मीना
गुनगुनी धूप, छत पर चारों तरफ फैले रंग-बिरंगे प्लास्टिक के फूल और फूलों के बीच बैठी रूबी और उनकी पड़ोस की कुछ महिलाएं फूलों को जोड़ कर माला बना रही हैं। ये महिलाएं फूल की मालाएं बनाते-बनाते हंसी-ठिठोली कर रही हैं। उनके हाथ में केवल फूल मालाएं नहीं, बल्कि उनके चेहरे पर खुद की कमाई का संतोष भी है। रूबी पिछले चार सालों से फूलों की माला बनाने का काम कर रही हैं। उनके पति सब्जी बेचते हैं। रूबी बताती हैं कि घर सिर्फ पति की कमाई से नहीं चल पाता। इसी की वजह से मुझे फूल माला बनाने का काम करना पड़ा। वे बताती हैं कि इस काम में मैं रोज के सौ से डेढ़ सौ रुपए कमा लेती हूं। इन पैसों से घर चलाने में तो मदद मिलती ही है, अपने बच्चों को कुछ अच्छा खिला-पिला भी पाती हूं। मेरी यह कमाई मुझे आत्मनिर्भर बनाती है।
महिलाएं अब केवल रसोईघर तक सीमित नहीं हैं। वे घर में खाली नहीं बैठना चाहती हैं। उन्होंने अपने समय की कद्र करनी शुरू कर दी है। शायद यही वजह है कि घरों में रहने वाली महिलाओं ने भी बहुत से कुटीर उद्योगों से खुद को जोड़ लिया है। आज औरतें घर बैठे ही मोमबत्ती, अगरबत्ती, फूल माला, बैट्री, बिंदी आदि बनाने का काम कर रही हैं। ऐसे उद्योगों में लगातार महिलाओं की रुचि बढ़ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा शहरी महिलाओं का आंकड़ा कुटीर उद्योगों में अधिक बढ़ा है। एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘वीगो’ की रिपोर्ट बताती है कि भारत में तीन करोड़ अस्सी लाख घरेलू उद्योग श्रमिक हैं। इनमें से चालीस फीसद महिलाएं हैं। ‘वीगो’ वह संस्था है, जो कुटीर उद्योगों से संबंधित खोज करती और नीतियां बनाती है।

यह सच है कि महिलाओं के हाथ में जब रोजगार आता है तब उनके परिवार की आर्थिक स्थिति तो सुधरती ही है, महिलाओं का आत्मविश्वास भी बढ़ता है। कुटीर उद्योगों में मेहनत अधिक लगती है और मुनाफा कम होता है। फिर भी महिलाएं इस श्रम के लिए तैयार हैं। जिस छत पर रूबी फूलों की माला बना रही हैं, उसी छत पर काजल बैट्री बनाने का काम करती हैं। वे कहती हैं- ‘मुझे एक बैट्री बनाने के पचास पैसे मिलते हैं। अगर एक दिन में पांच सौ बैट्री बनाती हूं तो ढाई सौ रुपए की आमदनी हो जाती है। यह पैसा बड़ी कंपनी में काम करने वाले साहब लोगों से तो बहुत कम है, लेकिन मुझे इतने से ही संतुष्टि है।’ काजल सुबह दस बजे तक अपने घर का काम खत्म कर बैट्री बनाने में जुट जाती हैं और यह सिलसिला शाम सात बजे तक चलता है। इसके बाद रात का खाना बनाना और पूरे परिवार को खिलाना उन्हीं की जिम्मेदारी है। काजल का सपना है कि वे अपनी घर खरीदें। वे कहती हैं कि बूंद-बूंद से सागर भरता है। इसलिए उन्हें उम्मीद है कि एक दिन उनकी मेहनत रंग लाएगी। ऐसे उद्योग, जिनमें सेवाओं और उत्पाद का निर्माण सामूहिक रूप से घर में ही होता है, कुटीर उद्योग की श्रेणी में आते हैं। इसके लिए किसी कारखाने की जरूरत नहीं होती। ये उद्योग स्वतंत्र होते हैं। ऐसे काम कई बार किसी कंपनी के साथ मिल कर भी किए जाते हैं। गांधीजी ने महिलाओं के उत्थान के लिए उन्हें अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में शामिल होने, सूत कातना, चरखा चलाना जैसे रचनात्मक कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की बात कही थी, ताकि महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हों और देश के विकास और प्रगति में भागीदार बन सकें।

