दुलारी सवा दो महीने बाद कल काम पर लौटी। सूख कर दुबली हो गई है। घर बंदी शुरू होने से पहले हल्की-सी गोल-मटोल थी और काफी हंसमुख भी। जब उसे घर में झाड़ू-पोंछा करने के लिए हमारी पुरानी घरेलू सहायिका लाई थी, तब उसने अम्मा के नाम से उसे पुकारा था। हमारी पत्नी भी उसे अम्मा कहने लगी। उम्र में वह कोई पचास साल के लगभग है, पर दिखने में साठ साल की लगती है। वक्त ने उसे वक्त से पहले ही ढाल दिया है। अम्मा आते ही दिल लगा कर काम में जुट गई थी, पर एक-दो दिन बाद जब उसने हमको पहचाना तो ‘बहू जी’ से बोली कि आप हमें अम्मा मत कहा करिए, क्योंकि साहब के सफेद बालों से हम जान गए हैं कि आप दोनों हमसे बड़े हैं। आप जब हमें अम्मा कहती हैं तो हमें शर्म आती है। हमें आप नाम लेकर ही बुलाया करिए। ‘बहू जी’ मान तो गईं, पर हम दोनों उसको दुलारी कहने में कुछ हिचक जाते हैं। ‘अरे सुनो…’ के संबोधन से काम चल रहा है।

फिर दुलारी ने घर में आते ही बहू जी को अपना मास्क दिखाया और बताया कि डरने के कोई बात नहीं है। वह सारा काम मुंह पर फेंटा बांध कर करेगी। उसने यह भी हिदायत दी कि हाथ साफ करने वाली दवा की एक बोतल दरवाजे के बाहर भी रख दी जाए, जिससे वह अंदर आने से पहले हाथ अच्छी तरह से साफ कर सके। हम पैरों पर भी लगा लेंगे, नहा कर तो आते ही हैं, पर अगर आप कहेंगी तो काम शुरू करने से पहले आपके घर में नहा भी लेंगे। और हां, जितनी देर हम घर में रहेंगे, दूर से ही बात करिएगा और वह भी फेंटा बांध कर। बहू जी ने हंस कर कहा था कि तुम तो ‘कोरोना एक्सपर्ट’ हो गई हो!

पढ़े-लिखे ज्यादा नहीं हैं, पर नासमझ भी नहीं हैं बहू जी। काम करना है तो समझदारी भी बरतनी है। उसने झाड़ू उठाते हुए कहा था।
काम खत्म होने पर मैंने उससे पूछा- तुम इतनी दुबली हो गई हो। क्या तुम्हारी तबियत खराब थी?
उसने कहा- नहीं साहब।

मैंने फिर पूछा कि तो फिर ये तुम्हें क्या हो गया?
जवाब में उसने बताया- जब भूखे रहेंगे तो कुछ वजन कम होगा ही साहब।
मैंने हैरानी से पूछा- क्या मतलब?

उसने कहा- जब कोई कमाई नहीं और हम अकेली जान, तो खाना कौन खिलाएगा?
तुम अकेली रहती हो? और अगर खाने की इतनी दिक्कत बढ़ गई थी तो हमको फोन कर देती!
फोन कहां है मेरे पास! सब बंद भी तो था! कैसे आती? पुलिस लाठी भी तो भांज रही थी!
तो फिर कैसे किया?

हमारी झोपड़पट्टी में जब किसी के पास कुछ बच जाता था तो हमें दे देता था। पर नागा तो करना ही पड़ता था, क्योंकि आदमी पहले अपने घर में दो रोटी डालेगा और अगर कुछ बचेगा, तभी पड़ोसी को देगा। पर भला हो उनका, जिन्होंने हमें भूख से मरने नहीं दिया। मिल-बांट कर खाया।

कोई सरकारी या गैर-सरकारी आदमी नहीं आया मदद करने?
एक खोखली हंसी उसके कंठ से अनायास ही फूट पड़ी- सरकारी? उसने मुंह बनाया और फिर ताना कसा- आपने सुना नहीं है कि सरकार ने क्या कहा है कुछ दिन पहले? आत्मनिर्भर बनो। अरे, जब सब कुछ लुट गया, शरीर टूट गया तो क्या खाक आत्मनिर्भर बनेंगे। निचोड़ लिया है और अब सूखने के लिए फैला रही है सरकार। हम पोंछा बन गए है। उसने दुखी मन से कहा और उठ कर पोंछा बाहर फैला आई।

कुछ देर मैं सन्न बैठा रहा। वह बाल्टी उठाने के लिए कमरे में आई।
दुलारी, तुम कहां की रहने वाली हो? शहर कब आई?
गोरखपुर जिले के हैं। पिछले साल आए थे।
क्यों? गांव में कौन है तुम्हारा?

वह फर्श पर धम्म से बैठ गई। सब थे। अब कोई नहीं है। वे (पति) तीन साल पहले मर गए। मच्छर वाली बीमारी लग गई थी। दो लड़के थे, वे बॉम्बे चले गए काम की तलाश में। पता नहीं कहा हैं!
पर गांव में रिश्तेदारी होगी, तुम्हारा घर?

हम ‘छोटी जात’ है। हमारे गांव में ‘बड़ी जात’ ज्यादा है। लतियाते रहते हैं ‘छोटी जात’ वालों को। कोई सुनवाई नहीं है। नर्क है। लड़के भी इसी वजह से भाग गए। शहर में जब जात बताओगे तभी कोई जानेगा न? गांव में सब जानते है। जानवर को एक बार माफ कर देंगे, पर हमको नहीं। हम जिस जात से हैं, मान लिया जाता है कि हम सबकी लात के नीचे रहने के लिए ही हैं!
उसके मुंह से अपनी जाति का नाम निकल गया था और उसने तुरंत अपनी जीभ काटी। फिर उसने मेरी तरफ कातर आखों से देखा। डर गई थी।

वह चुप हो गई। मैं उसकी आपबीती सुन कर अवाक् था। उसने मेरी चुप्पी को टटोला। उठते हुए धीरे से पूछा- कल आना है?
हां, बिल्कुल आना है। – मैंने अपने को संभालते हुए फौरन जवाब दिया।
आप जात नहीं मानते हैं?

हम तुमको मानते हैं। हमारे लिए इतना ही काफी है।
साहब, जात और गरीबी के दो फांट के बीच में हम पिस रहे हैं। अब आप पर निर्भर हैं। हमारा बेड़ा पार करा दो। अपनी ओट में रख लो। समाज और सरकार से तो हम हार चुके हैं, अब हमारा जो भी वक्त बचा है, उसको किसी तरह कटवा दो। बहुत नर्क भोग लिया है।