यह दुनिया पोप जॉन की इस जोशीली घोषणा के करीब पहुंचती नहीं दिखती कि ‘ युद्ध अब और नहीं, युद्ध अब कभी नहीं’। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद, दुनिया ने तरह-तरह के युद्ध देखे हैं- प्रत्यक्ष युद्ध, शीतयुद्ध, गृहयुद्ध, अलगाववादी युद्ध, जिहादी युद्ध, आक्रमण, विस्तारवादी युद्ध, तथा और भी कई तरह के हिंसक टकराव। कोई दिन नहीं गुजरा होगा जब सशस्त्र टकरावों में जानें न गई हों।
भारत और चीन के बीच एक युद्ध हुआ था, 1962 में। युद्ध खत्म होने के बाद कायम हुई शांति बहुत नाजुक थी। चीन ने 1988 में राजीव गांधी को आमंत्रित किया। वह ऐतिहासिक यात्रा थी। देंग शियाओ पेंग के साथ देर तक उनके हाथ मिलाने के मशहूर वाकये को याद करें! दोनों देश आपसी बातचीत शुरू करने और सरहद संबंधी मतभेदों को बातचीत से सुलझाने को राजी हुए। इसके थोड़े ही वक्त बाद, विशेष प्रतिनधि नियुक्त किए गए थे।
दोनों देशों को हुआ लाभ
जब-तब शिकवा-शिकायत की घटनाएं हुर्इं। पर बातचीत जारी रही। कई विवाद सुलझाए गए। इधर के वर्षों में, डेपसांग (2013) और डेमचोक व चूमर (2014) में सैनिक टकराव को टालने के प्रसंग उल्लेखनीय हैं। आपसी ‘समझ’ दिखाई दी। वर्ष 2012 में एक समझौता हुआ कि तीनों देशों के मिलन-स्थल के मसले को चीन और भारत तीसरे पक्ष यानी भूटान के साथ राय-मशविरा करके सुलझाएंगे, जिसकी सीमा में यह स्थल पड़ता था (और क्योंकि भूटान के साथ भारत का विशेष रिश्ता था)।
सैनिक टकराव टालने का लाभ दोनों देशों को हुआ, दोनों को आर्थिक विकास पर ध्यान देने का मौका मिला। मध्य आय वाले देश के रूप में चीन ने अच्छी प्रगति की है; उसने इस बीच 138 करोड़ की अपनी आबादी के लगभग पांच फीसद हिस्से को गरीबी से बाहर निकाला है। यह दुनिया की फैक्टरी बन गया है और इसने अपने निर्यात के सहारे 3000 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा का भंडार बना लिया है। यह एटमी ताकत से लैस है; इसके पास दुनिया की सबसे विशाल स्थायी सेना है; इसके पास दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में गहरे में जाकर खतरा मोल लेने की क्षमता है, और यह माना जाता है कि चीन बहुत दूर की जगहों पर भी हमला कर सकने में सक्षम है।
भारत ने भी उल्लेखनीय प्रगति की है, इस हो-हल्ले के बावजूद कि 2014 से पहले कुछ नहीं हुआ था (जिसमें वाजपेयी सरकार का 1998 से 2004 का कार्यकाल भी शामिल है)। पर भारत, चीन से कुछ पीछे है। वर्ष 1991 से भारत के 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आए हैं। इसका विदेशी मुद्रा भंडार 380 अरब डॉलर है। यह परमाणु शक्ति संपन्न है। इसके पास दुनिया की दूसरी सबसे विशाल स्थायी सेना है, और किसी भी बाहरी शक्ति के हमले से यह अपनी रक्षा कर सकने में सक्षम है।
इन कारणों से, भारत और चीन को युद्ध में उलझने से बचना ही चाहिए। हर बार, हां हर बार, कूटनीतिक तरीकों से काम लिया जाए और तलवारें म्यान में ही रहें। जुबानी जंग, जंग में न बदले।
क्या अब स्थिति भिन्न है?
