शब्दों की ताकत तमाम कामकाज पर भारी पड़ जाती है। वित्तमंत्री की आवाज इसीलिए ऊंची और साफ थी, जिसे कि वे सन्निकट गुजरात के चुनाव तक पहुंचना चाहते थे। उन्होंने कहा,‘‘ हम 2,11,000 करोड़ रुपए की पूंजी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को उपलब्ध कराएंगे; और हम नए कार्यक्रम की शुरुआत करेंगे,भारत माला, जिस पर 5,35,000 करोड़ खचेंगे और 34,800 किलोमीटर सड़क का निर्माण होगा।’’ उन्होंने यह भी कहा, ‘‘अर्थव्यवस्था का वृहत अर्थशास्त्रीय तात्त्विक ढांचा मजबूत है।’’ करीब-करीब क्षमामुद्रा में, यह भी जोड़ा,‘‘और हमने उसकी पहचान कर ली है कि हमें कहां खुराक बढ़ानी है, जिसके संबंध में हमने कुछ निर्णय लिए हैं।’’ आर्थिक मामलों के सचिव ने उनकी ताल से ताल मिलाते हुए कहा,‘‘ 2014-17 में तीन सालों के दौरान भारत ने बहुत मजबूत यानी 7.5 प्रतिशत की दर से प्रगति किया है।’
मगर सवाल यह है कि अगर भारत की अर्थव्यवस्था का आधारभूत ढांचा कसा हुआ है और विकास दर 7.5 प्रतिशत है तो इसे अतिरिक्त खुराक की कोई जरूरत नहीं है। इस हालत में अतिरिक्त खुराक स्फीतिकारी ही स/ाबित हो सकती है, क्योंकि वह राजकोषीय घाटा को बढ़ाएगी, चालू खाते में आय की कमी को और बदतर करेगी, वगैरह, वगैरह। स्पष्टरूप से, रोग को पहचानने में कुछ गड़बड़ हुई है।
गलत निदान
निदान करने में ज्यादातर अर्थशास्त्रियों और कस्टमर सर्विस आर्डर (सीएसओ) के नंबरों में अंतर है। आइए, विचारों को एक तरफ रख दें, और नंबरों पर केंद्रित करें। जनवरी-मार्च 2016 तक सकल घरेलू उत्पाद का क्रमिक तिमाही विकास-दर 9.1, 7.9, 7.5 और 5.7 प्रतिशत रहा है। बहरहाल, अर्थव्यवस्था 7.5 की दर से नहीं बढ़ रही है। इसकी गति तो तेज थी मगर पटरी से उतर गई। इसमें अप्रैल, 2016 से मंदन लगना शुरू हो गया। यह निदान की पहला खोट निकली।
दूसरी बात कि ज्यादा गंभीर खोट की पहचान ही नहीं की गई कि मंदन की वजह क्या थी। संत तिरुवल्लूवर ने कहा था : नोई नदी नोई आथू थनिक्कुम
वाई नदी वइप्पा चेयल।
( निदान सावधानी से करें, सहीं कारणों का पता लगाएं, सही उपचार के बारे में सोचें, और इसे प्रभावी ढंग से लागू करें।)
सावधानीपूर्वक किया गया निदान यह रहस्य खोलेगा कि इंजन की चरमराहट का निकटस्थ कारण है निजी निवेश,निजी खपत और निर्यात। सरकार के दो फैसले विकास के इंजन की सुस्ती पर संक्षिप्त प्रभाव डालेंगे।
पुनर्पूंजीकरण रामबाण नहीं है
बैंकों का पुनर्पूंजीकरण अपने आप में अच्छा है और इसका स्वागत करता हूं। राइट-आॅफ होने से बैंकों की पूंजी कम हुई है। अभी राइट-आॅफ के और मामले हैं। बारह कंपनियां ऋणशोधन प्रस्ताव के लिए संदर्भित की गई हैं और कुछ अदालत का भी रुख कर सकती हैं। बैंक को तिजोरी भरने से वे अपनी पूंजी क्षमता का कायम कर सकते हैं। उधार देने की उनकी क्षमता में वृद्धि होगी, लेकिन इसका मतलब यही नहीं होगा कि उनकी उधारी बढ़ेगी।
