हिंदी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन को अपडेट करना जरूरी है। विकास के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में संतुलन बना कर टिकने के लिए हिंदी के एक ऐसे पाठ्यक्रम और विशेषज्ञता की दरकार है, जो तमाम क्षेत्रों की आवश्यकता की पूर्ति करने में समर्थ हो।
हिंदी अध्यापन की शुरुआत बंगाल के रॉयल एशियाटिक सोसाइटी से हुई। उसी की शाखाएं बाद में बनारस, इलाहाबाद, दिल्ली, पटना, सागर, अलीगढ़ आदि जगहों में पुष्पित-पल्लवित हुर्इं। जार्ज ग्रियर्सन के भारतीय भाषाओं के सर्वेक्षण ने इस आधार पर भव्य भवन की नींव तैयार की। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू श्याम सुंदर दास, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, धीरेंद्र वर्मा, रामकुमार वर्मा, नलिन विलोचन शर्मा, देवेंद्रनाथ शर्मा, लाला भगवान दीन, रमाशंकर शुक्ल रसाल, नगेंद्र, हरवंशलाल शर्मा जैसे दिग्गजों और उनकी शिष्य मंडली ने संस्कृत भाषा और साहित्य की समृद्ध परंपरा और पृष्ठभूमि में हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की नींव रखी। व्यास और समास शैली में साहित्य के इतिहास, काव्यशास्त्र, भाषा विज्ञान, काव्य और गद्य के पाठ्यक्रम की आधारभूत संरचना तैयार हुई। आज यह सोच कर और जान कर अजीब लग सकता है कि पहले हिंदी और संस्कृत साहित्य की उच्च शिक्षा का माध्यम अंगरेजी था।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास, रस मीमांसा और निबंधों की ऐतिहासिक भूमिका के बिना हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की कोई चर्चा नहीं हो सकती। ‘त्रिवेणी’ की वृहद भूमिका ने मध्यकालीन साहित्य के श्रेणीकरण और गुणवत्ता के जो ‘मानक’ तैयार किए, उन पर आज भी गहन विमर्श जारी है। लोकमंगल का उनका प्रतिमान आज भी किसी न किसी रूप में कायम है। रीतिवाद का प्रतिरोध आज भी प्रासंगिक है। यही कारण है कि केवल कलावाद साहित्य का एकमात्र लक्ष्य नहीं बन पाया। उर्दू भाषा और साहित्य के साथ पश्चिम की साहित्यिक-दार्शनिक बहसों ने इसे और अधिक समृद्ध और संपन्न बनाने में मदद की है। असहमत लोग दूसरी परंपरा की खोज करके अपने मार्ग अलग बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
जहां तक हिंदी, संस्कृत की उच्च शिक्षा का संबंध है तो इसकी ओर गांव-देहात के गरीब लोग ही ज्यादा आकर्षित होते हैं। संस्कृत पर तो ब्राह्मणों का लगभग एकाधिकार है। अंगरेजी चूंकि प्रारंभ से ही उच्च और अभिजात वर्ग की भाषा रही है, जो ज्यादातर शहरों में केंद्रित है, लेकिन वर्तमान में भूमंडलीकरण के प्रभाव से अंगरेजी सत्ता और अधिकार प्राप्ति की ललक में देहातों में भी अंगरेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना फैशन और मजबूरी दोनों है। हालांकि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में हिंदी माध्यम स्वीकृत है, लेकिन फिर भी अंगरेजी का लाभ विशेष है। सीसैट के विवाद से यह जाहिर हो चुका है कि भारत में आज भी वर्चस्व अंगरेजी का ही रहना है।
हिंदीभाषी जनता की देश और विदेश की भाषाओं और साहित्य के प्रति सीमित और संकीर्ण सोच से बेहद नुकसान होता है। हिंदी तो चूंकि उनके लिए घर की मुर्गी की तरह उपेक्षित होती है, इसलिए उसके शुद्ध, मानक उच्चारण और वर्तनी पर खास ध्यान देने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। रही-सही कसर हिंग्रेजी ने पूरी कर दी है। हालांकि बदलते परिदृश्य में भाषा की शुद्धता और व्याकरण से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अब जोर इनके बजाय संप्रेषण पर होता है। अमेरिकी अंगरेजी ने जैसे विक्टोरियन अंगरेजी की ऐसी तैसी कर दी है, ठीक वही हाल हिंदी का हिंग्रेजी ने कर दिया है। मगर उच्च शिक्षा और शासन के क्षेत्र में यह अराजकता नहीं चल सकती। यह बात अलग है कि हिंदी की जटिल पारिभाषिक शब्दावली और वर्तनी के कारण हिंदी के बजाय अंगरेजी आसान लगती है। इसीलिए हिंदी लिखित रूप में निरंतर प्रचलन से बाहर होती जा रही है, जो चिंता की बात है।
आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी के युग में प्रश्न यह उठता है कि क्या साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की पारंपरिक गुरु-शिष्य परंपरा प्रासंगिक रह गई है या भूमंडलीकरण के विश्वव्यापी प्रसार के नाते उसमें किसी खास विशेषज्ञता की जरूरत है। क्या सूरदास के श्याम की चोटी आज भी ज्यों की त्यों है या उसमें कोई बदलाव हुआ है। टीका और व्याख्याओं के अलावा भी क्या ऐसा कुछ नया है, जिसकी जरूरत है। उत्तर आधुनिकता और संरचनावाद ने इस पारंपरिक अध्ययन अध्यापन की दिशा ही बदल दी है। उस ओर से आंख बंद करके शुतुरमुर्ग की तरह इतिहास की शव-साधना का क्या कोई अर्थ होगा? केवल कबीर, सूर, तुलसी को रटने से काम नहीं चलने वाला।
हिंदी कविता चूंकि हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा रही है और कथा, प्रवचनों में उसका व्यापक व्यापारिक-राजनीतिक उपयोग निरंतर हो रहा है फिर भी आधुनिक हिंदी साहित्य की पहुंच सामाजिक रही है। यों भी हिंदी के ज्यादातर छात्रों और अध्यापकों की चेतना छायावाद से आगे नहीं बढ़ पाती। ऐसे में समकालीन हिंदी साहित्य से परिचितों का दायरा बेहद सीमित है। पुराने दौर में इतिहास, विज्ञान, समाजशास्त्र और अन्य अनुशासनों के लोग भी साहित्य में सक्रिय दखल रखते थे, लेकिन वर्तमान में यह अपवाद ही है। अलबत्ता साहित्य और पत्रकारिता नजदीक आए, लेकिन अब शुद्ध व्यावसायिकता ने उस नजदीकी को लगभग खत्म कर दिया है। यह शुभ संकेत नहीं है।
विश्व की तेजी से नजदीक आती सभ्यताओं में पारस्परिक आदान-प्रदान ने साहित्य और संस्कृति के सामने जहां नई संभावनाओं के दरवाजे खोले हैं, वहां उसने नए-नए संकट भी खड़े कर दिए हैं। एक से एक विचारकों की फौज अब सूचना और संचार की जिस आधुनिकतम प्रविधि से जुड़ रही है, वहां पल भर में सब कुछ बदल जाता है। नए परिदृश्य में पैर टिकाना मुश्किल हो जाता है। हर समय आउट आॅफ डेट होने का खतरा मंडराता रहता है। इस तीव्र प्रवाह में आपकी भूमिका सिर्फ फॉलोवर या कहें पिछलग्गू फिसड््डी भर की रहती है, जो घिसटने को मजबूर है। हिंदी के कंप्यूटर पर उपयोग ने विकास के नए द्वार खोल दिए हैं। गूगल की भाषा सेवाओं में अनुवाद की जरूरत में हिंदी को भी महत्त्वपूर्ण जगह मिली है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के विज्ञापनों का हिंदीभाषी उपभोक्ताओं तक पंहुचना जरूरी हो गया है। ऐसे में हिंदी के व्यावसायिक उपयोग की अनेक दिशाएं खुल रही हैं। फिल्म, मीडिया और संचार क्षेत्र में हिंदी की पहुंच अंगरेजीभाषी जनता से कहीं ज्यादा है।
भारत की जनता का दुर्भाग्य है कि इस देश में तमाम आयोगों के बावजूद देसी भाषा और शिक्षा की बेहद दुर्गति है। शिक्षा राज्य का विषय है, इसलिए उसकी गुणवत्ता भगवान भरोसे है। विश्वगुरु होने का दावा करने वाले देश के पास गर्व करने लायक एक भी विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान नहीं है। अलबत्ता विदेशों को टेक्नोकुली पर्याप्त मात्रा में निर्यात किए जा रहे हैं।
ऐसे में हिंदी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन को अपडेट करना जरूरी है। विकास के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में संतुलन बना कर टिकने के लिए हिंदी के एक ऐसे पाठ्यक्रम और विशेषज्ञता की दरकार है, जो तमाम क्षेत्रों की आवश्यकता की पूर्ति करने में समर्थ हो। तात्कालिक रूप से कम से कम इतना तो तुरंत होना चाहिए कि देश भर में सीबीएसइ पैटर्न पर स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर हिंदी का वही पाठ्यक्रम स्वीकृत किया जाय, जो यूजीसी और भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए मान्य है। अन्यथा तो उसका कोई भविष्य नहीं होगा।
