चौहान साहब उस दिन मेरे घर आए, तब घर के सामने की सड़क खोदी जा रही थी। मेरे घर के सामने ही क्यों, शहर की हर सड़क ही आजकल खुदती रहती है। ‘ये तुम्हारी सड़क क्यों खोद रहे हैं?’ बैठते-बैठते चौहान साहब ने मुझसे पूछ लिया। ‘यार, हम तो आजकल पूछते ही नहीं। सरकार विकास पर उतारू है, तो यह सब तो चलेगा ही।’ मैंने कहा।

‘यह विकास का गड्ढा कुछ ज्यादा ही गहरा नहीं हुआ जा रहा है क्या।… कहीं नागरिक इसमें ऐसा न गिरे कि निकल ही न पाए।’ चौहान साहब की इस विकास को लेकर जो चिंताएं हैं, वे सरकार से एकदम अलग हैं।

‘यार, जब सरकार इत्ता कर रही है तो नागरिक का भी कर्तव्य बनता है कि गड्ढों से बच कर चले।’ मैंने सरकार के प्रवक्ता जैसा तर्क दिया। ‘खैर वो तो है। वैसे भी अपने देश के नागरिकशास्त्र की पोथी में केवल कर्तव्यों का चैप्टर ही शामिल है। नागरिक के अधिकारों वाले पन्ने कोरे ही छूट गए हैं और चिपके भी रह गए हैं। दरअस्ल, नागरिकशास्त्र की किताब सरकार ने उस गवर्नमेंट प्रेस में छपवाई है, जहां से संविधान की पोथी नहीं छपी।… सच कहते हो यार।’ चौहान साहब चिंतन में पड़ गए।

थोड़ी देर तक वे सोचते रहे। फिर अचानक उठे और तेजी से बाहर की तरफ चले गए। जब तक मैं संभल कर उठा और जिज्ञासावश पीछे-पीछे गया, चौहान साहब लौट भी आए। साथ में बाहर से एक कर्मचारीनुमा शख्स को पकड़ लाए थे।
‘यार, हमें लगा कि हम लोग फालतू की अटकलों में अपना समय नष्ट कर रहे हैं।… इन भाई साहब से ही सीधा क्यों न पूछ लिया जाए। सरकार के आदमी हैं। यही सड़क खोद रहे हैं।…’ चौहान साहब ने साथ आए सज्जन का परिचय दिया और उसी सांस में उनसे पूछ लिया कि बताइए महोदय, आप यह सड़क क्यों खोद रहे हैं?

‘हमें नहीं पता साब।’ वह बोला।

‘यार तुम्हें गैंती फावड़ा मिल गया तो तुम क्या कहीं भी खोदने बैठ जाओगे?’ चौहान साहब वापस कुर्सी पर बैठ गए थे और वह शख्स अपराधी टाइप खड़ा था।

‘नहीं साब, सरकार का आर्डर है। हम तो पूरे शहर में खोदते रहते हैं।’ वह बोला।

‘यार तुम बैठ कर आराम से सारी बात बताओ। आदमी खड़ा होकर ठीक से सोच नहीं पाता। गुरुत्वाकर्षण का नाम सुने हो न? भारी विचारों को नीचे खींच लेता है। सो, बैठ कर बताओ।… यार, तुम सरकार से पूछते नहीं कि सरकार, क्यों खुदवा रहे हो?’ चौहान साहब ने जिद करके उसे बिठा लिया। बात लंबी खींचने का इरादा है चौहान साहब का, मैं समझ गया। समय काटने के लिए फालतू की बहस करने में वे निष्णात हैं।

वह शख्स चुपचाप बैठा रहा।

‘एक बार अपनी सरकार से पूछो तो!… गड्ढे खोद तो रहे हो, पर वहां डालने वाले क्या हो? पाइप तो इस सड़क में तीन-चार बार पड़ चुके और केबल भी इतनी तरह की पड़ चुकी है कि किसका करेंट किसमें जा रहा है, कोई माई का लाल पता नहीं कर सकता। अब काहे का गड्ढा? यार, एक बार सरकार से जरूर पूछ लो।’ चौहान साहब ने पुचकार कर कहा।

‘साब, किससे पूछें?… हमने तो सरकार को कभी देखा ही नहीं।’ वह शख्स असमंजस में बोला।

‘यार देखा तो कभी किसी ने नहीं है। आजकल वह दिखती नहीं। फिर भी।…’ चौहान साहब बोले।

‘सरजी, हम तो खोद कर छोड़ देंगे। सरकार को जो डालना है, डालती रहेगी।’ उसने बीच का सर्वोदयी टाइप रास्ता निकाल कर कहा।

