दिविक रमेश

लोक-साहित्य, लोक-संस्कृति, लोकप्रियता, लोकमंगल आदि एक-दूसरे से गुंथे हुए शब्द हैं। लोक-साहित्य हो या लोक-संस्कृति का कोई अन्य आयाम, लोक-स्वीकृति की बुनियाद पर स्थिर होकर ही उसने प्रतिष्ठा पाई है। जनश्रुति या जनस्वीकृति के बिना लोक-साहित्य या लोक-संस्कृति का अस्तित्व संभव नहीं रहा। इसलिए लोक और लोक-संस्कृति की एक परंपरा भी होती है। किसी भी समाज का लोक-साहित्य उसकी लोक-संस्कृति का ही वाहक होता है। लोक-साहित्य अपनी लोक-संस्कृति से एक दृष्टि भी लेता है। लोक का अर्थ है समाज या संसार। संस्कृति शब्द बहुत पुराना है, चाहे आधुनिक संदर्भों में उसके अर्थ और आशय बदले भी हैं। संस्कृति को मूलत: एक मूल्य-दृष्टि कहा जा सकता है, लेकिन जिस तरह उसे परिभाषित किया गया है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव के समग्र कर्म और उसके तन-मन पर असर डालने वाले सब प्रभाव संस्कृति के अधीन हैं।

संस्कृति सामाज की मूल्य-दृष्टि है। दूसरे शब्दों में लोक के विश्वास, रीति-रिवाज, अंधविश्वास, प्रथा, अनुष्ठान, कला, साहित्य आदि सब का समावेश लोक-साहित्य में होता है। मानव जन्म, पृथ्वी का निर्माण, देवताओं के व्यवहार, सामाजिक और राजनीतिक गुण-दोष, भूत-प्रेत, प्रकृति आदि सब कुछ इस साहित्य के विषय होते हैं। यह वाचिक या श्रुति परंपरा की देन है। इसके रचयिता अज्ञात रहे हैं। लोक-साहित्य से आशय लोकवार्ता, लोककथा, लोकगीत, लोकनाट्य, लोकनृत्य, लोकसंगीत, पहेलियां, ढकोसले (बढ़-चढ़ कर बोलना), मुहावरे, लोकोक्ति आदि तमाम विधाओं में उपलब्ध साहित्य से हैं। यहां तक कि लोक के बालसाहित्य की भी गणना इसमें करनी होगी। मूलत: यह साहित्य आधुनिक सभ्यता से दूर प्रकृति की गोद में पले, प्राय: आदिम रीति-रिवाजों, त्योहारों आदि का निर्वाह करने वाले लोक-समाज की कल्पना और भाव-प्रधान लेकिन संवेदनायुक्त सामूहिक मौखिक रचना है, जो एक कंठ से दूसरे कंठ तक जाती है। इसमें आनंद भी होता है और शिक्षा भी। नीति-शिक्षा इसका महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रहा है।

सुख भी होता है और दुख भी। इसकी सीमा देशकाल तक सीमित नहीं होती। पुराण, धर्म आदि सब इसके स्रोत हो सकते हैं। स्थानीयता तो होती ही है। भारत विभिन्न लोक संस्कृतियों का देश है। यहां विभिन्न संस्कृतियों के संघर्ष भी हुए हैं, समन्वय भी हुए हैं, जिनकी उपस्थिति यहां की लोककथाओं में देखी जा सकती है। यह आधुनिक संदर्भों में शास्त्रीय साहित्य या शिष्ट समाज के साहित्य से भिन्न शिक्षा विहीन और असंस्कृत जनता का साहित्य मान लिया गया है और ग्राम ज्ञान, लोक ज्ञान और जन ज्ञान की श्रेणी में गिना जाता है। इसलिए काफी हद तक उपेक्षा की मार सह रहा है। तो क्या लोक-साहित्य की आज कोई प्रासंगिकता और जरूरत सच में नहीं रह गई है? बावजूद इस सच के कि लोक-साहित्य और लोक संस्कृति का, सोच या दृष्टि के रूप में बहुत-सा प्रदत्त आज पतनोन्मुख भी कहा जा सकता है और सामाज को पीछे ले जाने वाला भी, क्या हम इस सच्चाई से मुंह मोड़ सकते हैं कि विज्ञान और आधुनिक तर्क-वितर्कों का सहारा लेते हुए भी हमारे लोक विश्वास हमारे साथ, दबे-छिपे ही सही, पर चलते रहते हैं।

