अशोक वाजपेयी
जनसत्ता 9 नवंबर, 2014: यह तो हम बरसों से जानते रहे हैं कि जिस एक शहर में कुमार गंधर्व की बड़ी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता रही है, वह पुणे है। पर कुमार-निधन के बाईस वर्ष बाद वे अप्रतिहत हैं और कतई धूमिल नहीं पड़ी हैं, यह प्रमाण मिला जब पिछले सप्ताहांत एक शाम एक सभागार में, उनके सिलसिले में, बारह सौ से अधिक श्रोता और दूसरी ही सुबह फिर दूसरे सभागार में चार सौ से अधिक श्रोता मौजूद थे। अवसर था, मराठी के राजहंस प्रकाशन और हिंदी के वाणी प्रकाशन द्वारा कुमार गंधर्व प्रतिष्ठान के लिए रज़ा फाउंडेशन के सहयोग से मराठी, हिंदी और अंगरेजी में प्रकाशित ‘कालजयी कुमार गंधर्व’ शीर्षक से दो ग्रंथों के लोकार्पण का। लोकार्पण किया छाया चित्रकार रघु राय ने। फिर कलापिनी कोमकली और भुवनेश कोमकली ने ‘गंधर्व स्वर’ शीर्षक से कुमारजी की बंदिशों की मनोहारी प्रस्तुति की। प्रगट हुआ कि इस अद्भुत गायक की संपदा कितनी विपुल, विविध और रोमांचकारी है।
कुमार गंधर्व ने अपने संगीत से एक ब्रह्मांड रचा और उसे संबोधित भी किया, प्रश्नाकुल और उद्विग्न भी: ऐसा ब्रह्मांड जो मधु लिमये के शब्दों को याद करें तो ‘संसार के रहस्य को छूता-सा है’। यह ब्रह्मांड निपट स्थानीयता और पास-पड़ोस के रूप-रस-गंध से रचा-बसा है। संगीत की अपनी नश्वरता की याद दिलाते हुए कुमारजी का संगीत नश्वरता की छाया में रचा गया संगीत था और है: वह समय को संबोधित तो था ही, काल भी उसका संबोध्य था। उसने पहली बार, कम से कम हमारे समय में पहली बार, शास्त्रीयता ने झुक कर लोक को नमस्कार किया, उसने पहचाना कि बहुत सारी श्रेष्ठ कविता लोकपरंपरा में अब भी जीवित और सक्रिय हैं।
अगली सुबह अमरेंद्र धनेश्वर ने कुमारजी द्वारा रची गई कई बंदिशों का विश्लेषण करते हुए बताया कि कई अछूते विषयों पर उन्होंने बंदिशें बनार्इं, जैसे कि दीपावली पर बंदिश ‘दीप की ज्योति जरे सुभग’। उदयन वाजपेयी ने कुमारजी के संगीत को आविष्कारक संगीत कहा, जिसने अपने को अनुकरण से, आवृत्ति से मुक्त किया। इस संगीत को कई बार भक्त कवियों की पुनर्व्याख्या के रूप में भी सुना जा सकता है: उसमें कविता ऐसा अर्थ अर्जित करती है, जो उसे सिर्फ कविता के रूप में उपलभ्य नहीं है। कबीर का फक्कड़पन और निर्गुण, तुलसीदास का वाग्वैभव और सगुण, सूरदास का वात्सल्य आदि इस संगीत में बहुत सघन और समृद्धिकारी ढंग से प्रकट होते हैं। वे मार्गी संगीतकार थे और उनके संगीत में व्यक्ति का उदय स्पष्ट देखा जा सकता है। उनकी शास्त्रीयता इसलिए आधुनिकता का मुकाम भी है। साथ ही, उनका घर हो सकता है, घराना नहीं।
कुमारजी के शिष्य और अध्येता सत्यशील देशपांडे ने सोदाहरण और विस्तार से यह बताया कि उन्होंने लगभग बचपन में ही उस्ताद फ़ैयाज़ खां की ऊर्जा और उस्ताद अब्दुल करीम खां की आवाज की संस्कृति को मिला कर अपनी गायकी बना ली थी। कुल मिला कर, पुणे में एक शाम और एक सुबह मंगल दिन था, क्योंकि कुमार घर आए थे: उनकी मालवती की बंदिश याद आती रही- ‘मंगल दिन आज, बना घर आयो!’
