दर्शनी प्रिय।

देश के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान में महिला श्रमिकों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। देश के असंगठित क्षेत्र में करीब बयालीस करोड़ श्रमिक काम करते हैं, जिनमें महिलाओं की भागीदारी एक तिहाई से ज्यादा है। मतलब साफ है कि देश की पचास करोड़ महिलाओं में से लगभग तेरह करोड़ श्रमिक की भूमिका में देश के आर्थिक विकास की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष रूप से अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। दायित्व के सीमित दायरे से बाहर निकल कर वे तरक्की का एक नया संसार रच रही हैं। उद्यमिता और तकनीकी कुशलता में भी उन्होंने सफलता के कई झंडे गाड़े हैं।

अपनी परंपरागत घरेलू कामकाजी छवि को तेजी से बदल कर महिलाएं आज किसी परिचय की मोहताज नहीं और न ही आर्थिक स्वावलंबन के मामले में किसी से पीछे हैं। सर्वोच्च कंपनियों से लेकर खेती-किसानी में भी वे अपने दम-खम का लोहा मनवा रही हैं। श्रमिक की गैर-परंपरागत भूमिका में वे जिस तरह उपलब्धियां अर्जित कर रही हैं वह प्रत्यक्ष है। कृषि क्षेत्र से लेकर अंसगठित क्षेत्रों में महिला श्रमिकों के अभूतपूर्व योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा

सकता। यह आधी आबादी की सफल और सतत उद्यमशीलता का ही परिणाम है कि सकल घरेलू उत्पाद नई उचांइयां छू रहा है और अर्थ का लगातार विस्तार हो रहा है। हाल के दिनों में महंगाई ने तेजी से नीचे का रुख किया है, निश्चित तौर पर इसमें महिला उद्यमियों और श्रमिकों की कार्य उत्पादकता का प्रत्यक्ष योगदान शामिल है। आधी आबादी के मजबूत और सधे हाथों ने देश के कृषि, खाद्यान्न, सेवा क्षेत्र, संगठित और असंगठित, उत्पादन और विनिमियन आदि को सुघड़ और संतुलित आर्थिक आधार दिया है।

रजिस्ट्रार जनरल आॅफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1991 में जहां महिलाओं की श्रम भागीदारी 19.67 प्रतिशत थी, वहीं साल 2018 में यह बढ़ कर 30.63 प्रतिशत हो गई। विभिन्न राज्यों के लिए रोजगार/ बेरोजगारी और जनसंख्या फैलाव पर एनएसएस के इकसठवें सर्वे के आधार पर सन 2004-05 के दौरान देश में कुल श्रम-शक्ति का अनुमान 4.557 करोड़ लगाया गया था, यानी उन समय महिला श्रमिकों की संख्या 14.689 करोड़ या कुल श्रमिकों का 32.2 प्रतिशत थी। इन महिला श्रमिकों में लगभग 10.689 करोड़ या 72.8 प्रतिशत महिलाएं कृषि कार्य करती थीं। जबकि उद्योग-धंधों में पुरुष श्रमिकों की भागीदारी केवल 48.8 प्रतिशत थी। ग्रामीण श्रम-शक्ति में उद्योग की कुल भागीदारी लगभग 56.6 प्रतिशत थी। सूचना-सेवा, बैंक और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में महिलाओं की भारी उपस्थिति को देखते हुए अकसर उनकी सफल उद्यमिता का एहसास होता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे रोजगार के क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ रही हैं और गैर-बराबरी जैसा मुद्दा कहीं मौजूद ही नहीं है। मगर स्थिति बिल्कुल इसके उलट है, क्योंकि यह तस्वीर का एक पहलू है, जो कुछ प्रतिशत के दायरे में सिमटा हुआ है।

