मार्क्सवादी सौंदर्यदृष्टि मनुसंहिता से निस्सृत कोई ऐसी जड़ अवधारणा नहींं है, जो कालांतर में अप्रासंगिक होने को अभिशप्त हो। हां, यह जरूर है कि मार्क्सवादी राजनीति का पराभव कुछ यथास्थितिवादियों और अराजनीति के पैरोकारों को उस महाज्ञानी की भूमिका में जरूर ला खड़ा करता है, जो नवजात शिशु का माथा देख कर कभी न कभी बच्चे की मृत्यु की भविष्यवाणी की दिव्यदृष्टि रखता है। सच तो यह है कि मार्क्सवादी सौंदर्यदृष्टि समाज सापेक्षता और समता-समानता के जिन परिवर्तनकामी मूल्यों को लेकर प्रतिश्रुत रही है, आज उसका विस्तार हुआ है। आज मार्क्सवादी सौंदर्यदृष्टि प्राणवायु की तरह समूचे साहित्यिक-कलात्मक परिदृश्य पर विस्तारित है। हिंदी साहित्य संसार में स्त्री, दलित, आदिवासी और हाशिए के समाज की जीवंत उपस्थिति और केंद्रीयता मार्क्सवादी सौंदर्यबोध का अद्यतन और अधुनातन विस्तार है।

प्रेमचंद ने बिना मार्क्सवाद का नाम लिए कहा था- ‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो- जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहींं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’ कला जीवन के लिए मार्क्सवादी सौंदर्यबोध का यही तो सारतत्त्व है। निराला की कविता ‘तोड़ती पत्थर’ सौंदर्य और श्रम के समन्वय की कला दृष्टि का उत्कृष्ट उदाहरण है। निराला की आंख मजदूरनी के ‘श्याम तन, भर बंधा यौवन’ को देखती अवश्य है, लेकिन वह टिकती है ‘नत नयन प्रिय/ कर्म रत मन/ गुरु हथौड़ा हाथ’ पर। आखिर क्यों निराला ‘चतुरी चमार’ को कबीर पदावली का विशेषज्ञ स्वीकार कर उसके बारे में यह लिख सके कि ‘वह एक ऐसे जाल में फंसा है, जिसे वह काटना चाहता है, भीतर से उसका, पूरा जोर उभर रहा है, पर एक कमजोरी है, जिसमें बार-बार उलझ कर रह जाता है?’ और क्यों आचार्य रामचंद्र शुक्ल दृढ़ विश्वास के साथ यह लिख सके कि ‘ऊंची-नीची श्रेणियां समाज में बराबर थीं और बराबर रहेंगीं। अत: शूद्र शब्द को नीची श्रेणी के मनुष्य का- कुल, शील, विद्या, बुद्धि, शक्ति आदि सबमें अत्यंत न्यून का- बोधक मानना चाहिए।’ यह लिखते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यह भी लिखा था कि ‘योरोप में नीची श्रेणियों में ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार का प्राबल्य हुआ, जिससे लाभ उठा कर ‘लेनिन’ अपने समय में महात्मा बना रहा। समाज की ऐसी वृत्तियों पर स्थित ‘महात्म्य’ का स्वीकार घोर अमंगल का सूचक है।’ इस कथन में सर्वहारा के नायक लेनिन के मानमर्दन और वर्णव्यवस्था के समर्थन का जो रिश्ता है वह सौंदर्यदृष्टि से विच्छिन्न नहीं है। आखिर क्यों आचार्य शुक्ल के ‘लोकमंगल’ में श्रमशील शूद्र समाज ‘अत्यंत न्यून का बोधक’ है?

मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र उस ‘अभिजनवाद’ में भी सूराख करता है, जो साहित्य के केंद्र से ‘होरी’ (गोदान) को बेदखल करके ‘शेखर’ (शेखर एक जीवनी) को आधुनिक हिंदी कथा-साहित्य का सबसे सशक्त प्रतिनिधि करार देता है। प्रश्न यह भी है कि आखिर क्यों निर्मल वर्मा का मार्क्सवाद विरोध और वर्ण-व्यवस्था का समर्थन अन्योन्याश्रित है? आखिर क्यों उनकी सौंदर्यदृष्टि से वर्णव्यवस्था की कुरूपता अलक्षित रहती है। इतना ही नहींं, वे इसे प्रश्नांकित करने के बजाय यह कहना जरूरी समझते हैं कि ‘जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जगह चाहे वह वर्णव्यवस्था में ही निहित क्यों न हो, के प्रति निष्ठा रखने में ही मनुष्य का देवत्व छिपा रहता है।’ सच तो यह है कि मार्क्सवादी सौंदर्यदृष्टि को खारिज करने या उसे अप्रासंगिक करार दिए जाने के पीछे उन आस्वादपरक अभिजनवादी कलामूल्यों की रक्षा है, जो साहित्य को जीवनसंग्राम से बेदखल करना चाहते हैं। मार्क्सवादी सौंदर्यचेतना को खारिज किए बिना क्या अशोक वाजपेयी यह कह सकते थे कि ‘…एक ऐसे समय में जब देह सर्वथा अलक्षित जा रही हो मानो भारतीय परंपरा में देह और शृंगार का इतना बड़ा प्रचलन न रहा हो, ऐसे में जब मसलन ऐसा लिखा जा रहा है मानो हिंदी समाज में या हिंदी के मनुष्य में सेक्सुअलिटी होती ही नहीं है। ऐसे में देह की बात करना वैचारिक हस्तक्षेप है।’ कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘देह और शृंगार’ के माध्यम से किया जाने वाला वैचारिक हस्तक्षेप उस भोगवादी दर्शन का ही उपजीव्य है, मार्क्सवाद जिसका प्रत्याख्यान करता है।

