विनय जायसवाल
भारतीय सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा सिर पर है। इसमें लाखों प्रतियोगी शामिल होते हैं। इनमें ग्रामीण, गरीब और हिंदी समेत दूसरे भारतीय भाषाभाषी प्रतियोगी परीक्षा में शामिल होने से पहले ही निराश हैं, क्योंकि गुजरे वर्षों में जिस तरह के प्रश्नपत्र आए और जिस तरह का मानक तैयार किया गया, वह नब्बे प्रतिशत हिंदी और अन्य भाषाभाषियों के हितों के खिलाफ रहा है। इसका सही-सही आकलन हिंदी और भारतीय भाषाभाषी उम्मीदवारों की लगातार गिरती सफलता से लगाया जा सकता है। लंबे संघर्ष के बाद हिंदी माध्यम से सिविल सेवा परीक्षा में बैठने का मौका मिला तो इस माध्यम के अभ्यर्थियों ने सफलता के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए, लेकिन देश की अंग्रेजीपरस्त नौकरशाही को यह नागवार गुजरा और साल दर साल नए तरीके से ग्रामीण, गरीब और हिंदी समेत दूसरे भाषाभाषी प्रतियोगियों के लिए मुश्किलें खड़ी की जाने लगीं। कभी अंग्रेजी अनिवार्य किया गया तो कभी सी-सैट के बल पर प्रारंभिक परीक्षा से ही बाहर का रास्ता दिखाने की नीति बना दी गई। कठिन हिंदी अनुवाद की असहज स्थिति भी एक बहुत बड़ी मुश्किल हिंदी माध्यम के प्रतियोगियों के सामने खड़ी कर देती है।
अब हालात ये हो गए हैं कि हिंदी माध्यम से परीक्षा देने वाले सफल प्रतियोगियों की संख्या उंगलियों पर भी गिनने लायक नहीं बची है। अंग्रेजी और हिंदी के अलावा किसी और भाषा में यह परीक्षा दी भी नहीं जा सकती है। इसके साथ ही मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी का एक अनिवार्य प्रश्नपत्र उत्तीर्ण करना भी जरूरी है। उल्लेखनीय है कि देश के महानगरों और बड़े शहरों में रहने वाले उच्च और उच्चमध्य वर्ग के बच्चे, जो शुरू से अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते हैं, वही बाजी मारते हैं। हालांकि, भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की आबादी देश में आठ या नौ प्रतिशत से अधिक नहीं है। इस तरह से देश की करीब नब्बे फीसद आबादी हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं बोलती है। यही वह आबादी है जो ग्रामीण भी है और गरीब भी। यही कारण है कि जब गरीब और ग्रामीणों के बच्चे शिक्षा और रोजगार में सफलता हासिल करते हैं तो उसे अनोखी उपलब्धि के रूप में लिया जाता है।
यह सब केवल इसलिए है क्योंकि शिक्षा और रोजगार समेत न्यायप्रणाली को भारत के उच्च वर्ग के अनुरूप बना दिया गया है, जिसका प्रतिनिधित्व देश के सुविधा-संपन्न लोग करते हैं, जो अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा हासिल करते हैं। शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षाओं, रोजगार और न्यायपालिका में आजादी के बाद से ही हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की उपेक्षा की गई है। जो थोड़ी-बहुत सहूलियत मिली है, उसे उपेक्षा और संकीर्ण नजर से देखा जाता है। इसके साथ ही हिंदी या भारतीय भाषाओं के माध्यम से सफलता हासिल कर लेने के बाद भी सफल प्रतियोगी तो तरह-तरह से हतोत्साहित किया जाता है। यही कारण है कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा चंद संपन्न वर्ग के बच्चों का मुकाबला करने से पहले ही पराजित हो जा रहा है। सही शब्दों में कहें तो भाषाई भेदभाव नीति के चलते उन्हें जानबूझकर पीछे रखा जा रहा है।
हिंदी माध्यम से विज्ञान, समाज विज्ञान, चिकित्सा, अभियांत्रिकी और प्रबंधन में शिक्षा हासिल करने, कौशल और प्रतिभा होने के बावजूद भारतीय युवाओं को अंग्रेजी में अलग से दक्षता साबित करनी पड़ती है।
पूरी साजिश के तहत उन्हें अच्छे अवसरों से वंचित किया जा रहा है। सारा ज्ञान और कौशल होने के बावजूद हिंदी और भारतीय भाषाभाषी प्रतियोगी अपने माध्यम के कारण देश के योग्य पदों पर पहुंचने से रह जाते हैं। इससे हिंदी माध्यम के प्रतियोगी कुंठा और निराशा के शिकार होते जा रहे हैं। वन सेवा और रक्षा सेवा में उच्च पदों पर पहुंचने का रास्ता तो पूरी तरह अंग्रेजी के माध्यम से ही जाता है। इसी तरह सार्वजनिक उपक्रमों, बैंकों और बहुत से सीधी भर्ती वाली नौकरियों में भी अंग्रेजी जरूरी है। कई बार तो न्यूनतम प्राप्तांक का आधार इतना अधिक कर दिया जाता है कि बहुत सारे प्रतिभाशाली प्रतियोगी परीक्षा से ही बाहर हो जाते हैं। इससे भी गांव से आने वाली और गरीब प्रतिभाएं हतोत्साहित हो रही हैं।
इसलिए यह जरूरी है कि संघ लोक सेवा आयोग, राज्य लोक सेवा आयोगों, केंद्रीय भर्ती बोर्डों, सेना, न्यायालय आदि में अंग्रेजी का वर्चस्व खत्म किया जाए। ज्ञान के माध्यम की जगह ज्ञान के स्तर को वरीयता दी जानी चाहिए। गांव और देहात से आने वाले युवकों के पास बेहतर कौशल, समझ और प्रतिभा होने के बावजूद केवल भाषा के नाम पर उनसे दोयम दर्जे का बर्ताव बंद होना चाहिए।
अंग्रेजी के नाम पर भारत के लोगों से भेदभाव नागरिकता का भी अपमान है। जिस देश में अंग्रेजी भाषी और अंग्रेजी में काम करने वाले महज आठ-नौ प्रतिशत हों, वहां बाकी लोगों के साथ दोहरा बर्ताव बेहद चिंताजनक है। १