सत्ता के सामने सच्चाई बयान करना एक दुर्लभ गुण है। देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन में यह गुण है। अपने पूर्ववर्ती की तरह उन्होंने भी आर्थिक मामलों के विभाग को मौलिक सोच दी, अपने पूर्ववर्ती की तरह वे भी विभिन्न विषयों पर बोलने को आजाद हैं; लेकिन उनकी स्थिति अपने पूर्ववर्ती से एक मायने में भिन्न है, उनकी सलाह हमेशा नहीं ली जाती (जैसा कि नोटबंदी के मामले में हुआ)।  एक अर्थशास्त्री के रूप में सुब्रमण्यन का मैं काफी आदर करता हूं। हाल में, दो मौकों पर उन्होंने कड़वी हकीकत बयान की। पहला मौका था, प्रसिद्ध वीकेआर राव स्मारक व्याख्यान का, जब उन्होंने विशेषज्ञों की इस प्रवृत्ति पर अफसोस जताया कि वे सरकारी निर्णयों को सही ठहराने के लिए सारा दोष पिछली घटनाओं पर मढ़ देते हैं।

चिंताजनक क्षेत्र
16 मई 2017 को सुब्रमण्यन ने अर्थव्यवस्था की हालत पर बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें कहीं। कई और बातों के साथ-साथ उन्होंने कहा कि ‘भारत के सामने इस समय रोजगार के मोर्चे पर खासी मुश्किल चुनौती है, क्योंकि आर्थिक उछाल के पिछले बरसों में सूचना प्रौद्योगिकी, निर्माण और कृषि जैसे जिन क्षेत्रों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था उनकी हालत इस समय चिंताजनक है।’ यह बताते हुए कि रोजगार बढ़ाने के लिए क्या-क्या करना होगा, सुब्रमण्यन ने कहा कि ‘‘सबसे पहली बात यह है कि हमें आर्थिक वृद्धि दर को आठ फीसद से दस फीसद के बीच ले जाना होगा, क्योंकि अगर आपके पास गतिशीलता है तो वह रोजगार के अवसर पैदा कर सकती है। यह सबसे महत्त्व की बात है… आप रोजगार नहीं बढ़ा सकते, अगर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर तीन-चार फीसद ही हो।’’

वर्ष 2004 से 2009 आर्थिक उछाल के वर्ष थे। उन पांच वर्षों के दौरान औसत वृद्धि दर 8.4 फीसद थी। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट आने के बाद भी, खर्चों में बढ़ोतरी किए जाने के कारण, अर्थव्यवस्था की जोरदार वृद्धि दर जारी रही। स्वाभाविक ही, रोजगार सृजित हुए, अलबत्ता उतने नहीं जितने की देश को जरूरत थी। आज अगर रोजगार पैदा नहीं हो पा रहे हैं, तो इसलिए कि अर्थव्यवस्था उस रफ्तार से नहीं बढ़ रही है जैसा कि हमें मान लेने को कहा जा रहा है। कृषिभूमि के मालिक छह करोड़ परिवारों और दो करोड़ भूमिहीन परिवारों के लिए खेती आजीविका का मुख्य स्रोत है। निर्माण उद्योग साढ़े तीन करोड़ लोगों को रोजगार मुहैया कराता है। आइटी क्षेत्र भारत में सैंतीस लाख रोजगार का स्रोत है और यह शिक्षित तथा तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते मध्यवर्ग के लिए एक स्वाभाविक चुनाव है। अगर अर्थव्यवस्था के ये क्षेत्र सूख जाएं तो नए रोजगार कहां से आएंगे! इस बात के प्रमाण हैं कि बहुतों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है। सिर्फ आइटी क्षेत्र में, अनुमान है कि दो लाख से छह लाख नौकरियां चली गई हैं।

