मुझे लिखना अच्छा नहीं लगता। पेशे की मजबूरी है, इसलिए लिखता हूं। पर अगर यह मजबूरी न होती तो शायद मैं लिखने से दूर ही रहता। लिखना एक जटिल प्रक्रिया है और मुझे जटिलता पसंद नहीं है। अब देखिए न, लिखने के लिए पहले तो अपने विचार व्यवस्थित करने होते हैं, फिर उनको संदर्भ में डालना पड़ता है, इसके बाद बात कहने के लिए सही शब्दों को तलाशना होता है और अंत में कागज पर कलम चलानी पड़ती है। विचारों को कलम की लाठी का सहारा देने में मुझे बड़ी दिक्कत आती है। विचारों के पंख होते हैं, वे फुर्र से उड़ जाते हैं। कलम की लाठी हांफते-कांपते उनका पीछा करती है, अपने आप को हवा में भांजती है और अंतत: विचारों के झुंड में से कुछ को कागज पर उतार लेती है। पर इस गहमागहमी के बावजूद अक्ल और अहसास के ज्यादातर परिंदे उसकी पहुंच से बाहर ही रहते हैं।

विचार या खालिश खयाल स्वाभाविक प्रक्रिया है। वे आते और जाते हैं जैसे शरीर में सांस आती-जाती है। वास्तव में, विचार हमारे मन और मानस की सांस हैं, जिनकी शृंखला को बनाए रखने के लिए हमें कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। विचार अपने आप प्रकट होते और विलीन हो जाते हैं। विचार सहज हैं, प्राकृतिक हैं, स्वाभाविक हैं- सत चित हैं। इसके विपरीत, लिखने की प्रक्रिया सहज नहीं है, स्वाभाविक भी नहीं है। मेहनत का काम है। विचारों पर बढ़ईगिरी जैसा।

शब्दों के पीपे मुझसे नहीं पीटे जाते। मैं खालिश खयालों का तलबगार हूं। मेरा बस चले तो मैं इन्हीं में डूबा रहंू। इनकी निर्मल धारा में गोते लगाता रहंू। न कुछ कहंू, न कुछ लिखंू। कहने में भी शब्द आ जाते हैं और विचारों को मटमैला कर देते हैं। खयाल को शब्दों में उतारने से उनका भोलापन खो जाता है। उनका निर्मल आनंद विलुप्त हो जाता है। खयाल एक बच्चे की अल्हड हंसी है, जबकि बोलना किसी वयस्क का सधा हुआ ठहाका। एक में गंवार उल्लास है, तो दूसरा प्रशिक्षित संवदेना है।
लिखित शब्दों की निर्ममता मुझे परेशान करती है। वे समां बांध कर कागज पर डाल तो सकते हैं, पर समां बना नहीं सकते। शब्द सिर्फ सफेद पर काला अक्षर हो सकते हैं- भैंस बराबर। उनमें सफेद और काले के बीच स्लेटी, सफेद और काले की बारीकियां हो ही नहीं सकती हैं, जबकि जिंदगी न बिल्कुल चिट््टी है और न ही बिल्कुल स्याह। वह तो इन दोनों रंगों के बीच ही बिचरती है। और अगर ऐसा है तो कलम-दावात जीवन के सही रंगों को कैसे मुखरित कर सकते हैं?

दूसरी तरफ उन्मुक्त विचार कभी भी काले या सफेद सिरों पर ठहरे नहीं रहते। वे तो इन छोरों के बीच अठखेलियां करते हुए जिंदगी की स्लेट पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा जाते हैं। साथ ही उनके उतराव-चढ़ाव के दरम्यान जो क्षणिक अंतराल होता है उसका खालीपन जिंदगी को उसका संदर्भ, अर्थ और स्वाद देता है। वास्तव में अगर हमें अपने आप को ढंूढना है तो इसी खालीपन में गोता लगाना होगा। मानस की मणि या दिल की दौलत खयालों की लहरों के बीच ही एक पल उजागर होती है और अगर हमने उसे लपक लिया तो ठीक, वरना अगले ही पल वह लुप्त हो जाती है।

स्याही में सूखे लफ्ज चंचल नहीं हो सकते। खयाल जब दावात में डूब जाता है, निष्प्राण हो जाता है, उसकी सासों की डोर टूट जाती है और वह पथरा जाता है, इसलिए ठंडे शब्दों में ऊर्जा नहीं होती। कुछ लोग कहते हैं कि शब्द निर्जीव नहीं होते, उनकी अपनी प्राणवायु होती है। पर मैं नहीं मानता। विचार से जब शब्द उत्पन्न होते हैं तो उनमें उतने ही प्राण होते हैं जितने जल बिन मछली में। विचार कागज पर आकर कुछ देर उसी तरह तड़पते हैं जैसे नीर बिन मछली तड़पती है और फिर ठंडे पड़ जाते हैं। इसी क्षणिक तड़प को हम शब्दों की प्राणवायु समझने की गलती करते हैं।

