बहुत साल पहले एक कविता पढ़ी थी- कभी कभी दिल में खयाल आता है/ बहारों के साए से निकल कर/ खिजां के दौरों में कदम रखे/ बेफिक्र खड़े देखे/ शाखों से बिछड़ना पत्तों का/ और गिरना बिखरना पत्तों का… बड़ा ही उम्दा खयाल था। कविता सुना-सुना कर हम तमाम महफिलों में झोली भर टीआरपी बटोरते थे। बहारों की छांव में रह कर खिजां की तमन्ना करना अल्हड़ हौसलों की बुलंदी थी। न आज का खयाल था, न कल की परवाह। बस, एक मौज थी, जिसमें हर वह चीज सिर चढ़ के बोलती थी, जो आम दस्तूर से अलहदा हो। हम और हमारे दोस्तों को यकीन था कि आज तक जो होता आया है वह गलत था, भ्रष्ट था, बेमानी था। हमारा अटूट विश्वास था कि सर्वहारा क्रांति ही एकमात्र विकल्प है, जिससे समाज और उसकी व्यवस्था का सर्वोत्तम हित हो पाएगा। और उसके लिए पतझड़ जरूरी है। विश्वास से भला कौन बहस कर सकता है?
संपूर्ण क्रांति आई और चली गई। साए में भी धूप लगने लगी, दीवारें पर्दे की तरह हिलती रहीं और लोग पेट और पीठ के दोहरा होने को सजदे की संज्ञा देते रहे। फूल खिले भी गुलशन गुलशन, पर अपना अपना दामन। कुछ सब समेट ले गए, तो बाकी अपने तार-तार दामन को ही सूनी आंखों से देखते रह गए। संपूर्ण क्रांति के पूत, कपूत बन कर खिलखिला उठे। ये क्रांति पुत्र परिंदे अब भी पर तोले हुए हैं/ हवा में सनसनी घोले हुए हैं। आमूलचूल परिवर्तन लाना हर दीवाने का ख्वाब होता है। कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। शेखचिल्ली इन्हीं दीवानों में उतना ही शुमार है जितना गालिब। महात्मा गांधी भी इसमें उतने ही शामिल हैं, जितना अपना पड़ोसी पप्पू। रोशन खयाली और खाम खयाली दोनों भी दीवानों की सल्तनत हैं। पर एक दीवाने और दूसरे में फर्क तब आता है जब राहे-शौक में महज एक कदम गलत उठ जाता है। मंजिल फिर तमाम उम्र उसे तलाशती रहती है।
खिजां का तसव्वुर निहायत रूमानी तसव्वुर है। बहार में तो हर शोख कली फूल बन कर खिल जाती है, पर खिजां के गुलफाम कम ही दिखते हैं। एकाध हैं, जो घनघोर घटा होने के बावजूद एलान करने से नहीं चूकते कि ‘मैं अपने समय का सूर्य हूं प्रिय।’ कुछ तो ऐसे हैं कि चमन उजाड़ देते हैं, क्योंकि उनको खिजां का दौर चाहिए ही चाहिए। वहीं से उनका फलसफा शुरू होता है- पौधे झुलस गए हैं, मगर एक बात है/ मेरी नजर में अब भी चमन है हरा हरा। यही असल मेंखिजां के गुलफाम हैं। खैर, दीवानगी ही ऐसा केमिकल लोचा है, जो कहता है आओ कि ख्वाब बुनें कल के वास्ते। (नोट करें: दीवाने आज की बात नहीं करते- सब कुछ कल के वास्ते ही होता है।) क्योंकि ये ख्वाब ही तो अपने अमल की असास (नींव) थे। बात सच है, नींव जितनी गहरी होगी, जितनी पुख्ता होगी, उस पर उतनी ही शानदार ईमारत खड़ी की जा सकती है। वास्तव में, ख्वाब सिर्फ नींव डालते हैं, पर उससे आगे का काम अमल का जूनून कराता है। अमल के लिए अक्ल जरूरी है। अक्ल ही बताती है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता या फिर दरख्तों से पत्ते नोच लेने से बदलाव का रोमांस पतझड़ की हकीकत में तब्दील नहीं हो जाता है।
कुछ नया करना जरूरी है। जिंदगी और इतिहास इसी की खुराक पर सफर करते हैं। नया दिन, नया साल या नई उम्मीद अमूमन हममें फिर से जोश भर देती है। लगता है कि हम जिंदा हैं, क्योंकि नयापन ही सामान्य की शीतलता में भुरभुरी पैदा करता है। नए अहसास की ललक हमको प्रेरित करती है और कभी-कभी कुछ कर गुजरने के लिए मजबूर भी कर जाती है। नएपन की तलाश आदमी की सबसे पुरानी तलाश है- एक न खत्म होने वाला सिलसिला, जिसकी बिना पर ही हमारा वजूद टिका है।
पर क्या कोई एक ख्वाब बाकी सब अनगिनत ख्वाबों को अपने में समेट सकता है? खुद मुख्तारी हर आदमी चाहता है। लोकतंत्र का होना सबूत है कि इस बड़े ख्वाब में सब समा सकते हैं। इसी तरह कई तरीके की सामाजिक व्यवस्थाएं हैं, जो हमारे सपनों की वास्तविक संरचनाएं हैं। इनकी वजह से ही हम निश्चिंत हैं, बहुत हद तक खुशहाल हैं।
पर हर एक ख्वाब जरूरी होता है। कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता, न ही वह और ख्वाबों का अतर्क होता है। हर ख्वाब को अपनी तरह से पनपने की पूरी आजादी होनी चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई एक बड़ा ख्वाब अपनी ऐसी मनमानी करे कि बाकी सब उसके आगे जन्म ही न ले सकें। दूसरे शब्दो में, किसी एक ख्वाब का हौवा दिखा कर बाकी सबको डराया या धमकाया जा सके। ख्वाबों से ही सोच बनती है और सोच से व्यक्ति। व्यक्ति का अपना अहं होता है और इसी अहं की वजह से दूसरों के सपने हमें बुरे लगने लगते हैं।
किसी भी देश या काल में तरक्की तभी हो सकती है जब उसके पास सिर्फ एक कोहेनूरी ख्वाब ही न हो, जिसको दिखा-दिखा कर लोगों को चकाचौंध किया जाए, बल्कि ख्वाबों का जखीरा हो, जिसमें से चुन-चुन कर जरूरत के मुताबिक हीरे गढ़े जा सकें। ऐसा होना बेहद जरूरी है, क्योंकि हर मर्ज का एक ही नुक्स नहीं हो सकता है। हर अच्छा जौहरी यह जानता है कि कौन-सा नग कहां बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। वह थोपता नहीं, गढ़ता है और इसलिए हर तरह का सामान संजोए रखता है।
नया कलेंडरी साल नई उम्मीद लेकर आया है। सच यह भी है कि जरूरी नहीं, कलेंडर के साथ वक्त भी बदले। वह तो अपने हिसाब से चलता है, हमारी मनचाही गणना का मोहताज नहीं है। पर रिवाज के चलते नए साल की शुरुआत कुछ जोश जरूर दे जाती है। शायद उस तरह का जोश जो हमें फिर से वह सुबह कभी तो आएगी के भाव से पुन: प्रेरित करता है, एक नया सपना दिखता है। हमें जीवित करता है।
वास्तव में, पुलिस की मार हो या काला बाजार हो, खतरनाक नहीं होते। सबसे खतरनाक होता है/ मुर्दा शांति से भर जाना/ न होना तड़प का, सब सहन कर जाना… सबसे खतरनाक होता है/ हमारे सपनों का मर जाना।
