इस उत्तरोत्तर आधुनिक समय में जब एक-एक कर सांस्कृतिक प्रतीकों का विलोपन हो रहा हो, कलाएं ढलान पर और मूल्य गायब होने के कगार पर हों, छंद और लय जीवन के खुरदुरेपन से निरंतर घर्षण खाते हुए गद्य के अंधे कुएं में डूब गए हों तथा विद्वतजन गीत के ही नहीं, कविता के ही अंत की सार्वजनिक घोषणाएं कर चुके हों; ऐसे समय में आत्ममुग्धता के आरोप की आशंकाओं के बावजूद यह लेखक हिंदी समाज के सामने यह सवाल उठाने के लिए प्रतिश्रुत हुआ है कि आदिकाल से काव्य के एक सबसे महत्त्वपूर्ण और सिद्ध रूप को आज के समय में असंभव क्यों मान लिया गया; और यदि वह संभव हुआ भी, तो उसका रूप भारतीय काव्यशास्त्र के अनुरूप क्यों नहीं हुआ? क्यों नहीं हो सकता?
ऐसे तानाशाह समय में जब बीसवीं सदी के एक महान कवि के जीवन के उत्तरार्ध में आधी सदी पूर्व महाकाव्य लिखने की महदाकांक्षा के आसमान को, उसी के नगरवर्ती प्रसिद्ध आलोचक ने क्रूर उपहास के पाषाण पर सबके सामने पटक कर जलील कर दिया हो- ऐसे समय इन पंक्तियों का लेखक आखिर क्या सिद्ध करना चाह रहा है? कि वह विलक्षण कवि है? जी नहीं, कतई नहीं। इस ईष्यालु-षड्यंत्रकारी समय के घटाटोप से परेशान होकर किसी अहम प्रश्न को नजरअंदाज करना, क्या उसके सर्वहितकारी स्वभाव को अंतिम लक्ष्य- रसज्ञ पाठक- से दूर रखने की कुुटिल कोशिशों के समक्ष आत्मसमर्पण जैसा सिद्ध नहीं होगा?
संस्कृत में रामायण, रघुवंश, श्रीहर्षचरितम जैसे महाकाव्य इस काव्यरूप के शिखर हैं। हिंदी के आदिकालीन काव्य-मनीषियों द्वारा रचित महाकाव्यों की संकल्पना भी शास्त्रीय मानदंडों के ही अनुरूप हुई है- पृथ्वीराजरासो, आल्हखंड, पद्मावत, श्रीरामचरितमानस, रामचंद्रिका। यानी वीरगाथाकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल तक महाकाव्यकार ने विश्वनाथ कविराज, दंडी, भामह, हेमचंद्र जैसे आचार्यों द्वारा लिखित काव्यशास्त्रों- ‘काव्यानुशासनम्’, ‘ध्वन्यालोक’ आदि ग्रंथों में निदर्शित लक्षणों का अनुपालन किया, किंतु बीसवीं सदी आते-आते परिवर्तनशील समय के दबाव ने आधुनिक काल में महाकाव्य के स्वरूप में शास्त्रीय दृष्टि से विचलन पैदा किया। यही कारण था कि विराट फलक की रचनाएं होने के बावजूद ‘प्रियप्रवास’, ‘कामायनी’, ‘साकेत’ और ‘उर्वशी’ को महाकाव्य मानने में प्रारंभ में विद्वानों को कठिनाई हुई और इस संबंध में व्यापक विमर्श हुए।
‘प्रियप्रवास’ की लंबी भूमिका में हरिऔध ने महाकाव्य लिखने की अपनी आकांक्षा को सार्वजनिक करते हुए उसके पक्ष में तर्क दिए हैं। ‘उर्वशी’ को लेकर तो व्यापक बहस इतिहास का विषय बन चुकी है। मगर अंततोगत्वा इन्हें महाकाव्य माना गया तो इसलिए कि ये काव्य अपनी प्रस्तुति में भी विराटत्व लिये थे। दूसरी ओर छायावाद के शीर्ष कवि पंत के ‘लोकायतन’ ने अपनी विराटता के बावजूद दर्शन-ग्रंथ जैसा आभास दिया, जिस कारण विद्वानों ने उसकी अवहेलना की।
