समाजवाद के नाम पर हमारे शासक अमीर बन गए हैं और जनता गरीबी के शिकंजे में जकड़ी रही है। ऊपर से जो आम सुविधाएं अक्सर दिखती हैं समाजवादी देशों में- अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं- वे भी इस देश के आम आदमी को नसीब नहीं हुई हैं।
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता आज भी उतनी है, जितनी तीन साल पहले थी। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम इसे साबित कर चुके हैं और अब अमेरिका की फोर्ब्ज पत्रिका के नए सर्वेक्षण के मुताबिक, भारतवासी जितना विश्वास करते हैं अपनी सरकार पर, उतना किसी दूसरे देश के नागरिक नहीं करते अपने शासकों पर। सर्वेक्षण कहता है कि तिहत्तर प्रतिशत भारतवासी अपनी सरकार में विश्वास करते हैं। इस आंकड़े को पढ़ कर ध्यान आया कि अगर अखबारों के दफ्तरों और न्यूज चैनेलों में होता यह सर्वेक्षण तो नतीजा बिल्कुल अलग निकलता। पत्रकारिता की दुनिया में आज भी मेरे ज्यादातर बंधु मोदी से नफरत करते हैं। सो, जब भी हम आपस में बैठ कर चाय पर चर्चा करते हैं, तो मोदीभक्त कह कर मेरा मजाक उड़ाया जाता है। इन दिनों कई ‘राष्ट्रवादी’ न्यूज चैनल हैं, जो मोदी के खिलाफ जरा-सी भी आलोचना को देशद्रोह जैसा मानते हैं, सो मुझसे ज्यादा भक्त बन गए हैं कुछ लोग। अपनी तरफ से बेझिझक कहने को तैयार हूं कि मोदी ने कई ऐसी चीजें की हैं, जिनकी वजह से मैं आज भी उनका समर्थन करती हूं। सबसे बड़ी बात यह कि मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं भारत के, जिन्होंने निस्संकोच उन सामाजिक बुराइयों का जिक्र लाल किले की प्राचीर से किया, जिन्हें हम देख कर भी अनदेखा करते आए हैं। स्वच्छ भारत, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बात यहां से हुई और इन दोनों योजनाओं को मैं बहुत महत्त्वपूर्ण मानती हूं। इसी स्थान से प्रधानमंत्री मोदी ने योजना आयोग को समाप्त करने का एलान किया और ऐसा करते हुए इशारा किया कि पूर्व सोवियत संघ की नकल करके जो हमने आर्थिक दिशा चुनी थी उसे अब बदलने का समय आ गया है।
निजी तौर पर मुझे यह बात सबसे अच्छी लगी, क्योंकि मेरा मानना है कि भारत ने समाजवादी आर्थिक नीतियों को दशकों तक अपना कर जनता का फायदा कम किया है और अधिकारियों और राजनेताओं का ज्यादा। समाजवाद के नाम पर हमारे शासक अमीर बन गए हैं और जनता गरीबी के शिकंजे में जकड़ी रही है। ऊपर से जो आम सुविधाएं अक्सर दिखती हैं समाजवादी देशों में- अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं- वे भी इस देश के आम आदमी को नसीब नहीं हुई हैं। थोड़ी बहुत समृद्धि आई तो सिर्फ उन आर्थिक सुधारों की वजह से, जो प्रधानमंत्री नरसिंह राव लाए थे। उन सुधारों के बाद निजी क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर पैदा हुए थे और अर्थशास्त्रियों के मुताबिक कोई तीस करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से ऊपर उठ कर मध्यवर्ग में शामिल हुए हैं। मुझे वामपंथी आर्थिक नीतियों पर बिल्कुल विश्वास नहीं है, सो बहुत अच्छा लगा था जब 2014 के आम चुनाव में मोदी ने देश की आर्थिक दिशा बदलने की बातें की थीं। याद है कि कितनी बार उन्होंने कहा था कि उनकी राय में सरकार को बिजनेस में होना ही नहीं चाहिए? याद है कि कितनी बार उन्होंने कहा कि अगर वे प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो प्रशासनिक हस्तक्षेप उन क्षेत्रों में बिल्कुल होने नहीं देंगे, जहां हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है? अफसोस कि प्रधानमंत्री बनने के तीन साल बाद भी उनकी सरकार होटल चला रही है और एअर इंडिया में अब भी जनता का पैसा डुबो रही है, बावजूद इसके कि एअर इंडिया का घाटा पचास हजार करोड़ रुपए है आज। सुनते हैं कि नीति आयोग ने घाटे में चलने वाली सरकारी कंपनियों की फेहरिस्त तैयार की है, लेकिन अभी तक इन्हें बेचने का जिक्र तक नहीं हुआ है।
रही बात सरकारी हस्तक्षेप को हमारे निजी जीवन में कम करने की, तो हुआ उलटा है पिछले तीन वर्षों में। जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं, वहां सरकारी अफसर हमारे घरों के अंदर घुस कर यह भी जांच कर रहे हैं कि हम गोश्त पका रहे हैं तो वह किसका है। गोरक्षा के नाम पर जब यह शुरू हुआ, तो गोरक्षकों के हौसले इतने बुलंद हुए कि इनके गिरोह हाई-वे पर तैनात होने लगे और उनकी भी शामत आई, जो मंडियों से जायज तरीके से गाय-भैंस खरीद कर घर ले जा रहे थे। नतीजा यह कि अब पशु पालने से किसान डरते हैं और पशुओं से जुड़े कई जायज उद्योग भी बंद होने लगे हैं। पशु मंडियों में मंदी छा गई है और वह दिन दूर नहीं जब मांस निर्यात करने वाली कंपनियां भी बंद हो जाएंगी।
‘मोदीभक्त’ होने के नाते निराश इस बात को लेकर भी हूं कि प्रधानमंत्री को सरकारी हस्तक्षेप पर इतना विश्वास है कि उनकी स्टार्ट-अप योजना का मकसद है सरकारी अफसरों की मदद से नए कारोबार शुरू कराना नौजवानों को बैंकों से लोन दिला कर। मकसद अच्छा है, लेकिन क्या प्रधानमंत्री जानते नहीं हैं कि सरकारी अधिकारी न खुद सफल व्यापारी बन सकते हैं और न ही किसी और को सफल बनाने में मदद कर सकते हैं?
प्रशासनिक दखल की हद हमने पिछले हफ्ते देखी, जब सेंसर बोर्ड ने अमर्त्य सेन पर बनी एक फिल्म को रोका, सिर्फ इसलिए कि निर्देशक उसमें से गाय, हिंदू, हिंदुत्व और गुजरात शब्द निकालने को राजी न हुआ। चलिए इस बहाने अगर प्रधानमंत्री सेंसर बोर्ड और सूचना प्रसारण मंत्रालय को समाप्त करके दिखाते हैं, तो इस मोदीभक्तन का विश्वास फिर से उनमें जाग उठेगा। ये संस्थाएं उस दौर की देन हैं, जब इंटरनेट नहीं होता था और जब सरकारी अधिकारी तय कर सकते थे कि हमारी सोच क्या होनी चाहिए। हमारे विचारों को काबू में रखने के लिए बनाई गई थीं ये संस्थाएं। इनको तो कम से कम समाप्त कर दीजिए प्रधानमंत्रीजी!