जन धारणा

सुरक्षा के लिहाज से अच्छे दिन कहां हैं- राष्ट्रीय सुरक्षा, आंतरिक सुरक्षा, व्यक्ति की सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, रोजगार सुरक्षा वगैरह। मैं राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा की हालत और व्यक्ति की आजादी पर मंडराते खतरे के बारे में लिख चुका हूं। ये अधिकांश लोगों को दूर की चिंताएं लग सकती हैं (हालांकि वास्तव में ऐसा नहीं है), लेकिन खाद्य सुरक्षा और रोजगार सुरक्षा की चिंता हर घर में दिखाई देगी।अगर किसी घर में पर्याप्त खाद्य नहीं है, तो उसके लिए अच्छे दिन नहीं हो सकते। हर साल श्रम बाजार में प्रवेश करने वाले लाखों लोगों के लिए अगर रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं हैं, तो उनके लिए भी अच्छे दिन नहीं कहे जा सकते।
सरकार के तीन साल पूरा करने के अवसर पर सवाल उठेंगे ही। सरकार समर्थक समझे जाने वाले एक अखबार ने लोगों से कुछ सवाल पूछे और उनके जवाब आंख खोलने वाले हैं:
1. क्या आपके शहर में चिकित्सा सुविधाएं व सेवाएं सुधरी हैं? 58 फीसद लोगों ने कहा, नहीं।
2. क्या आपको लगता है कि औरतों तथा बच्चों के खिलाफ अपराधों में कमी आई है? 60 फीसद लोगों ने कहा, नहीं।
3. क्या आपको लगता है कि जरूरी चीजों के दामों और रहन-सहन के खर्चों में कमी आई है? 66 फीसद लोगों ने कहा, नहीं।
4. क्या आपको लगता है कि बेरोजगारी की दर कम हुई है? 63 फीसद लोगों ने कहा, नहीं।
5. क्या नोटबंदी से भ्रष्टाचार कम हुआ है? 47 फीसद ने कहा- नहीं, और 37 फीसद ने कहा- हां।
इस सर्वे में यह भी पूछा गया था, ‘आपके मुताबिक सरकार का कौन-सा कार्यक्रम सबसे असरदार रहा है?’ इसके जवाब में आर्थिक वृद्धि/रोजगार से संबंधित जिस योजना का नाम आया वह थी मेक इन इंडिया, और सिर्फ आठ फीसद लोगों ने इसका जिक्र किया।
अर्थशास्त्री भी इन्हीं निष्कर्षों पर पहुंचेंगे जब वे आर्थिक संकेतकों पर नजर डालेंगे: कुल नियत पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) में गिरावट, औद्योगिक ऋण में नकारात्मक रुझान, बड़ी तादाद में ठप परियोजनाएं, और कृषि क्षेत्र का संकट में होना (साथ में यह तथ्य भी कि कृषि मजदूरी मुश्किल से सालाना चार फीसद बढ़ी है)। इस सब का रोजगार पर तुरंत प्रभाव पड़ा है: नए रोजगार नहीं बन रहे हैं और बहुत-से रोजगारों पर तलवार लटक रही है।

रोजगार-विहीनता से सामना

प्रधानमंत्री को व्यापक समर्थन हासिल होने के बावजूद, महीना-दर-महीना, रोजगार के लिए उठ रही आवाज और तेज होगी। रोजगार कहां हैं? फिलहाल इस सवाल का कोई जवाब नहीं है, सिवाय 7.5 फीसद के जादुई आंकड़े पर इतराने के। जबकि लगता यह है कि मुख्य आर्थिक सलाहकार को भी इस आंकड़े पर विश्वास नहीं है। वरना वे यह क्यों कहते कि रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं, और यह भी कि तीन-चार फीसद की वृद्धि दर से रोजगार नहीं पैदा होंगे। क्या वे किसी ऐसी बात की तरफ इशारा कर रहे हैं जिसे वे जानते हैं और हम अभी नहीं जानते?
निश्चय ही मुख्य आर्थिक सलाहकार को समाधान मालूम है, जो कि निम्नलिखित ही होगा:
*जीडीपी के अनुपात में निवेश 29.22 फीसद (2016-17) से बढ़ा कर करीब 34-35 फीसद के स्तर पर ले जाएं, जैसा कि 2007-08 और 2011-12 में हुआ था।
*सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों की ऋण-वृद्धि के नकारात्मक रुझान को पलटें।
*ठप परियोजनाओं खासकर बुनियादी ढांचे की ठप परियोजनाओं को पटरी पर लाएं, जिनकी तादाद मार्च 2014 में 766 थी, पर बढ़ कर मार्च 2016 में 893 हो गई।
*बेकार की जिद छोड़ें, किसानों को राहत दें और न्यूनतम कृषि मजदूरी बढ़ाएं।
बेरोजगारी से निपटने की चुनौती से अब बचा नहीं जा सकता। युवाओं (और उनके अभिभावकों) से रोजगार की बाबत पूछें। अंदेशों में रही-सही कसर पूरी हो जाएगी।