जट का एक संदर्भ होता है।जब हमने नए साल में प्रवेश किया, कुछ चीजें एकदम साफ थीं। एक, बाहर की परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं (तेल की कीमतें चढ़ रही थीं और संरक्षणवाद का उभार हो रहा था)। दो, देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर धीमी पड़ चुकी थी (जैसा कि दुनिया के बहुत-से देशों में हो रहा था)। तीन, जबअर्थव्यवस्था का ग्राफ चढ़ रहा था, तब भी रोजगार के अवसरों में बढ़ोतरी मामूली थी। चार, कृषिक्षेत्र का बुरा हाल था। पांच, वृद्धि दर के चार इंजनों में से तीन (निजी निवेश, निजी खपत और निर्यात) ठीक से काम नहीं कर रहे थे। छह, नोटबंदी ने भारत की आर्थिक वृद्धि में बुरी तरह व्यवधान डाला।
इस संदर्भ को देखते हुए 2017-18 के बजट की मंजिल तय की जानी चाहिए थी। वे लक्ष्य वित्तमंत्री के बजट भाषण में, आंकड़े बजट-दस्तावेजों में और प्रावधान वित्त विधेयक में प्रतिबिंबित होने चाहिए थे। अफसोस, बजट भाषण में वैसा कुछ नहीं था। न ही वित्तमंत्री ने बजट के बाद माीडिया को दिए ढेर सारे साक्षात्कारों में उन लक्ष्यों की बाबत कुछ कहा।
संदर्भ और लक्ष्य
यूपीए-1 के दौरान हमने विकास के लिए आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाया, जो कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार (1999-2004) के समय औसतन 5.9 फीसद थी। सितंबर 2008 से लेकर 2012 तक (यूपीए-2), लक्ष्य था अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट (सितंबर 2008) से निपटना और वृद्धि के सिलसिले को बनाए रखना। अगस्त 2012 के बाद उद््देश्य था अर्थव्यवस्था को विचलन से वापस लाना और राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के प्रति फिर से प्रतिबद्धता जताना। वर्ष 2012-13 और 2013-14 में लक्ष्य था राजकोषीय घाटे को कम करना, मुद्रास्फीति पर काबू पाना और आर्थिक वृद्धि। ऐसा कोई समावेशी लक्ष्य 2017-18 के बजट में नदारद है।
एक चीज साफ है: नोटबंदी ने सरकार और उसके प्रयासों पर अपना डरावना साया डाल दिया है।
सरकार अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकना चाहती है, पर नहीं जानती कि क्या जोखिम वह उठा सकती है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था, जिसकी रफ्तार साफतौर पर धीमी पड़ चुकी हो, और जो पर्याप्त रोजगार पैदा नहीं कर पा रही हो, उसके लिए मान्य उपाय यही है कि सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी की जाए। वित्तमंत्री का दावा है कि उन्होंने ऐसा ही किया है और उन्होंने कुल खर्च में बढ़ोतरी के आंकड़े भी दिए हैं- 2016-17 में 20,14,407 करोड़ रु. (संशोधित अनुमान) से बढ़ा कर 2017-18 में 21,46,735 करोड़ रु.। यह तथ्य प्रभावित करता है, पर तभी तक, जब तक कुल खर्चों को जीडीपी के अनुपात में (प्रतिशत में) रख कर नहीं देखते।
कटौतियां
जब सारे अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत थे और आर्थिक सर्वे ने भी सरकारी खर्चों में इजाफे की सिफारिश की थी, सरकार ने अपने खर्चों को जीडीपी के अनुपात में कम करने का फैसला किया। न केवल कुल खर्च में, बल्कि कई अहम मदों में भी 2017-18 के बजट में खर्च घटा दिए गए:
[जीडीपी के अनुपात में (प्रतिशत में)]
(2017-18 में अनुमानित जीडीपी 168,47,455 करोड़ रु.)
