मरने के लिए यह समय बहुत अच्छा है।’ उसने चौंक कर मेरी तरफ देखा। ‘आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?’ हम लोग पार्क की एक बेंच पर बैठे हुए थे। सुबह बहुत पहले हो चुकी थी, पर सूरज झक सफेद बदलों की झीनी चादर ओढ़े अभी अलसाया-सा दूर क्षितिज पर गुड़मुड़ी मारे बैठा था। वह शायद सामने फैली धरती को निहार रहा था। एक लंबे अर्से के बाद ऐसे दिन आए थे, जब उसे धुएं और धूल की परत को कुरेद कर नीचे झांकने के लिए मोंगला नहीं बनाना पड़ रहा था। उसकी आंख में पड़ी किरकिरी भी साफ हो गई थी। एक अल्हड़ बौछार ने उसको अपनी निरा नीर से धो दिया था।

‘देखो, सब कुछ कितना अच्छा लग रहा है।’ मैंने हाथ से अर्ध वक्र खींचते हुए कहा, ‘याद है, जब हम यहां आया करते थे, तो पेड़ों और पौधों पर धूल लदी होती थी। उनको छूने से हम हिचकिचाते थे। और जब फूल निकलते थे तो वे भी मटमैले होते थे। उनकी खुशबू में ताजगी नहीं होती थी। कुछ सीलन जैसी बू उसमें मिली होती थी। पर आज देखो, फूल, पत्ते, पेड़, तितलियां और पक्षी कैसे दमक रहे हैं। साफ हवा से कैसे लिपट रहे हैं! खुशबुएं कैसी महक रही हैं! ऐसा लगता है जैसे अचानक सब नया बन गया है। नए का सोंधापन पोर-पोर से फूट रहा है।’

‘अरे, आप तो कवि हो गए!’ उसने चुटकी ली थी।
‘और सुनो, कितना शांत है सब कुछ। न गाड़ियों की चिल्ल-पों और न तीखी जुबानों का शोर। कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही है। सब चुप हैं। डर ने उन्हें खामोश कर दिया है। जो अहंकार में मदमस्त कोमल घास को बूटों तले रौंदा करते थे और अपनी जरूतों की हवस पूरा करने के लिए शोर से शिकार किया करते थे, वे आज अपने बिलों में चुपचाप मुंह ढापे पड़े हैं।’

वह हंसी। ‘आपने तो लोगों को खलनायक बना दिया है।’
‘जब नायक खलल डालने पर उतारू हो जाए तो उसे और क्या कहा जाएगा? पर जो भी हो, जिस दिन को देखने की लालसा में मैंने एक उम्र गुजर दी थी, वह दिन वास्तव में आ ही गया है। न जाने कब से मैं इस आपाधापी, शोर, भीड़, हवा की कलौसी, गौरैया के मुटाव, कोयल की रुंधी हुई कुहू कुहू और बाजरे-सी बजती अपनी धुन से दूर अमन-चैन की हसरत रखता था। पके गेहूं की बालियों की सरसराहट सुनना चाहता था। दूर से तैरते हुए पपीहे के बोल एक क्षण के लिए अपनी चेतना से सहला कर सिहर जाना चाहता था।…’ मैंने कहते-कहते उसकी तरफ नजर डाली। वह ध्यान से मेरी बात सुन रही थी।

‘आज वह सब मिल गया है। आसमान साफ है, फिजाएं साफगोशी से खिल रही हैं, चांद एकदम पास है और प्रकृति फिर गुनगुना रही है। यही एकात्मकता तो चाहिए थी। पावन घड़ी आ गई है- जोग लगन गृह बार तिथि सकल भए अनुकूल… सीतल मंद सुरभि बह बाऊ, हर चित सुर संतन मन चाऊ, बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा, स्रवहिं सकल सरितामृतधारा।… मध्यदिवस अति सीत न घामा, पावन काल लोक विश्रामा।’

‘अरे रुकिए।’ उसने जल्दी से टोका, ‘ये तो रामचरितमानस की पंक्तिया हैं। श्रीराम जन्म का वर्णन है।’
‘हां, तुलसीदास ने क्या अद्भुत वर्णन किया है। सब अनुकूल हो गया था, बन फूलों से लदे हुए थे, निर्मल सरिता झर झर बह रही थी, चारों तरफ हर्ष व्याप्त था, लोक विश्राम की स्थिति में था, यानी पावन काल था, जब प्रभु प्रकट हुए थे।’

‘और आप यह सब कह कर मरने की बात कर रहे हैं? ऐसे में तो जीने की बात करनी चाहिए।’
‘हां, मैंने पंक्तियों का संदर्भ जरूर बदल दिया है, पर भाव वही है। मौत अमूमन प्रतिकूल परिस्थियों में ही आती है। हम मौत की कामना भी तभी करते हैं जब कुछ अनुकूल होने की संभावना खत्म हो चुकी होती है। यानी अनुकूल को भोगने की पिपासा हमको प्रतिकूल की तरफ लगातार धकेलती रहती है और अंतत: हम नष्ट हो जाते हैं। पर मैं अनुकूल को भोगना नहीं चाहता हूं। बल्कि उसमें लीन हो जाना चाहता हूं। देखो, यह एक अनूठा क्षण है, क्यों न इसमें विसर्जित हो जाया जाए?’
वह कुछ देर सोचती रही। फिर तपाक से बोली, ‘आप संक्रमण से डर गए हैं। अदृश्य कीटाणु आपके मन में पैठ गया है। आप भयभीत हैं। अपने डर को रूमानी जामा पहना, उसको ढांक रहे हैं।’

मैंने उसके चेहरे पर फड़फड़ा रही लट को कान के पीछे सहेज दिया। वह सकुचा गई।
‘तुम ठीक कह रही हो। मैं अ-प्रकृति से भयभीत हूं। पहले भी था, पर आज कुछ ज्यादा हूं, क्योंकि मैंने प्राकृतिक एकात्मकता का अनुभव पहली बार किया है। उसके पथ्य को पहचाना है, उसको ग्रहण किया है। कोरोना संक्रमण अप्रकृति है, पर उसका नतीजा प्रकृति है। कल नहीं तो परसों इस मौत का खतरा टल जाएगा, हमें लगेगा सब ठीक हो गया है। पर वास्तव में अप्रकृति और भीषण हो जाएगी। मैं अप्रकृति में क्यों लौटूं?’

‘ऐसे तो दुनिया खत्म हो जाएगी। अगर हम आपके मुताबिक चलें तो माहौल सभी के सिधार जाने लिए माकूल है।’ उसने हंसते हुए कहा।
मैं भी हंस दिया। ‘नहीं, ऐसा नहीं होगा। हर आदमी अपनी तरह से सोचता है। बहुतों की प्रकृति ही अप्रकृति बन गई है। वे विषैले हो गए हैं। उनकी सांस प्रदूषित वातावरण में ही ठीक तरह से चलती है। आपाधापी के बिना वे छटपटा रहे हैं। इसके आलावा बहुत से ऐसे भी लोग हैं, जो अपने को मौत से बचाए रखना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। वे हर हाल में जीते रहना चाहते हैं- तब तक जीते रहना चाहते हैं जब तक मौत बलात दबिश देकर उन्हें उठा न ले जाए। दुनिया चलेगी। न चलने का कोई भय नहीं है।’

‘तो आप भी चलिए साथ। छूट क्यों जाना चाहते हैं?’
‘क्योंकि मर मर के बहुत जी लिए। कोलाहल से हट कर मरने के लिए यह समय उपयुक्त है। सब साफ दिख रहा है, उसे फिर से धूमिल क्यों हो जाने दूं? इस अमृतधारा में विलीन हो जाने के लिए मैं उत्साहित हूं।’
वह मुझे गौर से देखने लगी। कुछ उदास भी हो गई थी।
मैंने उसकी झुकी हुई ठोड़ी को दो उंगलियों से उठाया। हमारी आखें मिल गर्इं।

‘क्या मैं तुम्हे नाम से फिर एक बार पुकार सकता हूं?’
‘हां, पुकारिए।’
‘जिंदगी।’ मैंने नजदीक जाकर बुलाया।
उसकी आंखों से दो मोती ढुलक पड़े।