सच तो यह है कि कामगार महिलाओं की पहचान हमेशा चुनौतीपूर्ण रही है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुरुष प्रधान श्रम-बाजार में उनको निरंतर लैंगिक पूर्वाग्रह, लैंगिक भेदभाव तथा यौन-उत्पीड़न जैसी अनेक समस्याओं का हर स्तर पर और हर क्षेत्र में सामना करना पड़ रहा है। मेहनतकश वे हाथ, जो श्रम की मिट्टी से हमारे लिए अन्न पैदा कर रहे हैं, आज भेदभाव और दोयम दर्जे के व्यवहार से पीड़ित हैं। उनकी इस पीड़ा का दंश सिर्फ खेती या मजदूरी तक सीमित नहीं, बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों, बैंकों, सार्वजनिक क्षेत्रों, स्कूलों, कॉलेजों, मनोरंजन, उद्योगों और व्यवसाय से लेकर खेल, मीडिया और मनोरंजन जगत तक फैला है। मेहनतकश हाथों के साथ शोषण, छेड़छाड़, भेदभाव और अपमान का यह सिलसिला मीलों लंबा फैला है। इसकी टीस

असहनीय और अविश्वसनीय है।
शहरों में लगभग अस्सी प्रतिशत महलाएं अंसगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, वहीं ग्रामीण भारत में इसका प्रतिशत 56 है। वर्ष 2012-2013, 2013-14 और 2015-16 में श्रम ब्यूरो द्वारा किए गए वार्षिक रोजगार-बेरोजगारी के अंतिम तीन दौर के सर्वेक्षण के अनुसार पंद्रह वर्ष और उससे ऊपर की आयु की महिलाओं के लिए श्रमिक जनसंख्या अनुपात क्रमश: 25.0, 29.6, 25.8 प्रतिशत रहा। एनएसएसओ द्वारा हाल में किए गए श्रम बल सर्वेक्षण के परिणामों के अनुसार महिला कर्मी जनसंख्या अनुपात क्रमश: 26.6 और 23.7 प्रतिशत है।

कार्यस्थल पर भेदभाव
रेलू महिला कामगारों और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के साथ हिंसा और यौन शोषण के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 में महिला श्रमिक को श्रमिक ही नहीं माना गया था, जबकि असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की संख्या पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। अगर संगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की स्थिति का विश्लेषण करें, तो वहां पर सामाजिक सुरक्षा के कुछ कानून तो बने हुए हैं, लेकिन कानून को लागू करने वाली मशीनरी की प्रक्रिया ही कुछ ऐसी है कि महिलाओं को उनका हक और न्याय नहीं मिल पाता है। बहुत से हिंसा और यौन शोषण के मामलों में इसलिए न्याय नहीं मिल पाता कि जो संस्थाएं इन मामलों की जांच के लिए बनाई जाती हैं, उनकी कार्यप्रणाली बहुत ही मंद है। ज्यादातर महिला कामगारों को पुरुष कामगारों के मुकाबले वेतन या मजदूरी कम दिया जाता है और उनके श्रम को कम आंका जाता है।

सुरक्षा है लचर, असुविधाएं असीमित
असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को आमतौर पर प्रसूति के बाद कोई छुट्टी नहीं मिलती। उन्हें न्यूनतम वेतन नहीं मिलता, न ही रोजगार की सुरक्षा। वस्त्र उद्योग में महिलाओं को कंपलसरी (जबर्दस्ती) ओवरटाइम करना पड़ता है और जरूरत के वक्त उन्हें छुट्टी भी नहीं मिलती। काम की जगह पर महिलाओं का प्रतिदिन उत्पीड़न होता है, पर अधिकतर महिलाओं नौकरी खोने के डर से आवाज नहीं उठा पाती और उत्पीड़न को खामोशी से झेलने को मजबूर हैं। आदिवासी महिला श्रमिकों की स्थिति तो इस मामले में सबसे बदतर है। उधर घरेलू काम और सफाई के काम से रोजगार कमाने वाली महिलाओं के हकों के लिए लड़ने वाला कोई संगठन नहीं है। गांवों से नाबालिक लड़कियों को रोजगार का लालच दिखा कर शहरों में लाया जाता है, जहां न तो उनकी सुरक्षा की कोई गांरटी होती है और न ही न्यूनतम वेतन का भरोसा।

