए पुरुषों को भी गर्भनिरोधक के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
(नोट : महिलाओं के नाम बदल दिए गए हैं।)