नोबेल-वंचित एक सदी
मुंबई के साहित्य समारोह ‘टाटा लिटरेचर लाइव’ में मैं उसके एक अंतिम सत्र में शामिल हुआ, जिसमें मलयालम साहित्यकार एमटी वासुदेवन नायर, अंगरेजी कवि-पत्रकार सीपी सुरेंद्रन और मैंने मिल कर इस मुद्दे पर विचार किया कि भारतीय साहित्य के किसी साहित्यकार को पिछली एक सदी में, रवींद्रनाथ ठाकुर के बाद, एक बार भी नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला। हम तीनों ही इस पर एकमत थे कि यह इस दौरान लिखे-रचे भारतीय साहित्य का कोई वस्तुनिष्ठ आकलन नहीं है। पिछली एक सदी हमारे साहित्य में उदग्र कल्पनाशीलता, निर्भीक नवाचार, परंपरा के पुनरान्वेषण, लोकतांत्रिक मूल्यों- स्वतंत्रता-समता-न्याय पर आग्रह, मानवीय स्थिति के असंख्य संकटों और विडंबनाओं की खोज-खबर लेने वाली, साहित्य में रचना और आलोचना दोनों को एक ही विधा में कई बार मिलाने वाली सदी रही है। वह एकवचन नहीं, बहुवचन साहित्य है, जो अनेक भाषाओं में लिखा गया है। उसके श्रेष्ठ को नोबेल द्वारा चुने श्रेष्ठ के समकक्ष कम से कम मैं पूरे आत्मविश्वास से रख सकता हूं। उसमें कमियां हैं, पर इस विशेष अर्थ में वह पिछड़ा या कमजोर कतई नहीं है।
नोबेल पुरस्कार, कुल मिला कर, यूरोप-केंद्रित रहा है। वह एशिया, अफ्रीका आदि महाद्वीपों में कम ही गया है। अमेरिका तक में इसकी शिकायत होती रही है कि वह वहां भी कम को ही मिला है। इसका एक कारण तो यह जरूर है कि संसार की बहुत सारी भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य का अच्छा अनुवाद सुलभ नहीं है, जो कि एक बड़ी कमी है। पर उससे अधिक महत्त्वपूर्ण नोबेल के पीछे सक्रिय यह धारणा है कि संसार भर के साहित्य को पश्चिमी साहित्य-दृष्टि से जांचा-परखा जा सकता है। पश्चिमी साहित्य-शास्त्र के जो सिद्धांत और पद्धतियां विकसित हुई हैं, उन्हें नोबेल प्रतिष्ठान सार्वभौम मान कर व्यवहार करता है, जबकि साहित्य को देखने-परखने की अन्य विधियां और प्रतिमान भी हैं और वे पश्चिमी बुद्धि और संस्कृति के आतंक में हाशिये पर नहीं चले गए हैं: वे सजीव और सक्रिय हैं, अपने क्षेत्रों में। नोबेल संसार को देखने-परखने की अन्य दृष्टियों को कम ही समझ पाता या मान्यता देता है। खुद पश्चिम में वह टाल्सटाय से लेकर ज्बीग्न्येव हेर्बेर्त, ईव बोनफुआ, अरबी आदोनिस जैसे दिग्गजों को नहीं मिला है। इसलिए उसकी प्रतिष्ठा तो असंदिग्ध है, पर उतनी ही स्पष्ट उसकी पहुंच और समझ की सीमाएं हैं। उसकी मूल दृष्टि यूरोपीय है, जिसे सार्वभौम मानने की उसकी आदत है। व्यावहारिक कठिनाइयां जो भी हों, इस विश्वपुरस्कार ने सारे विश्व का होने के लिए काफी कोशिश की है, ऐसा नहीं लगता। इसलिए अच्छे अनुवादों का न होना, विश्वव्यापी प्रतिमान विकसित करने की कठिनाइयां जरूर हैं, लेकिन यह नहीं लगता कि इस पुरस्कार ने यूरोप-केंद्रित होने के अलावा अपनी परिधि विस्तृत करने की कोई गंभीर कोशिश की है।
भारत के अलावा एशिया और अफ्रीका के अनेक देश ऐसे हैं, जिनकी भाषाओं में श्रेष्ठ, विचारोत्तेजक, निर्भीक और दुस्साहसी साहित्य लिखा गया है: उन पर दृष्टि न जा पाना नोबेल की सीमा है, इन साहित्यों का कोई गंभीर आकलन नहीं।