कोई उद्यमी यह विश्वास नहीं कर सकता कि आज की स्थिति व्यापार को बढ़ाने या चालू करने के लिए सहायक नहीं है। (दर्ज किया जाए कि सरकार अब ज्यादा देर ‘ईज आॅफ डूइंग बिजनेस’ के बारे में या विश्व की अव्वल पचास जगहों की रैंकिंग की बात नहीं कर सकती।) जब तक निजी निवेशक अपनी इस भूख का पता नहीं लगा लेते कि उन्हें कहां निवेश करना है (जिसमें उनका निजी पैसा और बैंकों से लिया हुआ उधार शामिल है), तब तक केवल बैकों की तिजोरी भरने से निजी-निवेश का पुनरारंभ नहीं होगा। सर्वाधिक जरूरत है कि छोटे और मझोले उद्यमों ( एसएमई)में निवेश की खुराक देने की। है क्या कि बैंक छोटे उद्यमियों को उनकी जमा जरूरत के सापेक्ष महज दस फीसद कर्ज देते हैं। बैंकों का पुनर्पंूजीकरण छोटे और मझोले उद्योगों के लिए कमोबेश मुश्किल ही खड़ी करेगा।
इसके अलावा, सरकार के प्रस्ताव के नकारात्मक पहलू ही नजर आ रहे हैं। सरकार बांड जारी करेगी, बैंक उसकी खरीदारी करेंगे, और सरकार उस धन को उसी बैंक में शेयर की तरह जमा रखेगी। यह तो वही वाली कहावत हुई, ‘पीटर से लो, पीटर को दो!’ नतीजा यह कि; राजकोषीय घाटा अपनी सारी संभावनाओं में, उलट नतीजे देने वाला सिद्ध होगा।
वास्तव में पुनर्पंूजीकरण एक अर्द्ध-सुधार है, जिसे तीन साल देरी से शुरू किया गया, जैसाकि 25 अक्तूबर को नए मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी रेखांकित किया है। मुख्य आर्थिक सलाहकार के मुताबिक, इसी के ‘साथ’ (मैं कहना चाहूंगा कि ‘पहले’) बैंकिंग सुधारों और कड़े सरकारी मानकों की जरूरत थी। उनके भाषण का तीसरा हिस्सा पढ़ें। इस सहगामी सुधार के बारे में सरकार की ओर से एक शब्द भी नहीं बोला गया है।
सड़क योजना, महज घोषणा
दूसरा प्रस्ताव, 34,800 किलोमीटर सड़क बनाने का है। यह संख्या राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण परियोजना के 10,000 किलोमीटर के प्रस्ताव में पहले से ही शामिल है। बाकी में आर्थिक गलियारा,फीडर रूट, दक्षता सुधार, सीमा सड़क और बंदरगाह की सड़कें हैं। किसी भी काम के शुरू होने के पहले कुछ बुनियादी तैयारियां होती हैं, हर नई सड़क परियोजना के लिए पहले डीपीआर (विस्तृत परियोजना रिपोेर्ट) तैयार की जाती है।
सरकार से अनुमति ली जाती है, जमीन की जरूरत होती है, परियोजना की निविदा जारी की जाती है, वित्तीय मसविदा तैयार होता तथा पथकर वगैरह तय होता है। कहीं से इस बात के कोई आसार नहीं है कि अगले अठारह महीने में 34,800 किलोमीटर की सड़क शुरू हो पाएगी या बन पाएगी।
फिर भी बहुत सारी चीजें हैं, जिसे सरकार कर सकती थी। वह यह घोषित कर सकती थी कि वह विमुद्रीकरण जैसे अविचारी और दुस्साहसिक कदम नहीं उठाएगी। वह दोषपूर्ण जीएसटी के क्रियान्वयन में दिखाई गई जल्दबाजी से उपजी बदइंतजामी का निर्धारण करने के लिए बाहरी विशेषज्ञों के समूह को बुला सकती थी। यह वादा किया जा सकता था कि कर कानूनों में किए गए कड़े बदलावों को रद्द किया जाएगा और कर-अधिकारियों को दिए गए अतिरिक्त अधिकारो में कटौती की जाएगी। यह वादा भी हो सकता था कि उद्यमियों को आतंकित करने की जांच एजेंसियों की लगाम कसी जाएगी।
इनमें से किसी में भी सरकार की रुचि नहीं दिखती, सिवाय, जुमला की बारिश ( चुनावी बौछार)के। आइए, हम अपने आप को बेरोजगारी विकास और युवाओं में पसरी मायूसी से खुद को जकड़ लें।