एक गैर-सरकारी संस्था चलाने वाली नीलम बताती हैं कि अकसर जो महिलाएं घरों में काम करती हैं, अव्वल तो उनके काम को काम ही माना नहीं जाता है। उनके काम को परिजन टाइम पास समझ लेते हैं। जबकि यह सच नहीं है, क्योंकि एक औरत जो भी कमा रही है वह घर की आय में जुड़ता है। नीलम बताती हैं कि हमारी संस्था पुराने कपड़े को दोबारा इस्तेमाल करके नया उत्पाद तैयार करती है। हम बैग, पाउच, थैले, मोबाइल कवर, बटुए जैसे सामान महिलाओं से तैयार करवाते हैं। हम यह काम बिना पैसे लिए करवाते हैं। जो भी उत्पाद महिलाएं तैयार करती हैं वे उन्हें एक पीस के हिसाब से कीमत देती हैं।
इसी संस्था के साथ जुड़ कर काम कर रही शाइस्ता बताती हैं कि उन्होंने यहां आकर सिलाई करना सीखा और अब वे आत्मनिर्भर हैं। शाइस्ता कहती हैं कि पति अलग रहता है और तीन बच्चियों की जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही है। वे बताती हैं कि शुरुआत में हाथ साफ करने के लिए मुझे मैडम ने छोटे-छोटे कपड़े सिलने के लिए दिए और आज मैं एकदम अच्छे से कपड़े सिल लेती हूं। एक सूट को सिलने के मैं ढाई सौ रुपए लेती हूं और अगर दिन में पांच पीस भी बना देती हूं तो मेरे घर का खर्चा आराम से चल जाता है। कुटीर उद्योगों से अर्थव्यवस्था को मुनाफा होता है। यही वजह है कि सरकारों ने भी इसे बढ़ावा देने के प्रयास किए हैं। राष्ट्रीय विकास की योजना बनाने और कार्यान्वित करने के लिए 1950 में योजना आयोग का गठन किया गया था। जिसने स्पष्ट किया है कि लघु एवं कुटीर उद्योग हमारी अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। जिनकी कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। आजादी के बाद कुटीर उद्योगों के विकास के लिए अत्यधिक प्रयास किए गए। सन 1948 में देश में कुटीर उद्योग बोर्ड की स्थापना हुई। फिर कई औद्योगिक नीतियां बनाई गर्इं, जिनमें कुटीर उद्योगों को प्रमुख स्थान दिया गया। आज सकल घरेलू उत्पाद को बढ़ाने में कुटीर उद्योगों में महिलाओं की बड़ी भूमिका है।

सिर्फ शहरी इलाकों में न हीं, ग्रामीण इलाकों में भी महिलाओं के करने लायक बहुत सारे कुटीर उद्योग हैं। गांवों में महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के मकसद से सरकारें कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दे रही हैं। बस, जरूरत है तो महिलाओं को उनके बारे में जानकारी हासिल कर उनमें अपने हुनर का इस्तेमाल करने का। आप भी शुरू कर सकती हैं ऐसी महिलाएं, जो कम पढ़ी लिखी हैं या जिन्हें अक्षर ज्ञान नहीं है, वे भी घर बैठे कई काम शुरू कर सकती हैं और खुद को स्वावलंबी बना सकती हैं। अमूमन ऐसी महिलाएं जिन्हें घर से बाहर काम के लिए जाने पर पाबंदी होती है, उन्हें अक्सर अपने पतियों के ताने सुनने पड़ते हैं। छोटी-मोटी जरूरतों के लिए भी पति पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में महिलाओं की स्थिति काफी दयनीय-सी बन जाती है। एक स्वयंसेवी संस्था में काम करने वाली अर्चना कौल कहती हैं कि जिन महिलाओं के पास जिस भी काम का हुनर है, उसे आजमाएं। बहुत सारी महिलाएं सिलाई, कढ़ाई, बुनाई जैसे काम में माहिर होती हैं। कुछ महिलाएं खाना बहुत अच्छा बना लेती हैं। ऐसी महिलाएं अपने हुनर के बल पर खुद का कुटीर उद्योग शुरू कर अपनी आर्थिक स्थिति को आसानी से मजबूत कर सकती हैं। अगर आप भी अपना कुटीर उद्योग शुरू कर खुदा को स्वावलंबी बनाना चाहती हैं, तो अपनी रुचि को पहचान कर कुछ महिलाओं का समूह बना कर यह काम बखूबी कर सकती हैं और तैयार माल को आसपास के बाजारों में या अपनी जान-पहचान के लोगों को बेच सकती हैं।