डोलाम पठार (जो कि डोकलाम क्षेत्र में आता है) भारत-भूटान-चीन के त्रिकोण के निकट 16 जून 2017 को जो कुछ हुआ, वह एक ऐसा ‘वाकया’ रहे जिसे बातचीत से सुलझाया जा सके। पर मुझे डर है कि संकेत इसके विपरीत हैं। ‘वाकया’ अनिष्टकारी रूप लेता लग रहा है। इससे कोई नहीं इनकार कर सकता कि 2017 और 2013 व 2014 की घटनाओं में काफी फर्क है।
भारत और चीन के सरकारी बयानों पर निगाह डालें। भारत की तरफ से बयान देने वालों में थे सेनाध्यक्ष (8 जून, 2017), विदेश मंत्रालय (30 जून), विदेश सचिव (11 जुलाई), प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री (12 जुलाई) और विदेशमंत्री (20 जुलाई)। चीन की तरफ से जवाब देने वालों में केवल विदेश मंत्रालय के ‘प्रवक्तागण’ थे या सेना- जब तक कि वहां के विदेशमंत्री वांग यी का बैंकाक से 25 जुलाई 2017 को दिया बयान नहीं आया। इसके अलावा, चीन के असली इरादे ‘ग्लोबल टाइम्स’ और ‘शिनहुआ’ में छपे चुभते हुए लेखों में सामने आए। अगर नरमी से भी कहें, तो कहना होगा कि चीन की तरफ से आए जवाब औद्धत्यपूर्ण थे।
बदला क्या है? अगर भारत के प्रति चीन के व्यवहार में कोई बदलाव आया है, तो किन परिस्थितियों के चलते ऐसा हुआ? भारत सरकार ने अपना पक्ष इन शब्दों में रखा: ‘‘भारत हाल की चीनी कार्रवाइयों को लेकर चिंतित है और उसने चीन की सरकार को अपनी चिंता से अवगत करा दिया है कि ऐसा निर्माण-कार्य यथास्थिति में एक अहम बदलाव है, साथ ही भारत के सुरक्षा-हितों की गंभीर अनदेखी भी।’’ अलबत्ता यह पर्याप्त नहीं है। सरकार का यह कर्तव्य है कि देश की जनता को बताए कि स्थिति में क्या बदलाव आया है और क्यों आया है। ऐसा वक्तव्य प्रधानमंत्री को ही देना चाहिए।
क्या मामला बयानों तक सीमित रहेगा?
चीन की तरफ से आने वाले बयान दिनोंदिन और तीखे होते जा रहे हैं। भारत के हर प्रस्ताव को बड़ी बेरुखी से ठुकरा दिया गया। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की चीन यात्रा को पहले कम करके आंका गया, फिर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच की बातचीत की बाबत एक बेपरवाही भरा हवाला दिया गया कि ‘चीन ने द्विपक्षीय मसलों और बड़ी समस्याओं पर’ अपना पक्ष रखा। कूटनीति के सामान्य कायदों के विपरीत, ऐसा लगता है कि चीन ने अपने लिए सुलह-सफाई की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है। उसने एक असंभव शर्त रख दी है और इसी के साथ सुलह-समाधान के रास्ते बंद कर दिए हैं। ‘शिनहुआ’ ने 15 जुलाई 2017 को लिखा, ‘‘चीन ने साफ कर दिया है कि इस घटना पर समझौता-वार्ता की कोई गुंजाइश नहीं है, और भारत को सीमा लांघने वाले अपने सैनिकों को हर हाल में डोकलाम से वापस बुलाना होगा।’’
भारत में विवेकी पर्यवेक्षक स्वाभाविक ही चिंतित हैं, पर चीन में ऐसी चिंता किसी ने जाहिर नहीं की है। अमेरिका पहला देश था जिसने संयम बरतने और बातचीत करने की सलाह दी। दूसरे बहुत-से देश- जिन्हें चीन और भारत अपना-अपना पक्ष बता चुके हैं- अजीब खामोशी अख्तियार किए हुए हैं।
आशंका के बादल छाए हुए हैं। मेरा साफ मानना है कि भारत और चीन के बीच युद्ध हरगिज नहीं होना चाहिए। मुझे भरोसा है कि भारत सरकार का भी यही नजरिया होगा, पर मुझे शक है कि चीन की सरकार भी ऐसा ही सोचती होगी। वक्त ही बताएगा कि कब और कौन-से गलत निर्णय हुए थे।