लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने कश्मीर में शांति के लिए नई नीति घोषित की पिछले हफ्ते। उनके शब्दों में, ‘कश्मीर में समस्या न गाली से सुधरेगी, न गोली से, समस्या सुधरेगी तो गले लगा कर।’ इस घोषणा से उन्होंने अपनी वर्तमान कश्मीर नीति को पूरी तरह बदल डाला है। याद कीजिए कि प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही महीने बाद जब हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं को पाकिस्तान के दूतावास में आमंत्रित किया गया था, तो मोदी सरकार ने एतराज जताया खुल कर। फिर जब बुरहान वानी मारा गया पिछले साल और कश्मीर घाटी में अशांति और अराजकता फैलने लगी थी, मोदी सरकार की नीति में वही सख्ती दिखाई दी, जो शुरू से थी। नरमदिल पत्रकारों ने जब छर्रे वाली बंदूकों से घायल बच्चों और युवाओं की तस्वीरें दिखार्इं टीवी पर, तो भी मोदी सरकार की नीति सख्ती की रही।  यही सख्ती दिखी हाल में जब हुर्रियत नेताओं के घरों में छापे मारे गए इस बात को साबित करने की कोशिश में कि उनका पैसा पाकिस्तान से आता है। उन कारोबारियों के घरों में भी छापे पड़े हैं, जिन पर शक था कि उनके कारोबार जरिया बने थे इस पैसे को सीमा पार से लाने का। जब भी कश्मीर घाटी में किसी सैनिक शिविर पर हमले हुए हैं, मोदी सरकार के प्रवक्ताओं ने बेझिझक दोष पाकिस्तान को दिया है। नियंत्रण रेखा पर हमलों का जवाब हमारी सेना ने डट कर दिया है और सर्जिकल स्ट्राइक का प्रचार मोदी सरकार ने गर्व से किया हर चुनाव में। इन सब की वजह से हम राजनीतिक पंडितों को विश्वास हो गया था कि जब तक मोदी प्रधानमंत्री रहेंगे तब तक गले मिलने वाली बातें नहीं होंगी। अब सब कुछ क्यों बदल गया है अचानक? क्या मोदी के सलाहकारों को लगने लगा है कि उनकी कश्मीर नीति नाकाम रही है?  प्रधानमंत्री के लाल किले वाले भाषण के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि उनकी नीति क्या है कश्मीर को लेकर। क्या अमन-शांति लाने के लिए पाकिस्तान से भी मोदी बात करने को तैयार हैं? ऐसा है अगर तो क्या हम अपनी पाकिस्तान नीति भी बदल रहे हैं? अभी तक तो मोदी सरकार ने बातचीत का सिलसिला इस आधार पर बंद कर रखा है कि जब तक सीमा पार से आतंकवाद नहीं रुकता तब तक कोई बातचीत नहीं हो सकती। सो, अब क्या होने वाला है? जिहादी आतंकवाद रुका नहीं है, खासकर कश्मीर घाटी में, सो बातचीत करने को कैसे राजी हो सकते हैं हम?

ये सवाल पूछने की जरूरत न होती अगर मोदी सरकार की कश्मीर नीति स्पष्ट होती। अफसोस की बात है कि भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक समस्या का हल ढूंढ़ने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से कोई स्पष्ट नीति अभी तक दिखी नहीं है। सो, अभी तक जो गोली-गाली से शांति लाने की कोशिश रही है, अचानक बदल कर गले मिलने वाली हो गई है, लेकिन किससे गले मिलें हम? उन हिंसक बच्चों से, जो रोज पत्थर फेंकते हैं हमारे सुरक्षा कर्मियों पर और ‘गो बैक इंडिया’ के नारे लगाते हैं? उन हुर्रियत नेताओं से, जिनके बारे में हम जान गए हैं कि उनकी दुकानें चलती हैं पाकिस्तानी पैसे के बल पर? उन जिहादी संस्थाओं से, जिन्होंने बार-बार विडियो बना कर स्पष्ट शब्दों में कहा है कि कश्मीर के लिए आजादी चाहते हैं, इसलिए कि यहां वह शरीअत कानून नाफिस करके आइएसआइएस किस्म की इस्लामी खिलाफत बनाना चाहते हैं? किससे गले मिलें प्रधानमंत्रीजी? किससे?
सच तो यह है कि हमारी कश्मीर समस्या का मुख्य कारण यही है कि भारत के प्रधानमंत्री शुरू से स्पष्ट नीति व्यक्त करने से डरते आए हैं। सो, नेहरूजी रायशुमारी का वादा कर गए, लेकिन कभी करवाने की हिम्मत नहीं दिखाई। शेख अब्दुल्ला से दोस्ती की, लेकिन फिर उनको अठारह वर्ष कैद करके रखा। फिर आई इंदिरा गांधी की बारी, तो उन्होंने 1975 में शेख साहब के साथ समझौता किया, जिससे शांति आई कश्मीर में, लेकिन इस शांति को भंग इंदिराजी ने खुद किया 1984 में, जब फारूक अब्दुल्ला की सरकार को बिना किसी ठोस कारण के गिरा दिया गया और ऐसा करके एक बार फिर साबित किया उन्होंने कि कश्मीर के लोगों को असली लोकतंत्र कभी नहीं मिलेगा।

अपनी माताजी की इस गलती को सुधार सकते थे राजीव गांधी, लेकिन उन्होंने एक गलती पर दूसरी की फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस को जबर्दस्ती कांग्रेस के साथ 1987 में चुनाव लड़ने को मजबूर करके। विपक्ष की जगह फौरन ले ली इस्लामी दलों के एक गठबंधन ने और जब ऐसा लगने लगा कि इस गठबंधन को घाटी में जरूरत से ज्यादा सीटें आ सकती हैं, तो ऐसी चालें चली गर्इं, जिनसे आम कशमरियों को लगा कि चुनाव में धांधली हुई है। इस तरह गलतियों पर गलतियां होती आर्इं, जब तक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने कश्मीरियों को आश्वासन दिया कि वह घाटी में ‘जम्हूरियत, कश्मीरियत, इंसानियत’ को ध्यान में रख कर ही आगे बढ़ेंगे।नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने और उनके इशारे पर पहली बार कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार सत्ता में आई, तो बहुत उम्मीदें थीं उनसे कि कश्मीर में असली शांति ला पाएंगे। इन उम्मीदों पर काफी हद तक अब पानी फिर गया है, सो वास्तव में जरूरत है एक नई नीति की, लेकिन यह सफल तभी हो सकती है, अगर प्रधानमंत्री पहले स्पष्ट कर दें कि भारत की सीमाएं दोबारा नहीं बदली जाएंगी। इसको स्वीकार करके जो कश्मीरी तबके सामने आते हैं गले मिलने के लिए, उनसे जरूर गले मिला जाए। जिहादी और कट्टरपंथी अलगाववादी संस्थाओं से गले मिल कर क्या हासिल होगा?