अख्तरी : सोज और साज का अफसाना
पुराने दौर के संगीत और उसकी रवायत पर पर्दा उठाने की तरह है यह किताब। एक ऐसा दस्तावेज, जो अख्तरीबाई फैजाबादी की जिंदगी और संगीत पर आधारित है, जिसमें अवध की ढेरों रोशन महफिलें और उनकी शामें धड़कती हैं, जिसमें एक अदाकारा का अतीत, इतिहास के पन्नों से निकल कर उस समय की नुमाइंदगी करता है, जिसने ठुमरी और दादरा के अलावा गजल की सबसे नामी शख्सियत अख्तरीबाई फैजाबादी या बेगम अख्तर का मोहक किरदार गढ़ा है। खड़ी और बैठकी महफिलों, राजदरबारों और नवाबों के यहां सजाई गई संगीत की शामों, किराना और पटियाला घराने के बीच कहीं नाजुकी के साथ मौजूद गायकी की बेहतरीन अदाकारी, अल्फाज (शब्द) और अदब (साहित्य) से सजा रहने वाला दीवानखाना, साथ ही किस्से, कहकहों, गुफ्तगू, मजलिसों, महफिलों, उर्स, दरगाह, मेलों, रेकॉर्डिंग्स और संगीत सभाओं में दी जाने वाली प्रस्तुतियों के बीच से उभरती एक जहीन और ईमानदार तबीयत वाली फनकारा की दास्तानगोई का दिलचस्प पाठ है- ‘अख्तरी : सोज और साज का अफसाना’। इस अफसाने में दर्द है, तड़प और बेचैनी है। साथ ही, संगीत को बुलंदियों पर पहुंचा देने वाली एक निराली कोशिश, जिसमें वह पुरकशिश आवाज और उसकी पुकार, तान, जैसे कई दफा, दर्द की कहानी को परे धरते हुए इबादत की आवाज बन जाया करती है।
अख्तरी : सोज और साज का अफसाना : संपादक- यतींद्र मिश्र; वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए दरियागंज, नई दिल्ली; 395 रुपए।
स्वाधीनता का महास्वप्न
बलराम मूलत: कथाकार हैं, पर पेशे से पत्रकार होने के नाते वे देश-दुनिया से जुड़े मसलों पर सीधा-सपाट और बेबाक ढंग से टिप्पणियां भी करते रहते हैं। वे अच्छे संस्मरणकार हैं। इस तरह उनके लेखन का रसायन कथा, विश्लेषण और स्मृतियों से मिल कर बनता है। प्रस्तुत किताब में उनके विविध विषयों पर लिखे लेख, संस्मरण और विश्लेषण हैं। इनमें अखंड भारत के पहले ध्वज की कहानी भी है, तो मुगल साम्राज्य का विश्लेषण भी। स्वाधीनता के महास्वप्न का रेखाचित्र है, तो विभाजन की पीड़ा और उसके गुनहगारों की पड़ताल भी। फिर आजादी के बाद की स्थितियों पर नजर डालते हुए वे आपातकाल के दिनों को भी याद करते हैं। इन टिप्पणियों के साथ-साथ वे साहित्य की दुनिया में भी स्वाभाविक रूप से विचरते हैं और प्रेमचंद ग्रंथावली के छपने की कहानी पर बात करते हैं, तो फ्रैंकफर्ट विश्व पुस्तक मेले की भी सैर कर आते हैं और फिर तुलनात्मक विश्लेषण पेश करते हैं। साहित्य में लोक और इतिहास पर गंभीर चर्चा छेड़ते तो भारतीय मीडिया की स्वतंत्रता का भी आकलन करते हैं। फिर दार्शनिक और सांस्कृतिक सवाल उठाते हुए कहते हैं कि मृत्यु का कोई अनुष्ठान नहीं होना चाहिए।
स्वाधीनता का महास्वप्न : बलराम; अमन प्रकाश्न, 104 ए/80, रामबाग, कानपुर; 395 रुपए।
मधुकर शाह, बुंदेलखंड का नायक
‘मधुकर शाह : बुंदेलखंड का नायक’ कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है, बल्कि इतिहास में अल्प सूचनाओं और तथ्यों को आधार बना कर बुंदेला-विद्रोह के अमर नायक मधुकर शाह बुंदेला की जीवन-यात्रा को गढ़ा गया है। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम से पहले, 1842 में बुंदेलखंड की त्रस्त जनता को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए मधुकर शाह ने बहादुर बुंदेला-ठाकुरों को संगठित करके बुंदेलखंड की अजादी का बिगुल फूंक दिया था। मधुकर शाह बुंदेला की ललकार से अंग्रेजों के पसीने छूट गए थे। बाद में बड़ी चालाकी से मधुकर शाह को उनके अपने ही लोगों से पकड़वा कर अंग्रेजों ने सागर की जनता के सामने उन्हें फांसी दे दी थी। अंग्रेजों ने इसे बुंदेला-विद्रोह का नाम दिया। रंगमंच के एक सिद्ध जानकार की कलम से निकली यह रचना ऐतिहासिक प्रकरण को इतनी संपूर्णता से एक नाटक में बदलती है कि इसे पढ़ना भी इसे देखने जैसा ही अनुभव होता है। बुंदेलखंड की खांटी जुबान, अंग्रेज अफसरों की हिंदी और लोकगीतों के साथ बुनी गई यह नाट्य-कृति एक समग्र नाट्य-अनुभव रचती है।
मधुकर शाह, बुंदेलखंड का नायक : गोविंद नामदेव; राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 295 रुपए।