तेजी से गिरते जल-स्तर को लेकर एक आम धारणा यह बन गई है कि ऐसा सिर्फ यांत्रिक साधनों से भूगर्भ जल के अंधाधुंध दोहन और बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप जल के अधिकाधिक उपयोग के चलते हो रहा है। विशेषज्ञ और राजनीतिक नेतृत्व दोनों ही इस समस्या का समाधान जल-भराव के चक्र को व्यवस्थित करने में देखते हैं। तालाबों को गहरा करना, भवन-निर्माण में वर्षाजल को भूगर्भ में पहुंचाने के लिए सोख्तों का निर्माण करना आदि को जल-समस्या के तात्कालिक समाधान के रूप में देखा जा रहा है। जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर यह समस्या और गंभीर दिखाई पड़ती है।
दरअसल, नागरिक उपभोग से जल-अभाव की समस्या छोटे-बड़े शहरों और कस्बों तक ही सीमित है; जबकि इसका अधिक गंभीर, लेकिन प्रत्यक्ष न दिखाई देने वाला संबंध ग्रीष्मकालीन कृषि-कार्य के लिए जल की अधिक आवश्यकता को देखते हुए ‘ग्रीन हाउसों’ के निर्माण की दिशा में सरकारों द्वारा ठोस कार्य-योजना न बनाने से भी है। ऐसा न होने से लू चलने के समय भारी मात्र में भूजल का अपव्यय कर किसान कम दर वाली बिजली से अधिक वास्तविक लागत वाली सब्जियां उगाते हैं। गिरते भूजल-स्तर की समस्या का अधिक गंभीर वैज्ञानिक कारण कई पीढ़ियों से वृक्षों को काटते हुए खेती के लिए मीलों तक नंगी कर दी गई धरती से भी है। जल-संकट की इस समस्या में कटते और घटते वृक्षों के दुष्प्रभाव को बहुत कम करके आंका जाता है।
धरती की आतंरिक बनावट और वर्षा जल का अवशोषित होकर भूगर्भ में संचित होने तक की लंबी यात्रा में कई प्राकृतिक शक्तियां और भौगोलिक परिस्थितियां सम्मिलित रहती हैं। धरती के भीतर कठोर चट्टानों वाली परतों का होना; जो पानी के जल-स्तर को और नीचे गिरने से रोक दे, पर्याप्त आधार नहीं है इस संकट को समझने के लिए। गुरुत्व-शक्ति के प्रभाव से पानी, मिट्टी के एक अणु से दूसरे अणु को स्थानांतरित होता हुआ पृथ्वी के अति ऊष्म तल तक भी गिरता हुआ जा सकता है। जहां उस पर पड़ते भारी दबाव के चलते, वाष्प न होकर जल रूप में ही कैद पड़े रहने की नियति रहेगी या फिर दबाव के अनुकूल पृथ्वी के कमजोर तल की ओर स्थानांतरित होकर ज्वालामुखियों के साथ बाहर निकाल जाने का विकल्प।
इस नियति के विपरीत जल को धरती की ऊपरी परत के पास, अपनी जड़ों द्वारा उत्पन्न कर्षण बल से थामे रहने का कार्य लाखों वर्षों से धरती पर वृक्ष ही करते रहे हैं। वे सिर्फ अपनी हर शाखा और पत्तों तक जल का पहुंचना सुनिश्चित नहीं करते, बल्कि अपनी जड़ों में भारी कर्षण बल और पृष्ठ तनाव पैदा कर ऊंची क्षमता वाले मोटर-पंप की तरह कार्य करते हैं। ऐसे में गिरते जल-स्तर के विरुद्ध पेड़ों की अधिक संख्या ही उन्हें सामूहिक सुरक्षा प्रदान कर सकती है; क्योंकि कोई अकेला पेड़, किसी इलाके के गिरते जल-स्तर को अधिक देर तक थामे नहीं रह सकता। जल-स्तर को ऊपरी सतह के पास अधिक से अधिक बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक वृक्षारोपण कर, गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध काम करने वाले वृक्षों की जड़ों द्वारा सामूहिक रूप से उत्पन्न किए गए कर्षण बल को बढ़ाना होगा। हालांकि सरकार के लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा; न ही कोई एक सामान नीति सारे देश के लिए उपयोगी और लागू किए जाने योग्य होगी।