हां, शब्दों में फिर से प्राण फंूके जा सकते हैं जब किसी मानस का जुनून इसमें प्रविष्ट कर जाए। जुनून ही असल में हमारी प्राणवायु है। वही हमारे जीवन को चलाता है, उसको परिभाषित करता और मायने देता है। शब्द इस जुनून के मोहताज हैं, क्योंकि इसी से उन्हें फिर से जी उठने का मौका मिलता है। जुनून या पैशन, दिमागी हो या दिली, व्यक्ति व्यक्ति में फर्क करता है और उसके द्वारा बोले और लिखे शब्दों में फर्क करता है। एक को वैज्ञानिक बना देता है तो दूसरे को आशिक। कोई न्यूटन बन जाता है तो कोई मजनू। वास्तव में जुनून ही है, जो हमारे जिंदापन को पल्लवित-पुष्पित करता है।

जुनून सिर्फ राहे-नूर नहीं, बल्कि खुद में मंजिल है। जुनून ही हमें जिंदा होने का अहसास देता और हमारे निज सत्य की तरफ प्रेरित करता है। कवि, लेखक, दार्शनिक, चित्रकार, शिल्पकार, विद्वान, वैज्ञानिक या प्रेमी युगल इसी जुनून में जीते-मरते और हासिल करते हैं। दुनिया में जो भी सत्य है, अद्वितीय है, निराला है उसकी उत्पत्ति किसी न किसी के जुनून से हुई है।
लोग कहते हैं कि संसार मिथ्या है। हमारा भ्रम है। वास्तव में कुछ भी नहीं है। हम एक धुंध से आते हैं और धुंध में जाते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मूर्त हो, ठोस हो। सब छलावा है। माया है। पर यह बात सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए है, जिनके चित्त को जुनून ने आंदोलित न किया हो। उनका मानस उत्तेजना विहीन होता है और इसी वजह से उनको माया का भ्रम होता है।
आइंस्टीन के लिए संसार ठोस और वास्तविक था। सब कुछ या तो परिभाषित किया जा सकता था या फिर मापा जा सकता था। उनके लिए संसार मिथ्या नहीं, वैज्ञानिक सच्चाई थी, जो माया को झुठलाती थी। उनके जुनून की सच्चाई आज हमारी भी रोजमर्रा की सच्चाई है, ठीक उसी तरह जैसे किसी दार्शनिक के लिए माया का होना उसकी अपनी सच्चाई है। एक को विज्ञान का सत्य जान कर मोक्ष का मार्ग मिलता है, तो दूसरे को नेति नेति के ज्ञान से। पर दोनों ही पक्ष अपने-अपने जुनून से आंदोलित हुए हैं और अपने को साधारणता से असाधारणता की ओर ले गए हैं।

वैसे जिस व्यक्ति को जुनून का स्पर्श नहीं मिला उसके लिए संसार माया ही है। पर जब जिंदगी किसी जुनून से उद्वेलित होती है तो पहली टीस तड़प बन जाती है और यह तड़प उसको खोजने पर मजबूर करती है। खोज से ज्ञान मिलता है और ज्ञान से सत्य। सत्य कभी भी मिथ्या नहीं हो सकता। वह निराकार होते हुए भी महसूस और प्रमाणित किया जा सकता है जैसे मजनू की लैला से मोहब्बत के सत्य को प्रमाणित किया जा सकता है। और इस निज सत्य का बीज जुनून है- हमारा चित्त तेज।
शब्द जुनून को पनपने नहीं देते। उनके मतलब भ्रम पैदा करते हैं। माया का भ्रम। शाब्दिकता माया का भंवर है, जिसमें वह शून्यकाल नहीं है, जिनमें जुनून पल सके। मुझे शब्द नहीं, शून्यकाल चाहिए। चित्त में विचरने का मौका चाहिए। वह रिक्ति चाहिए, जिसमें शब्दों की भीड़ न हो। खालीपन चाहिए, जिसमें खालिश खयाली हो सके, जहां विचार आपस में चकमक पत्थर की तरह घिसें और सोच की चिनगारी से जुनून की लौ जलाएं। यह जुनून ही मेरा निज सत्य होगा। मेरा अंतिम सत्य। सत चित आनंद।