बीसवीं सदी में महाकाव्य और भी लिखे गए, जैसे गुरुभक्त सिंह ‘भक्त’ का ‘नूरजहां’; लेकिन पारंपरिक होने के कारण वह पाठ्यक्रमों में तो लगा, साहित्यिक महत्त्व नहीं अर्जित कर सका। केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ का ‘ऋतंवरा’ आधुनिक काल का एक और महाकाव्य है, मगर उस पर ‘कामायनी’ की छाया है। लगता था कि होड़ में लिखा गया है; इसलिए उत्कृष्ट होते हुए भी उसकी अपेक्षित चर्चा नहीं हुई। महाकाव्यकार बनने की महदाकांक्षा गोवर्धनप्रसाद ‘सदय’ (राम आख्यान) जैसे कई रचनाकारों में भी दिखी; मगर उनके प्रयास परंपरापोषित छांदिक काव्य से अधिक स्थान नहीं पा सके।
हिंदी काव्य की सुदीर्घ धारा के दौरान उंगलियों पर गिने जाने वाले महाकाव्य ही संभव होने और अब उनका लगभग अकाल पड़ जाने के कारणों का विस्तृत उल्लेख इन पंक्तियों के लेखक ने ‘अभिनव पांडव’ की लंबी भूमिका ‘बीजाक्षर’ में किया है और यह भी कि वह ‘त्रेता’, ‘अभिनव पांडव’ आदि को महाकाव्य क्यों प्रस्तावित कर रहा है। अज्ञेय ने आधुनिक काल में महाकाव्य की रचना-संभावना को नकारने के पीछे ‘काव्य-स्फूर्ति के दीर्घकाल तक न बने रहने’ को एक बड़ा कारण बताया। इन पंक्तियों के लेखक के अनुसार अन्य प्रमुख कारण हैं-कवि के लिए जीवनयापन की खातिर अन्य कार्य करने की विवशता, कठिन जीवन संघर्ष, विभिन्न शब्दानुशासनों के गहन अध्ययन में अरुचि, व्यापक भ्रमण का अभाव (फलस्वरूप देश और समाज की अपेक्षित समझ न होना), पश्ेिचम के प्रभाव में सुविधापूर्ण जीने की ललक के चलते धन का अतिशय मोह, काव्य रचना को साधना न मान कर येन केन प्रकारेण शॉर्टकट से पुरस्कार-सम्मान पाने का जरिया समझना, आदि।
अस्तु, पहले तो महाकाव्य लिखना ही मुश्किल, तथापि यदि किसी कवि-साधक ने उसे लिखने का जोखिम उठा भी लिया, तो उसका अंतिम- संभव रूप, अनिवार्य रूप से भिन्न होगा। विष्णु खरे ने ‘महाकाव्य विमर्श’ में इसीलिए लिखा- ‘‘जिस तरह दंडी, भामह और विश्वनाथ आदि के सिद्धांत भारतीय महाकाव्यों पर अपर्याप्त सिद्ध होते हैं, उसी तरह अरस्तू के नियम भी पश्चिमी महाकाव्य-परंपरा पर पूरी तरह लागू नहीं किए जा सकते’’- यह तर्क उन्होंने ‘कालेवाला’ को महाकाव्य मानने का औचित्य सिद्ध करने के लिए दिया। लेख इस महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष से समाप्त होता है कि ‘‘पश्चिम में न सिर्फ प्राचीन महाकाव्यों के अनुवाद हो रहे हैं, बल्कि आधुनिक समसामायिक महाकाव्यात्मक सृजन भी चल रहा है। भारत में हो या शेष विश्व में, महाकाव्य-परंपरा खूब जीवित है, उसके आयामों और गुणवत्ता के बारे में भले ही मतभेद हों।’’
इन संदर्भों के साथ इन पंक्तियों का लेखक सुधी विद्वतजनों से इस महत्त्वपूर्ण विषय पर वस्तुनिष्ठ, बेबाक विमर्श के आगाज का आह्वान करता है।