‘यह बात भी एक तरह से सही है।’ मैंने उसका समर्थन किया।

‘क्या पता साब, हो सकता है कि सरकार ने अभी कुछ तय ही न किया हो कि यहां क्या डालना है।’ वह भी चौहान साहब के चिंतन की लाइन पकड़ कर बोला। यों भी उसे सरकारी काम का लंबा अनुभव है। जिंदगी खोदते-पूरते ही निकाली है।
चौहान साहब को सरकारी कामकाज की नब्ज पर उसकी यह पकड़ बड़ी भाई। वे मेरी तरफ मुखातिब होकर ‘वाह वाह’ की मुद्रा पकड़ कर बोले कि यार ग्यानू, कितनी सही बात कर दी भाई साहब ने। सच कहा। हो सकता है, किसी दूरंदेशी अफसर ने तय किया हो कि पहले से खोद कर रखो, क्योंकि सरकार तो हर सड़क को खुदवाती ही है। अब वह सरकार के आर्डर की प्रतीक्षा करेगा। सरकार के मन में, जब, जो भी पाइप, केबल, तार आदि डालने का हौल कभी उठेगा तो गड्ढा तैयार मिलेगा। सरकार की वाहवाही चाहिए और सीआर बढ़िया हो, इसके लिए अफसर में ऐसी ही ऊलजलूल दृष्टि की आवश्यकता होती है।

चौहान साहब पलटे और उस शख्स से मुखातिब हुए- ‘…या यह भी तो हो सकता है कि अभी केवल गड्ढे खोदने का बजट सेंक्शन होकर आया हो? इसमें क्या डालना है, इसकी फाइल, हो सकता है कहीं न कहीं चल रही हो, और वह फाइल न गुमी तो हो सकता है कि कभी इन गड्ढों में कुछ डाल भी दिया जाए।’

‘पर मान लो कि उस फाइल पर बजट न मिला, या वह गुम हो गई तो?’ भारतीय प्रशासन की यह चर्चा अब रोचक हुई जा रही थी, सो मैंने भी पूछना उचित समझा।

‘… तो एक फाइल इन गड्ढों को पूरने का बजट लेने के लिए चलाई जाएगी। तुम्हें पता ही है ग्यानू कि सरकार बेहद सक्रिय है और विकास के नाम पर क्या नहीं कर सकती।’ चौहान साहब ने उत्तर दिया।

वह चुपचाप बैठा रहा। उठने को हुआ कि चौहान साहब ने उससे एकदम नए कोण से एक प्रश्न पूछ लिया- ‘भाई साहब, ऐसा तो नहीं कि सरकार कुछ डालने की जगह, यहां से कुछ निकालने के चक्कर में इसे खुदवा रही हो? क्यों?… कहीं, खुदाई में कुछ निकला तो नहीं है- सच सच बताना तुम, कुछ छिपा तो नहीं रहे न?’
‘इसमें मिट्टी के सिवाय और क्या मिल जाएगा साहब?…’ वह बोला।

‘यार, आदमी ठीक जगह, ठीक से खोदे तो उसे कुछ भी मिल सकता है। खजाना मिल जाए, तेल निकल आए, पानी तो आ ही सकता है। और अपना देश तो इत्ता जूना पुराना है कि जहां खोदो, नीचे से कोई नई सभ्यता भी निकल सकती है। सब खोदने वाले पर निर्भर है। नीचे बड़ी सभ्यताएं गड़ी हैं। गैंती मारने से पहले तनिक देख लिया करो। किसी पुरानी सभ्यता को चोट पहुंची तो सरकार बुरा मान सकती है।’ चौहान साहब चिंतन के गड्ढे में उतरते ही जा रहे थे।

मैंने भी चौहान साहब का समर्थन किया, ‘ठीक कहते हैं चौहान साहब। सरकार वर्तमान सभ्यता को दो कौड़ी की मानती है। सरकार का मानना है कि हमारी असली सभ्यताएं तो दफन हो गई थीं। आजकल वह इतिहास की पुस्तकों में भी खुदाई करके देख रही है। हो सकता है, अब सड़क खोद कर भी देखती हो।’

वह आदमी अचानक उठ गया। जाते-जाते बोल गया, ‘आप ठेकेदार से पूछ लो साब। उसे पता होगा।’

‘यार, अपने ठेकेदार को बता देना कि संभल कर रहे। हमारे दादाजी बताते थे कि जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वह जाकर खुद उसमें गिरता है।’ चौहान साहब ने जाते-जाते उससे कहा।

‘खुदवा तो सरकार ही रही है साब।’ वह जाते-जाते बोला।

‘पर सरकार तो पहले ही गड्ढे में उतरी हुई है।… यार, तू जा।… खोद।… बस इत्ता गहरा मत खोद लीजियो कि बाहर ही न आ सके। सरकार प्राय: ऐसा ही करती है।’

वह नमस्ते करके निकल लिया।

‘कैसी रही?’ चौहान साबह ने मुझे आंख मारी।
हम दोनों हंसने लगे। हंसते ही रहे। रोने की बात पर हंसना कोई हमसे सीखे।