ऐसा इसलिए कि उत्तर भारत और मध्य तथा दक्षिण भारत की भौगोलिक संरचना और पारिस्थितिकी भिन्न है। उत्तर भारत, जिसे गंगा-यमुना का मैदान कहा जाता है- रेत, मिट्टी और बालू से मिल कर बना है; जबकि दक्षिण भारत का पठारी प्रदेश कठोर चट्टानों से; जिसकी पथरीली भूमि सिर्फ पानी को बहा देना जानती है, उसे अवशोषित कर अपने भीतर बचा लेना नहीं। ऐसे में दक्षिण भारत के जल-संकट और सूखे से निपटने के लिए अधिक से अधिक बांध बना कर वर्षा-जल को साल भर रोकने की व्यवस्था करनी होगी। जबकि उत्तर भारत के मैदानों में, नदियों के सहायक नालों को उनके मुहानों से विस्तार तक क्रमिक बांध बना कर जल-संग्रह की शुरुआत की जा सकती है। इस दिशा में कई सरकारी योजनाएं चल भी रही हैं। जमीनी स्तर पर भी कुछ काम देखने को मिलते हैं।
इस समस्या का एक मानवीय पहलू यह है कि हमारे देश की संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप नौकरशाही, जिसमें सरकारी अभियंता भी शामिल हैं; अपने पद और कद के दायरे में ही सोचने-समझने के लिए अधिकृत हैं। उन पर उनके दायरे से अधिक बड़ी समस्याओं के समाधान का दायित्व भी नहीं डाला जा सकता। गावों में पुराने बाग समाप्त हो रहे हैं या फिर पारिवारिक बंटवारे की भेंट चढ़ रहे हैं। मैकालीय शिक्षा-व्यस्था ने शिक्षित जनसंख्या को श्रम और कृषि-कार्य से विरत कर दिया है। युवा-शक्ति तरह-तरह की कंपनियों में एजेंट बन कर अपना भाग्योदय करने के नुस्खे आजमा रही है।
अब पहले की तरह सामाजिक सौहार्द भी नहीं बचा है कि लोग आबादी से दूर लगाए गए पौधों को सुरक्षित रहने दें। वन-अधिनियम से आच्छादित ग्राम-समाज की जमीनों को उत्तर भारत की सरकारें पहले ही भूमिहीनों को बांट चुकी हैं। पुराने समय से ही उपजाऊ भूमि होने के कारण एक-दूसरे से नजदीक बसे उत्तर-भारत के गावों में तो न सरकारी या सार्वजनिक जमीन बची है और न ही वन। ऐसे गावों में वन-विभाग किसी पोखर के टीले पर ही सिमटा हुआ देखा जा सकता है। वह भी अगर भ्रष्ट नौकरशाही के सहयोग से किसी दबंग व्यक्ति की निजी संपत्ति बन कर सरकारी भू-अभिलेखों में चुपके से दर्ज न हो गया हो तो। जबकि विगत एक-दो सदी में पेट्रोलियम की खोज और प्रयोग के बाद हुए अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के चक्र को प्रकृति की ओर वापस भेजने और वैश्विक तापमान वृद्धि को रोकने के लिए भी अत्यधिक वृक्षारोपण जरूरी है, फिर भी ऐसा नहीं है कि इस संकट के समाधान के रास्ते पूरी तरह बंद हो गए हों।
जल-संकट से स्थायी निवारण के रास्ते, सतही और दिखावटी उपायों में नहीं, बल्कि कुछ नई दिशाओं में जाने से ही मिल सकेंगे। ये रास्ते औद्योगिक पूंजी और बाजार से भारी करदोहन करने वाली सरकारों के पास सार्थक दिशाओं में पूंजी-निवेश करने के विवेक और अधिकार के रूप में अब भी उपलब्ध है। ऊसर भूमि वाले क्षेत्रों में, जहां बहुत दूर-दूर तक गांव बसे थे या अंगरेजी और स्वदेशी हुकूमत ने आर्थिक या राजनीतिक कारणों से विकास की उपेक्षा की है- अब भी बहुत-सी भूमि बंजर और उपेक्षित रूप में निजी स्वामित्वों में पड़ी है। अगर सरकार आवश्यक और उचित समझे तो वह ऐसी जमीनों की एक नियमित खरीदार बन सकती है। ऐसी क्रीत-भूमि को ग्राम पंचायतों या वन-विभाग को आवश्यक शर्तों के साथ वृक्षारोपण के लिए सौंपा जा सकता है। नए सिरे से चकबंदी और भूमि-प्रबंधन कर छोटे-छोटे वनों और उपवनों का विकास कर कम गहराई वाले भूजल का उपहार भारतीय ग्रामों को दे सकती है।