मद 2015-16 2016-17 2017-18
(संशोधित अनुमान) (बजट अनुमान)
कुल व्यय 13.09 13.36 12.74
राष्ट्रीय शिक्षा मिशन 0.20 0.19 0.18
मनरेगा 0.27 0.32 0.28
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना 0.13 0.13 0.11
फर्टिलाइजर सबसिडी 0.53 0.46 0.42
खाद्य सबसिडी 1.02 0.90 0.86
कृषिऋण पर ब्याज सबसिडी 0.10 0.09 0.09
वृद्धावस्था पेंशन (एनएसएपी) 0.06 0.06 0.06
मिड डे मील योजना 0.07 0.06 0.06
यहां तक कि रक्षा जैसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र के व्यय में भी कटौती कर दी गई। रक्षा सेवाओं (थलसेना, नौसेना, वायुसेना) का पूंजीगत व्यय इस प्रकार रहा:
2015-16 : 71,674 करोड़ रु., 2016-17 (बजट अनुमान) : 78,586 करोड़ रु., 2016-17 (संशोधित अनुमान): 71,515 करोड़ रु., 2017-18 (बजट अनुमान) : 78,078 करोड़ रु.।
निष्कर्ष साफ हैं। रक्षा मंत्रालय ने उम्मीद नहीं की थी कि वह 2016-17 में आबंटित की गई सारी राशि खर्च करेगा। उसने 7,071 करोड़ रु. कम खर्च किए, जो कि आबंटित राशि का करीब नौ फीसद है। लिहाजा वित्तमंत्री ने 2017-18 के लिए उसका बजट आबंटन 78,586 करोड़ रु. से घटा कर 78,078 करोड़ रु. कर दिया है। चूंकि ऐसा करना ‘अच्छा’ नहीं दिखेगा, इसलिए उन्होंने सेना के गोला-बारूद कारखानों, विकास एवं अनुसंधान और गुणवत्ता महानिदेशालय (डीजीक्यूए) को आबंटित राशियों को जोड़ कर आंकड़े को फुला दिया है!
अगर आप तालिका पर नजर डालें तो यह देख कर परेशान होंगे कि जीडीपी के अनुपात में 2016-17 के संशोधित अनुमान और 2017-18 के बजट अनुमान में- अहम सामाजिक योजनाओं की बाबत- कोई फर्क नहीं है, जैसे कि कृषि-ऋण पर ब्याज सबसिडी, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (वृद्धावस्था पेंशन) और मिड डे मील योजना। लाभार्थियों की संख्या बढ़ने की इजाजत देना और मिड-डे मील के मामले में लागत में बढ़ोतरी का मतलब है कि ‘स्थिर’ आबंटन असल में आबंटन में ‘कटौती’ ही साबित होगा।
सरकार पर हावी डर
सारी सलाहों के विपरीत, सरकार ने क्यों सिकुड़न की रणनीति अपनाई? इसकी जाहिर-सी वजह है ‘राजकोषीय घाटे का लक्ष्य पूरा करने के लिए’। लेकिन सिकुड़न की रणनीति के बावजूद वह इस लक्ष्य से चूक गई है। 2017-18 के बजट अनुमानों के मुताबिक राजकोषीय घाटा 3.2 फीसद रहेगा, जबकि 3.0 फीसद का लक्ष्य तय किया जाना चाहिए था। यह साफ है कि
* सरकार को डर है कि उसने 2017-18 में जीडीपी का बढ़-चढ़ कर पूर्वानुमान लगाया है; या
* राजस्व को लेकर सरकार की उम्मीदें अतिरंजित हैं और वे पूरी नहीं भी हो सकती हैं; या
* खर्च को लेकर सरकार के अनुमान वास्तविकता से कम हैं; या
* ऊपर बताए गए सभी कारण हो सकते हैं।
क्या सिकुड़न की रणनीति काम करेगी? क्या इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी और वृद्धि दर सात फीसद के ऊपर होगी? क्या यह रणनीति निजी निवेश को आकृष्ट करेगी? क्या इससे रोजगार पैदा होंगे? मुझे संदेह है।
सरकार को साहसिक और व्यापक सुधारों के साथ फैलाव की रणनीति अपनानी चाहिए थी। उसे विनिवेश का ज्यादा महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम लाना चाहिए था। उसे व्यय सुधार समिति की सिफारिशों (जिस समिति का गठन उसने खुद किया था) को लागू करके बेकार के तथा अनुत्पादक खर्चों में कटौती करनी चाहिए थी।
सरकार पर डर हावी है। ऐसा लगता है कि उसने साहसिक सुधारों से मुंह मोड़ लिया है।