सुरेश पंत

हिंदी सीखने-बोलने वाले के मार्ग में जो अनेक भटकाऊ किस्म के मोड़ आते हैं, उनमें एक है ‘ने’। इसे कर्ता कारक का चिह्न माना जाता है। किशोरीदास वाजपेयी इसे संस्कृत के कर्मवाच्य का अवशेष मानते हैं और ‘ने’ वाक्यों के विचित्र स्वभाव को देखते हुए ऐसी वाक्य रचना को ही कर्मवाच्य मानते हैं। अन्य विद्वान इसे मानते तो कतृर्वाच्य हैं, फिर भी इसके लिए कुछ बंदिशें तय कर देते हैं। पर उनसे मामला पूरा सुलझता नहीं। ‘ने’ के मामले में पूरे हिंदी क्षेत्र में ही एकरूपता नहीं है। असल में यह ‘ने’ अधिकतर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचलित है, यही शायद इसकी जन्मभूमि भी है। सो, वाराणसी से पश्चिम की ओर पंजाब तक इसका प्रयोग शुद्ध होना चाहिए था, पर वहां भी अशुद्ध प्रयोग मिलता है। पूर्वी हिंदी के लिए तो यह अनोखा मेहमान है। वहां ‘ने’ के बिना वाक्य सहज रूप से बनता है। जैसे; ‘हम कहे थे, हम खाना खा लिए हैं’ आदि, पर मानक व्याकरण ऐसे प्रयोगों को अशुद्ध मानता है! इसलिए नियमानुसार ‘हमने कहा था, हमने खाना खा लिया’ कर लिया जाता है।

जब हिंदी भाषियों में ही स्थिति साफ नहीं, तो हम उनकी क्या कहें, जो हिंदी सीख रहे हैं। इस ‘ने’ से हिंदी सीख रहे अहिंदीभाषी का डरना अकारण नहीं है।
हिंदी सर्वनामों के कुछ प्रयोगों में ‘ने’ के बारे में न केवल एकरूपता नहीं है, वरन उनमें कोई तार्किक या व्याकरणिक आधार भी नहीं दिखाई पड़ता। यह कर्ता कारक में जुड़ता है और स्पष्ट नियम है कि भूतकाल में सकर्मक क्रिया के साथ ही ‘ने’ का प्रयोग होता है। फिर भी क्रिया से ‘-ना’ जोड़ कर बनाए गए संज्ञा शब्दों के साथ इस प्रकार के वाक्य खूब चल रहे हैं: मजदूर ने काम पूरा करना है। शिल्पा ने दो बजे पहुंचना था। पत्रकार ने तो यही लिखना था। मैंने काम पर जाना है।
उपर्युक्त सभी वाक्य व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध हैं, यद्यपि हिंदी क्षेत्र में, विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरयाणा, राजस्थान में ये बहुत सुने जाते हैं। असल में यहां कतार्कारक का ‘को’ प्रत्यय जुड़ना चाहिए, ‘ने’ नहीं। इसलिए शुद्ध वाक्य होंगे: मजदूर को काम पूरा करना है। शिल्पा को दो बजे पहुंचना था। पत्रकार को तो यही लिखना था। मुझको/ मुझे काम पर जाना है।

एक सहज प्रश्न उठता है कि अगर ये ‘ने’ वाले प्रयोग अशुद्ध हैं, तो हिंदी में इतने व्यापक रूप से क्यों प्रयुक्त होते हैं। सच तो यह है कि कोई सरलता से मानता ही नहीं कि ये वाक्य अशुद्ध हैं। इसका कारण यह है कि हिंदी की कुछ बोलियों, उपभाषाओं और पड़ोसी भाषाओं में कर्ताकारक में भी ‘ने’ का प्रयोग हो रहा है और उसी अनुकरण में यह हिंदी में संक्रमित हो गया है, जबकि हिंदी में कर्ताकरक में ‘ने’ के प्रयोग का नियम है कि भूतकाल में सकर्मक क्रिया के साथ ही इसका प्रयोग होता है। हिंदी के आस-पड़ोस की बोली-भाषाओं की तुलना में इसे समझ सकते हैं: भैया नें आनो है। (ब्रजभाषा) भाई नें आणो छे। (राजस्थानी/ गुजराती) भाई ने आणु छे। (गढ़वाली) भाई नू आणा है। (पंजाबी) भाई ने आणा है। (हरियाणवी) भाई ने आना है। (हिंदी)
इसी आधार पर हिंदी में सर्वनामों के साथ इस प्रकार के प्रयोग भी अशुद्ध होंगे: मैंने नौ बजे जाना है > मुझे नौ बजे जाना है।