मजदूरी में है भेदभाव
एक सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ है कि देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को काफी कम मजदूरी दी जाती है। पंद्रह से उनसठ की आयु वर्ग के श्रमिकों में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्र में महिलाओं और पुरुषों की मजदूरी में काफी अंतर देखने को मिला है। राष्ट्रीय सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में जहां पुरुष श्रमिकों की औसत दैनिक मजदूरी 175.30 रुपए थी, वहीं महिलाओं की औसत दैनिक मजदूरी सिर्फ 108.14 रुपए थी। इसी तरह शहरी क्षेत्रों में पुरुष श्रमिकों की औसत दैनिक मजदूरी 276.04 रुपए और महिलाओं की 212.86 रुपए थी। ग्रामीण क्षेत्रों में अस्थायी पुरुष श्रमिकों की दैनिक मजदूरी (मनरेगा को छोड़ कर) 76.02 रुपए थी।

अहम प्रयास
सरकार ने महिला रोजगार बढ़ाने सहित रोजगार में वृद्धि करने संबंधी अनेक कदम उठाए हैं। इनमें निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना, निवेश वाली विभिन्न परियोजनाओं में तेजी लाना, सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यम मंत्रालय द्वारा चलाए जा रहे रोजगार सृजन की योजनाओं, ग्रामीण विकास विभाग द्वारा चलाई जा रही महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तथा पंडित दीनदयाल ग्रामीण कौशल्य योजना और आवास तथा शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय की राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि शामिल हैं। इसके अलावा प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत पचहत्तर प्रतिशत ऋण में से 9.02 करोड़ ऋण अब तक केवल महिला उद्यमियों को दिए हैं।

सुविधाओं का प्रावधान
श्रम और रोजगार मंत्रालय ने महिला श्रमिक भागीदारी दर बढ़ाने के लिए अनेक कदम उठाए हैं। इनमें मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 शामिल है। इसमें भुगतान मातृत्व अवकाश बारह सप्ताह से बढ़ा कर छब्बीस सप्ताह करने का प्रावधान है और पचास और उससे अधिक कर्मचारियों के प्रतिष्ठानों में अनिवार्य के्रच सुविधा का प्रावधान है। पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ रात्रि पाली में महिला कर्मियों को काम की अनुमति देने के लिए फैक्ट्री अधिनियम 1948 के अंतर्गत राज्यों को परामर्श देने का विषय है। न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948 के प्रावधानों के अंतर्गत सरकार द्वारा तय किए गए वेतन पुरुष और महिला कर्मियों के लिए समान रूप से लागू हैं और इसमें किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसके अलावा महिला श्रमिकों के लिए कई योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। दस हजार रुपए मासिक मजदूरी पाने वालों की किसी कारणवश मृत्यु होने पर उनकी विधवा या आश्रित को एक मुश्त दस हजार रुपए दिए जाने का प्रावधान है। साथ ही उनके मेधावी बच्चों को छात्रवृत्ति और उनकी पुत्रियों के विवाह आदि में रकम देने की भी योजना सरकार की ओर से चलाई जा रही है। दुर्घटना या अंपगता की स्थिति में भी श्रमिकों की आर्थिक सहायता के कई प्रावधान हैं।

-अक्सर महिलाओं को कार्यस्थल (कारखानों, निर्माण कार्य, रेहड़ी-पटरी आदि क्षेत्र) पर शौचालय की कमी से दो-चार होना पड़ता है।
-बच्चों को सुलाने या दूध पिलाने की जगह उपलब्ध नहीं होती।
– असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को मातृत्व अवकाश की सुविधा नहीं होती।
– इनकी मजदूरी दर, काम के घंटे नियम आदि की भी बड़ी समस्या है।
– खाद्य सुरक्षा कानून के अनुसार महिलाओं को उचित पोषण के लिए छह हजार रुपए तक की सरकारी सहायता देने का नियम है, कामगार महिलाएं इस सुविधा से वंचित हैं।
– घरेलू कामगार महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं।