भारत बंद के दिन पिछले हफ्ते नजर आए इतने सारे पुराने बुजुर्ग समाजवादी राजनेता टीवी पर कि ऐसा लगा जैसे कोई बहुत पुरानी फिल्म अचानक लग गई हो। इन समाजवादी राजनेताओं ने स्पष्ट किया कि भारत बंद इसलिए हो रहा है, क्योंकि नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियां गरीब-विरोधी हैं, मजदूर-विरोधी हैं। भारत बंद पूरी तरह सफल तो नहीं रहा, लेकिन कांग्रेस और कम्युनिस्ट मजदूर संगठनों ने इस बंद का साथ दिया, सो कुछ आम सेवाएं बंद रहीं। दुआ कीजिए कि इसको देख कर प्रधानमंत्री आर्थिक सुधारों की रफ्तार और कम न कर डालें। वैसे भी सुधारों की गाड़ी इतनी धीरे चली है पिछले दो वर्षों में कि जमीनी तौर पर इनका असर नहीं हुआ है अभी तक। आर्थिक विचारों की इस लड़ाई में जीत हासिल करना चाहते हैं मोदी, तो उनको तेजी से ऐसे सुधार लाने होंगे अर्थव्यवस्था में, जिनसे साबित हो जाए कि समाजवादी आर्थिक विचारों के कारण ही भारत आज भी गरीब देशों में गिना जाता है।

मजे की बात है कि जिन वृद्ध समाजवादियों ने टीवी पर अपने चेहरे दिखाए पिछले हफ्ते, उन सबने मोदी पर आरोप लगाए कि उन्होंने मजदूर-विरोधी कानून पारित किए हैं और सरकारी कारखानों को बेचने का काम किया है। सच तो यह है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है अभी तक, बावजूद इसके कि जब आसान हो जाएगा मजदूरों को बर्खास्त करना तब रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, कम नहीं होंगे। हकीकत यह भी है कि भारत सरकार अगर घाटे में डूब रही सरकारी कंपनियों को बेचती है, तो जनता का पैसा उन चीजों में निवेश हो सकेगा, जिनकी जनता को गंभीर जरूरत है।

रोज अखबारों की सुर्खियों में रहती है ऐसी कोई खबर, जो बनती है देश की रद्दी आम सेवाओं के कारण। रोज कोई ऐसी तस्वीर छपती है, जो देश को शर्मिंदा करती है। इन तस्वीरों में से सबसे दुखद तस्वीर थी कालाहांडी के दाना मांझी की, जो अपनी मृत पत्नी को गठरी में लपेट कर कंधे पर पैदल लेकर जा रहा था अपने गांव। उसके साथ में रोती हुई चल रही थी उसकी बारह साल की बेटी। जिस सरकारी अस्पताल में उसकी बीवी की मौत हुई थी, वहां के अधकारियों से मांझी ने उसको घर ले जाने के लिए मदद मांगी, लेकिन कोई मदद उपलब्ध नहीं कराई गई और मांझी के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह खुद इंतजाम कर सके। सो बारह किलोमीटर पैदल ही चला, फिर जाकर कुछ पत्रकारों ने उसका हाल देख कर उसकी सहायता की। उसकी तस्वीर दुनिया भर के मीडिया में दिखाई गई और इसको देख कर बहरीन के एक रईस ने उसको ढेर सारे पैसे भेजे तरस खाकर, लेकिन बदनाम हुआ भारत।

इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने अपने पहले पन्ने पर विश्लेषण किया उन दर्जन से ज्यादा योजनाओं का, जिनकी मदद मिलनी चाहिए थी इस गरीब किसान को, जिसकी मासिक आमदनी पंद्रह सौ रुपए से कम है। ऐसी गरीबी हटाओ योजनाएं केंद्र सरकार की तरफ से भी बनी हैं और राज्य सरकार की तरफ से भी, लेकिन अक्सर ये नाकाम रही हैं, क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर तैयार की जाती हैं ये योजनाएं कि भ्रष्टाचार के कई दरवाजे खुल जाते हैं। इतना पैसा रिस जाता है कि मांझी जैसे जरूरतमंद लोगों तक पहुंचता ही नहीं है। मोदी जब प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने लोकसभा में मनरेगा के खिलाफ भाषण दिया था, लेकिन पता नहीं क्यों उन्होंने इस योजना में निवेश बढ़ाने का काम किया इसके बाद।

मैं जब भी देहातों में घूमती हूं, अक्सर पूछती हूं इस योजना के बारे में और मालूम होता है कि इसका असली लाभ उन्हीं को हुआ है जिनको इसकी जरूरत नहीं। गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों तक ज्यादातर कोई लाभ नहीं पहुंचता है। जिन समाजवादी राजनेताओं के चेहरे हमने देखे पिछले हफ्ते वे अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसी योजनाएं कितनी नाकाम रही हैं, लेकिन इनके खिलाफ कभी आवाज नहीं उठाते हैं, क्योंकि इस तरह की गरीबी हटाओ योजनाएं उनकी समाजवादी विचारधारा की देन हैं।

ये समाजवादी राजनेता काफी पुराने लोग हैं, सो इन्होंने अपनी आंखों से देखा है कि किस तरह सोवियत संघ टूट कर बिखर गया उन आर्थिक नीतियों के कारण, जिनका ये समर्थन आज भी करते हैं। इन्होंने देखा है वह दौर, जिसमें पूर्वी यूरोप के समाजवादी देश अपनी आर्थिक नीतियों को कूड़ेदान में फेंक कर आर्थिक दिशा पूरी तरह बदल दिए थे। चीन को बदलते देखा है इन्होंने और पश्चिम बंगाल को गरीबी से जूझते देखा है, तीस साल लंबे कम्युनिस्ट राज के बावजूद। इन चीजों के बारे में ये कभी सार्वजनिक तौर पर बात नहीं करते हैं।

प्रधानमंत्री अगर डट कर आर्थिक सुधारों का एक नया दौर शुरू करते हैं, तो बहुत जल्दी साबित कर सकेंगे के आर्थिक विचारों की इस लड़ाई में कौन सही है कौन गलत। अफसोस की बात ये है कि अभी तक मोदी ने खुल कर इस देश के आम लोगों को समझाया नहीं है कभी कि आर्थिक सुधार क्यों जरूरी हो गए हैं भारत की प्रगति के लिए। पहले कहा करते थे बहुत बार कि सरकार को बिजनेस नहीं करना चाहिए, लेकिन बहुत दिनों से उन्होंने यह बात नहीं कही है और न ही उन्होंने कभी ‘मन की बात’ में समझाया है अपने श्रोताओं को कि भारत की आर्थिक नीतियों की वजह से ही मांझी जैसे लोग आज भी गरीबी रेखा के नीचे अपना तमाम जीवन व्यतीत करते हैं। बहुत कोशिश की है प्रधानमंत्री ने भारत की छवि को चमकाने की पिछले दो वर्षों में लेकिन इन सारी कोशिशों पर दाना मांझी की एक तस्वीर ने पानी फेर दिया है।