तुमने कुछ नहीं बोलना > तुम्हें कुछ नहीं बोलना। उसने मंच पर प्रस्तुति देनी है > उसे मंच पर प्रस्तुति देनी है। सारी जिम्मेदारी आपने संभालनी है > सारी जिम्मेदारी आपको संभालनी है। उन्होंने यहां आकर समझाना था > उन्हें यहां आकर समझाना था। ‘ने’ के प्रयोग का सीधा (?) नियम यह है कि वाक्य रचना सकर्मक क्रिया, भूतकाल में हो तभी कर्ता के साथ ‘ने’ जुड़ता है। जैसे: मैंने रोटी खाई। आपने कविताएं लिखीं। उसने रहस्य खोल दिया। इस नियम के भी अपवाद हैं। कुछ अकर्मक क्रियाओं के साथ भी ‘ने’ जुड़ जाता है, जैसे: नहाना, खांसना, छींकना और कुछ सकर्मक क्रियाओं के साथ प्राय: नहीं भी जुड़ता, जैसे: बकना, बोलना भूलना। उसने छींका। मैंने खांस दिया। किसने नहाया था। वह बोला। तुम भूल गए। इस ‘ने’ की एक अन्य दारुण भूमिका से आप शायद परिचित न हों। वह है रिश्ता तोड़ने वाली भूमिका। प्राय: सभी भाषाओं में कर्ता और क्रिया का रिश्ता अटूट माना जाता है। यानी किसी भी वाक्य में कर्ता के अनुसार ही क्रिया होती है। हिंदी में भी यह वैश्विक नियम है, पर तभी तक, जब तक कर्ता से ‘ने’ न जुड़ा हो। यहां ‘ने’ के कर्ता से जुड़ते ही उसके मन में अपनी जीवनसंगिनी क्रिया के प्रति मानो उदासीनता का भाव पैदा हो जाता है और वह क्रिया से विमुख हो जाता है। यों कहिए कि दोनों में संबंध विच्छेद हो जाता है! कर्ता का आसरा छूटने पर विवश होकर क्रिया कर्म से संबंध जोड़ लेती है। जैसे: कर्ता-क्रिया संबंध- सुधा कविता पढ़ती है। मोहन खाना खाता है। ‘ने’ के आ जाने पर क्रिया कर्म के अनुसार 1. सुधा ने कविता पढ़ी, पत्र पढ़ा, संदेश पढ़े। 2. मोहन ने खाना खाया, रोटी खाई, पूरियां खार्इं। प्यार के दुश्मनों को यहां भी चैन नहीं। वे कर्म और क्रिया के बीच भी ‘को’ का पहरा बिठा देते हैं, और निराश क्रिया लौकिक संबंधों से विरक्त होकर कर्ता और कर्म दोनों से विमुख अपनी अलग पहचान बना लेती है- सदा अन्य पुरुष, पुल्लिंग, एक वचन में रहती है! जैसे: सुधा ने कविता को पढ़ा, पत्र को पढ़ा, संदेशों को पढ़ा। मोहन ने पराठे को खाया, पूरी को खाया, पूरियों को खाया।

हिंदी में ‘ने’ की कुछ और मनमानियां भी दिखाई पड़ती हैं। उनमें एक है यह और वह का कर्ता कारक में बहुवचन रूप बनाते हुए ’-न्हों’ का निषेध कर उसके स्थान पर केवल ‘-न’ का प्रयोग। प्रभाष जोशी और प्रभाकर माचवे जैसे प्रसिद्ध लेखकों के ऐसे वाक्य प्रसिद्ध हैं: ‘उनने कहा’, ‘इनने बताया’, ‘किनने पूछा था’ आदि। कारण पूछने पर एक बार माचवेजी ने हंस कर कहा था, ‘इसे हिंदी को मालवा की देन मान लो!’ और यह सत्य भी है। मालवी और ब्रज में ये ही प्रयोग हैं। हिंदी में भी केवल यह, वह, कौन सर्वनामों के कर्ताकारक के बहुवचन में ही यह न जाने कैसे आ विराजा है, शेष किसी भी कारक में नहीं है: उनको, उनसे, उनका, उनके लिए, उनमें कहीं भी ‘न्हों’ के दर्शन नहीं होते। सर्वत्र ‘न’ है, तो कर्म में भी ‘न’ ही क्यों न हो? स्पष्ट है कि यह बोलियों से आया है और हिंदी (खड़ी बोली) क्षेत्र के बहुमत के सामने इसे झुकना पड़ा है।इस सबके बावजूद ‘ने’ से डरने की आवश्यकता नहीं है। विश्व की कोई भाषा ऐसी नहीं है, जिसकी रचना के नियमों में अपवाद न हों। संस्कृत में भी अपवाद हैं, पर अपवादों के भी नियम होते हैं। कोई भाषा पहले व्याकरण के नियम सीखने के बाद नहीं सीखी जाती। पहले भाषा, फिर नियम। हिंदी के बारे में भी यही सच है। शुरू तो करें।