उचित ही माना गया है कि सामाजिक क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए लोक मानस, लोक व्यवहार और लोकमत को समझना जरूरी होता है, जिसके स्रोत लोक-साहित्य और लोक-संस्कृति होते हैं। बलदेव उपाध्याय का मत है कि ‘लोक-संस्कृति शिष्ट-संस्कृति की सहायक होती है। किसी देश के धार्मिक विश्वासों, अनुष्ठानों और क्रियाकलापों के पूर्ण परिचय के लिए दोनों संस्कृतियों में परस्पर सहयोग अपेक्षित रहता है।’ हमारे बहुत से श्रेष्ठ और शिष्ट समाज का एक महत्त्वपूर्ण कच्चा स्रोत लोक-साहित्य भी हो सकता है और है। आज का रचनाकार इसके अवांछनीय पक्ष को झटक कर इससे प्रेरित होकर आज के लिए अपेक्षित श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर सकता है। वैसे ही जैसे मिथकों पर आधारित आधुनिक रचनाओं का सृजन किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि लोक एक प्रकार से महासागर है। मनुष्य द्वारा इसके मंथन से हमें ज्ञान के कितने ही मोती भी हाथ आ सकते हैं।

सटीक और किसी अर्थछवि के अपरिवर्तनीय शब्द का निर्माता और स्रोत होता है। भरत के नाट्यशास्त्र में भी लोक के महत्त्व को रेखांकित किया गया है। उन्होंने कहा है कि उन्होंने बहुत कुछ कह दिया है, लेकिन अब भी बहुत कुछ छूट गया है, जिसे विद्वतजन लोक से अर्जित करके इसमें सम्मिलित कर लें। केरल में एक लोककथा मिलती है जिससे बहुत कुछ आज का समाज भी सीख सकता है। किस्सा यों है- शंकराचार्य यात्रा करते हुए कर्नाटक में स्थित मूकांबिका देव (कोल्लूर) के दर्शन हेतु मंदिर पहुंचे। रास्ते में एक पुलयन (निम्न जाति) सामने आया। रास्ता संकरा था। पुलयन उस समय की व्यवस्था के अनुसार अनुसूचित जाति का होने के कारण अस्पृश्य माना जाता था। ब्राह्मण शंकराचार्य ने नीच जाति के पुलयन को रास्ते से हटने को कहा। पुलयन नहीं माना। वाद-विवाद होने लगा। पुलयन ने कहा- मैं रास्ते से नहीं हट सकता। मेरी कमर में बच्चा है, सिर पर देशी शराब का लोटा है, इधर कांटे, उधर जंगल है, फिर किस रास्ते से जाऊं मैं?

शंकराचार्य ने अपने अपवित्र हो जाने का तर्क दिया। इस पर पुलयन ने उत्तर दिया- तुम्हारा भी खून लाल है और हमारा भी खून लाल, फिर अंतर कैसा? अंतत: शंकराचार्य को मानना पड़ा कि मनुष्य-मनुष्य में कोई अंतर नहीं है। ऊंच-नीच से मुक्ति का ज्ञान देने वाला यह पाठ पोट्टन तैयम में प्रमुख है। तैयम उत्तर मालबार का प्रमुख लोकनाट्य रूप है। तैयम का आधार स्वरूप शिव, शक्ति और वैष्णव से संबंधित है। चामुंडी, कुरत्ति आदि शक्ति के मूर्ति-भेद हैं तो भैरवन, गुलिकन, पोट्टन, चात्तन आदि शिव से संबंधित हैं। बाद में चल कर बहुत से तैयम के आविष्कार हुए। पोट्टम तैयम उत्तर मलबार का विशेष तैयम है। मलयालम भाषा में पोट्टन शब्द का अर्थ है- मूढ़, गूंगा, बुद्धू आदि। लेकिन वस्तव में पोट्टन ज्ञानी है और उसे अपने संस्कार पर गर्व होता है। सवर्णों के सामाज में दलित ऐसे नाम रखने पर विवश थे।