विचारणीय यह भी है कि मार्क्सवादी दृष्टि को प्रश्नांकित या खारिज करते हुए किन साहित्यिक कलात्मक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जा रहा है? दलित सौंदर्यशास्त्र की कसौटी पर मार्क्सवादी साहित्य-दृष्टि को प्रश्नांकित किए जाने के निहितार्थ वही नहीं हैं जो कलावादियों द्वारा मार्क्सवाद को अप्रासंगिक करार दिए जाने के। दलित सौंदर्यशास्त्र की भूमि से मार्क्सवाद की सीमाओं को इंगित किया जाना मार्क्सवादी सौंदर्यदृष्टि के देशज विस्तार की मांग है, जबकि कलावादियों द्वारा मार्क्सवादी दृष्टि को खारिज किया जाना साहित्य से व्यापक सामाजिक सरोकारों को ही खारिज किया जाना है। यह अकारण नहीं है कि मार्क्सवाद को खारिज करने वाला कलावाद ‘मैला आंचल’ सरीखी कथाकृति में मौजूद ‘लोकगीतों की संवेदना, लहलहाते गद्य और अद्भुत लयात्मकता’ पर तो लहालोट है, लेकिन उसके सामाजिक निहितार्थों पर नहींं। क्या यह कहने की जरूरत है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और वर्णाश्रमी हिंदुत्व का जो क्रिटीक ‘मैला आंचल’ में उपस्थित है, क्या उसका खुलासा होने के बाद भी रेणु कुलीन साहित्य तंत्र के बीच उतने ही दुलारे लेखक रहेंगे? यह समझने की जरूरत है कि एक ही परंपरा और कथा-भूमि के लेखक होने के बावजूद साहित्य के कुलीनतंत्र से प्रेमचंद क्यों बहिष्कृत हैं और रेणु क्यों समादृत?

दरअसल, मार्क्सवादी कलादृष्टि साहित्य को साहित्यिक संरचना के साथ-साथ सामाजिक संरचना के रूप में पढ़े जाने का जो विवेक प्रदान करती है वह मार्क्सवाद विरोधियों के लिए सांड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा है। साहित्य का संदर्भविहीन पाठ साहित्यिक कृति को महज एक कलात्मक उत्पाद के रूप में बदल देता है। तकनीक की केंद्रीयता ही ‘खिलेगा तो देखेंगे’ को प्रासंगिक बनाती है और ‘धरती धन न अपना’ को साहित्य के कुलीनतंत्र से बहिष्कृत रखती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि जब बात महज तकनीकी दक्षता और आस्वादपरक कलावाद तक सीमित होगी तो साहित्य से समाज, लोकजीवन, इतिहास, नारी-विमर्श और दलित-अस्मिता जैसे प्रश्न बेदखल हो जाएंगे और साहित्य महज एक ‘उत्पाद’ बन कर रह जाएगा, जिसके न कोई सामाजिक संदर्भ होंगे और न कोई जीवन मूल्य। जरूरत मार्क्सवादी सौंदर्यबोध को खारिज किए जाने की न होकर इसे भारतीय यथार्थ में रच-पग कर विस्तारित किए जाने की है। नंदीग्राम और सिंगुर ने मार्क्सवाद की जिस राजनीतिक समझ को प्रश्नांकित किया है उसे महाश्वेता देवी के जनपक्षधर साहित्यबोध से ही समझा जा सकता है।

मार्क्सवादी के राजनीतिक पराभव से न तो कलावाद की औचित्यसिद्धि होती है और न ही उसे पुनर्जीवन प्राप्त हो सकता है। साहित्य के जनतंत्र को भोगवाद में रचे-पगे सौंदर्यबोध की नहींं, बल्कि उस परिवर्तनकामी कला-निकष की जरूरत है, मार्क्सवाद जिसकी पूर्वपीठिका है। अफसोस कि यथास्थितिवादी कलावाद की जिन चौकियों से मार्क्सवादी सौंदर्यबोध पर हमले किए जा रहे हैं वे जाने-अनजाने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बगलगीर हैं, इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।

मार्क्सवादी कलादृष्टि साहित्य को साहित्यिक संरचना के साथ-साथ सामाजिक संरचना के रूप में पढ़े जाने का जो विवेक प्रदान करती है वह मार्क्सवाद विरोधियों के लिए सांड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा है। साहित्य का संदर्भविहीन पाठ साहित्यिक कृति को महज एक कलात्मक उत्पाद के रूप में बदल देता है।