मानव संसाधन विकास की हमारी परिकल्पना में बच्चों का विकास, बच्चों का स्वास्थ्य और बच्चों का पोषण शामिल नहीं है। ‘मानव संसाधन विकास’, वास्तव में, ‘शिक्षा’ का नया नाम है। सब कुछ से वास्ता रखने वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय की राजीव गांधी की परिकल्पना उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद ही छोड़ दी गई और आज इस नाम का मंत्रालय, पुराने शिक्षा मंत्रालय का ही दूसरा नाम है।
लगता है हम इस सच्चाई को भुला बैठे हैं कि शिक्षा बच्चे के लिए होती है। शिक्षा बच्चे की सारी संभावनाओं को तभी खोल सकती है जब वह सुपोषित और स्वस्थ हो। यह सही है कि हमने बच्चों को शिक्षित करने की खातिर कई पहलकदमियां की हैं, लेकिन उस बच्चे की दशा क्या है जिसे हम शिक्षित करना चाहते हैं और जिससे हम अच्छे नागरिक के रूप में विकसित होने की आशा करते हैं?राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 इस सर्वेक्षण-शृंखला की चौथी कड़ी है। यह सर्वेक्षण देश और प्रत्येक राज्य की आबादी, स्वास्थ्य और पोषण पर व्यापक जानकारी ( तथा आंकड़े) मुहैया कराता है। यह रिपोर्ट कुछ मायनों में उत्साहजनक और कई मामलों में निराशाजनक है।
स्तब्धकारी नतीजे
निश्चय ही, भारत ने आजादी से अब तक मानव विकास के कई मानकों पर उल्लेखनीय प्रगति की है। उदाहरण के लिए, 1947 से, जीवन प्रत्याशा 32 साल से 66 साल और साक्षरता 12 फीसद से 74 फीसद हो गई। कई मानकों पर, स्त्री-पुरुष विषमता कम हुई है। इस प्रगति के बावजूद, हमारे बच्चों की दशा लज्जा का विषय है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 के कुछ महत्त्वपूर्ण संकेतकों पर नजर डालें:
एनएफएचएस 2015 एनएफएचएस 2005-06
पिछले पांच वर्षों में जन्म के समय लिंगानुपात
(बालिकाएं प्रति 1000 बालकों पर) 919 914
शिशु मत्यु दर 41 57
पांच साल से छोटे बच्चों में मृत्यु दर 50 74
12 से 23 महीनों के बच्चों में पूर्ण टीकाकरण (प्रतिशत) 62.0 43.5
पांच वर्ष से छोटे बच्चे, जिनका विकास बाधित है 38.4 48.0
(जिनका कद उम्र के मुताबिक नहीं है)
पांच साल से छोटे बच्चे जो कमजोर हैं 21.0 19.8
(जिनका वजन कद के मुताबिक नहीं है)
पांच साल से छोटे बच्चे जो अत्यधिक दुर्बल हैं 7.5 6.4
पांच साल से छोटे बच्चे जिनका वजन उम्र के लिहाज से कम है 35.7 42.5
6 से 59 माह के बच्चे जो खून की कमी से पीड़ित हैं 58.4 69.4
स्वास्थ्य विज्ञान मानता है कि किसी बच्चे के प्रथम पांच वर्ष ही सामान्यत: यह निर्धारित करते हैं कि बाकी जीवन में उसका स्वास्थ्य और शारीरिक तथा मानसिक विकास कैसा होगा। भारत के बच्चों की दशा कैसी है? दो बच्चों में से एक खून की कमी से पीड़ित है, तीन में से एक का विकास बाधित है और वजन कम है, और पांच में से एक दुर्बल है। इसकी वजहें हैं अपर्याप्त भोजन, अल्प पोषण, खराब पेयजल और साफ-सफाई की बुरी हालत।
खाद्य सुरक्षा की उपेक्षा
संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार घोषणापत्र के बच्चों से संबंधित अधिकारों को मंजूरी देने वाले देशों में भारत भी है। घोषणापत्र के अनुच्छेद 24 (2) में कुछ अन्य बातों के अलावा, यह बात भी शामिल है:
‘‘संबंधित देश बीमारियों तथा कुपोषण से लड़ने के लिए उपयुक्त कदम उठाएंगे… जिनमें पर्याप्त पोषक आहार तथा साफ पेयजल मुहैया कराना शामिल है।’’
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 ‘पुसाने वाली कीमतों पर गुणवत्तायुक्त खाद्य की पर्याप्त मात्रा तक पहुंच सुनिश्चित करने के उद््देश्य से’ लागू किया गया था। इसमें हर व्यक्ति को प्रतिमाह पांच किलो अनाज देने का वादा किया गया था। गर्भवती तथा दूध पिलाने वाली माताओं, छह महीने से छह साल तक के बच्चों और कुपोषण से पीड़ित बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किए गए। एक साधारण ही सही, पोषण-मानक तय किया गया: विभिन्न श्रेणियों के लिए 500 से 800 कैलोरी और 12 से 25 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन। खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन पर नजर रखने के लिए हर राज्य में एक सरकारी खाद्य आयोग का गठन कानूनन अनिवार्य किया गया। 21 मार्च तक की स्थिति के मुताबिक, खाद्य सुरक्षा अधिनियम में किए गए वादे अब भी अधर में हैं; और नौ राज्य सरकारों ने खाद्य आयोग का गठन नहीं किया है। इस सूची में महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक जैसे बड़े राज्य भी शामिल हैं और छत्तीसगढ़, झारखंड तथा ओड़िशा जैसे गरीब राज्य भी। इस घोर उदासीनता के आरोपों का जवाब देने के लिए संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों को सर्वोच्च न्यायालय ने तलब किया है।
प्रतिबद्धता पर संदेह
हालांकि प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, पर बच्चों के प्रति केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता भी संदेहास्पद है। देखिए, महत्त्वपूर्ण मदों में केंद्र सरकार कितना कम खर्च करती है:
कुल व्यय के अनुपात (प्रतिशत) में
2013-14 2014-15 2015-16 2016-17
मानव संसाधन विकास मंत्रालय
4.57 4.24 3.75 3.65
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय
1.89 1.90 1.90 1.97
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
1.16 1.11 0.96 0.88
कुल 7.62 7.25 6.61 6.50
2013-14 में खर्च का जो स्तर था अगर बाद के वर्षों में सरकार ने उसे बनाए रखा होता, तो पिछले तीन साल में 6155 करोड़ रुपए, 18,087 करोड़ रुपए और 22,561 करोड़ रुपए की अतिरिक्तराशि खर्च की गई होती।
देश के बच्चों की देखभाल में सरकारें, खासकर राज्य सरकारें, एक के बाद एक, बुरी तरह नाकाम रही हैं। मेरे खयाल से, यह मसला, कानून व्यवस्था केबाद, सरकार के लिए सबसे महत्त्व का मसला है। उपेक्षा के चलते ही, हमारे मानव संसाधन की गुणवत्ता बेहद शोचनीय है। आर्थिक वृद्धि से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक, हर चीज हमारी मानव पूंजी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। जिस जनसंख्यात्मक शक्ति की हम डींग हांकते हैं, उसके एक जनसंख्यात्मक बोझ में बदल जाने का खतरा है।तमिल में इस आशय की एक कहावत है कि ‘बच्चे और देवता वहां रहते हैं जहां उनकी पूजा होती है।’ यह अफसोसनाक है कि हम देवताओं की पूजा भले करते हैं, मगर एक राष्ट्र के तौर पर, बच्चों के प्रति हमारा व्यवहार घोर उपेक्षा का है।