चर्चा में प्राय: सभी ने इसका जिक्र किया कि एक बड़ी समस्या अच्छे अनुवादों के अभाव की है: हमारे यहां अनुवाद की प्रतिष्ठा भी नहीं बन पाई है। यह भी कहा गया कि कुल मिला कर भारतीय समाज में लेखकों को भी वह सामाजिक जगह और प्रतिष्ठा नहीं मिली है, जिसके कि वे हकदार हैं।
कवि का सत्य
जिन्हें अपना सत्य पहले से ही पता हो और जो उसे व्यक्त करने भर के लिए कविता लिख रहे हों, वे अक्सर कवि, कम से कम अच्छे कवि नहीं हो सकते: कविता तो जानने-पहचानने, खोजने और पाने न पाने की विधा है। वह सच्चाई के बीहड़ तक पहुंचती है, आंगन और मैदान तक नहीं। उसमें संभव और असंभव की दूरी कम होती जाती है- यह भी कह सकते हैं कि अच्छी कविता अक्सर चलती है, पर कहीं पहुंचती नहीं है। मुकम्मल, स्पष्ट और पूर्ण होना उसकी अनिवार्य नियति नहीं है। कम से कम हमारी आज की विखंडित और टूटी-बिखरी जिंदगी में वह एक लय जरूर विन्यस्त करती है, पर ऐसे कि हम उससे कई अलग-अलग अर्थ निकाल और ग्रहण कर सकते हैं: उसका सच प्राय: बहुल होता है। बहुल और अधूरा।
बहुत प्रतीक्षा के बाद जय गोस्वामी की कविताओं के अंगरेजी अनुवाद का एक संचयन हार्पर कॉलिन्स ने प्रकाशित किया है। इस कवि को संपूर्णा चटर्जी के सुघर-संवेदनशील अनुवाद में पढ़ कर इस धारणा की पुष्टि होती है कि यह बांग्ला कवि इस समय सक्रिय भारतीय कवियों में अग्रगामी है। कविता में उसकी मानवीय वेध्यता बार-बार प्रगट होती है। इस पुस्तक में कविताओं के अलावा जय के कुछ गद्य का अनुवाद और उनसे एक लंबी बातचीत भी संकलित है।
जय कहते हैं कि उन्होंने कभी किसी कवि या कवियों के समूह के विरुद्ध कविता नहीं लिखी है। उनके पास किसी घोषणापत्र के विरुद्ध कोई घोषणापत्र नहीं है। उन्होंने अक्सर यह सोचा है कि क्या है जो वे नहीं करेंगे, पर उन्हें कभी पता नहीं होता कि कविता लिखते हुए वे क्या करेंगे। जो शक्ति उन्हें घेरती और प्रेरित करती है, वह जहां ले जाए वहां वे जाते हैं, कोई और विकल्प नहीं होता। जो उपजता है वह एक रूप है, एक आकार है और वही उनकी कविता है।
जय जीवनानंद दास की कविता के बारे में कहते हैं कि वे अपने दोनों हाथों से सच को छूते हैं, पल-पल परिवर्तित होने वाला सच और शाश्वत सच। एक कवि के रूप में वे आपको ले जाते हैं और बीच में कहीं कवि गायब हो जाता है- आपको अपने पास छोड़ कर। एक जगह जय बताते हैं कि उनका ईश्वर में विश्वास है: कई कवियों की कविताएं उनकी प्रार्थनाएं हैं।
जय को टाटा लिटरेचर लाइव में ‘पोएट लारिएट’ के रूप में विभूषित करने का सौभाग्य मुझे मिला, उनका चयन करने वाली एक अखिल भारतीय जूरी का मैं सदस्य था। वे कृशकाय हैं और अपने अस्वस्थ रहने के बावजूद आए। वे सशक्त कवि, प्रखर आलोचक होने के अलावा विनयशील व्यक्ति हैं, जिन्हें इस अलंकरण ने शायद ही प्रभावित किया हो। उनकी उपलब्धि उनके यश से कहीं अधिक भास्वर, भव्य और निष्कलंक है।
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