उल्लेखनीय है कि इस प्रसंग में आया पुलयन कोई और नहीं, बल्कि छद्म वेश में स्वयं शिव थे, जो शंकराचार्य की परीक्षा ले रहे थे।लोक में कहानियां और भी प्रचलित हैं, जिनमें अलग बात कही गई है। इस प्रकार के प्रतिरोधी स्वर या संस्कार उस समय के लिए भले विचित्र हों, लेकिन आज के समय के लिए तो पूरी तरह प्रासंगिक कहे जाएंगे। लोक साहित्य से हम सक्षम अभिव्यक्ति- क्षमता की समझ बखूबी ले सकते हैं। लोक-भाषा या बोली के कितने ही शब्द आज के समर्थ रचानाकर उपयोग में लाकर अपनी अभिव्यक्ति को प्रामाणिक और सशक्त बनाते में सफल हुए हैं। लोक-शैली से भी बहुत कुछ सीखा गया है। लोकवार्ता या लोककथा की शैली का एक अत्यंत मजबूत पक्ष ‘सुनाने की कला’ होती है। इधर हिंदी-साहित्य में इसका लाभ उठाया जा रहा है।

असल में हिंदी कविता ने आठवें दशक में विशेष रूप से लोक (लोक-तत्त्व) से अपनी अभिव्यक्ति के औजार लेकर अपनी कविता को एक नया और सशक्त मोड़ दिया था, जो अब तक देखा जा सकता है। अन्य विधाओं में भी। हबीब तनवीर के ‘चरनदास चोर’ को भी इस संदर्भ में याद किया जा सकता है। सच तो यह है कि आज शायद ही ऐसा रचनाकार हो, जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए लोक से बोली, शैली आदि के स्तर पर संवाद न करता हो। हिंदी का आधुनिक बालसाहित्य, जो आज अपने उत्कृष्ट दौर में है, अपनी अभिव्यक्ति की ताकत के लिए लोकतत्त्व का भी ऋणी है। श्रीप्रसादजी के शब्दों में कहें तो ‘आज आधुनिक बाल साहित्य प्रभूत मात्रा में उपलब्ध है, पर इसके सृजन की प्रेरणा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत लोक का बाल साहित्य भी रहा है। लोक बाल साहित्य की श्रवणीयता देख कर ही कालांतर में परिनिष्ठित या नवीन बाल साहित्य सृजित हुआ।’

लोक में मौजूद बाल साहित्य गद्य और पद्य दोनों विधाओं में उपलब्ध है- बाल लोककथाएं, बाल लोकनाट्य, बच्चों की खेल कथाएं आदि गद्य में हैं तो लोरी, पहेली,खेल, गीत, पद्य कथाएं, कविता आदि पद्य में हैं।ऐसा भी नहीं कि आठवें दशक से पहले लोक (लोक-तत्त्व) से शिष्ट साहित्य ने लाभ न लिया हो। भारतेंदु हरिश्चंद्र की कृति ‘अंधेर नगरी’ को भी सहज ही याद किया जा सकता है। लोक के प्रति गहरा राग हो, लेकिन वह अंधश्रद्धा या हठ पर आधारित न हो। साथ ही यह भी कि लोक को शास्त्र के विरोध में नहीं खड़ा किया जाना चाहिए। हमारी समृद्ध वाचिक परंपरा में प्रचलित और स्वीकृत जीवन को आंख मूंद कर उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए। लोक में केवल मनुष्य नहीं हैं, उसमें वनस्पति, नदी, पहाड़, चल-अचल, चेतन-अचेतन आदि सब कुछ है। लोक को निर्जीव या जड़ समझने की भी भूल नहीं कि जानी चाहिए। सूक्ष्म दृष्टि से देखेंगे तो पाएंगे कि वह भी निरंतर गतिशील है। वह अपनी प्रकृति में स्वच्छंद है, बंधन स्वीकार नहीं करता।