विकास सिंह मौर्य

रघु ठाकुर के लेख ‘गांधी निंदा के नए प्रयोग’ (3 अप्रैल) में गांधी को लेकर उनकी जानकारी और विश्लेषण शैली सराहनीय है। मगर अफसोस कि मौकापरस्त राजनेताओं की तरह रघुजी को गांधी का विरोध राष्ट्र-विरोध जान पड़ता है।

पता नहीं रघु ठाकुर मार्कंडेय काटजू को अल्पज्ञ घोषित करके क्या साबित करना चाहते हैं। क्या वे कम्युनिस्टों को राष्ट्रहित के विरुद्ध मानते हैं? अगर मानते हैं तो क्यों? क्या कम्युनिस्ट होना भारत-विरोधी होना है? रघु साहब राष्ट्र और राष्ट्रभक्ति को किस संदर्भ और प्रसंग से व्याख्यायित करना चाहते हैं। क्या उनकी राष्ट्र की परिभाषा चंद पूंजीपतियों के हितों की परिभाषा है, जिनसे सहयोग लेकर गांधीजी भी अपने आंदोलनों की शक्ति संचित और संचालित करते थे। सवाल की गंभीरता इस तथ्य में निहित है कि गांधी ने कभी इन देशी शोषकों और इनके पोषकों के खिलाफ आंदोलन करना तो दूर, एक भी लफ्ज नहीं कहा!

गांधीजी ने नारा दिया ‘करो या मरो’। इस नारे का सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो इसकी तह में एक और सवाल उभर कर आता है कि जो व्यक्ति कभी अहिंसा को अपना सबसे बड़ा हथियार समझता था, एक समय वही मरने-मारने की बात कैसे करने लगा। गांधी के समांतर आंबेडकर के आंदोलन को देखें तो दोनों की वैचारिकी और कार्यशैली में गंभीर अंतर्विरोध थे। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के बाद दलितों को मिले पृथक निर्वाचन अधिकार को गांधी की जिद के कारण ही वापस लेना पड़ा था। मैं इसे जिद इसलिए कहता हूं क्योंकि यह गांधी, आंबेडकर, मैकडोनाल्ड और तत्कालीन भारत सचिव के पत्रों का अवलोकन करने के बाद कोई भी व्यक्ति गांधी को जिद्दी ही कहेगा।

एक तरफ गांधी अंगरेजी शासन का विरोध कर रहे थे तो दूसरी तरफ आंबेडकर भारतीय समाज की कोढ़ बन चुकी धार्मिक व्यवस्था और जाति-व्यवस्था की परतें उधेड़ रहे थे।

इससे गांधीजी का वर्गीय स्वार्थ नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा था। आंबेडकर से प्रभावित गांधीजी ने भी अछूतोद्धार का कार्यक्रम चलाया और आंबेडकर ने अछूतों की स्थिति में सुधार का। अभी तक यह सवाल अनुत्तरित ही है कि गांधी के साथ कांग्रेस और तत्कालीन बड़े पूंजीपतियों आदि का व्यापक समर्थन होने के बावजूद गांधी इस महान कार्य में इतना सफल क्यों नहीं हो सके, जितना आंबेडकर अकेले दम पर हुए थे। स्पष्ट है कि गांधीजी एक मंजे हुए रणनीतिक और कूटनीतिक व्यक्ति थे, जो भारतीय समाज में क्रमिक असमानता को खत्म नहीं होने देना चाहते थे। छुआछूत के मसले पर मुंबई में हुई उस घटना को रघु साहब याद करें, जब गांधीजी ने एक अछूत के हाथ का पानी पीने से इनकार कर दिया था।

इस प्रकार गांधी के विरोध में आंबेडकर की स्थिति लगातार मजबूत होती जा रही थी, जिससे घबरा कर अहिंसा को धर्म मानने वाले गांधीजी एक दिन करो या मरो कहने के लिए मजबूर हुए।

रघु साहब का मार्कंडेय काटजू की पारिवारिक पृष्ठभूमि का हवाला देना आखिर कौन-सा विवेकशील लोकतांत्रिक तरीका है। क्या किसी व्यक्ति के कुछ विचार अपने पूर्वजों से अलग होना कोई अपराध है? इसके साथ परिवार के सम्मान को जोड़ कर देखना कहां तक उचित है! रघु साहब की इस बात की जड़ में भी संकीर्ण ब्राह्मणवादी-जातिवादी मानसिकता दिखाई पड़ती है, जो यही उपदेश देती है कि अपने बाप-दादों का काम करना ही आने वाली संतानों का आदर्श होना चाहिए!

उन्होंने कहा है कि दुनिया में सर्वाधिक स्वीकार्यता गांधी की है। उन्होंने गांधी को विश्व मानवता का सबसे बड़ा पुजारी सिद्ध करने का प्रयास किया है। पर उनसे विश्लेषणात्मक जवाब की आशा के साथ एक सवाल यह भी है कि गांधी जिस देश में पैदा हुए, उनके अनगिनत अनुयायी जहां रहते हैं, क्या वह भारत और भारतीय सरकार मानवतावादी हो पाई है? आखिर कमियां कहां रह गई हैं।

अपनी कमियों को उजागर और गलतियों को स्वीकार करना निश्चय ही साहसपूर्ण कार्य है और यह गांधीजी ने किया। पर क्या गलतियां मान लेने से ही किसी का अपराध खत्म हो जाता है? अगर ऐसा होता तो न्यायालयों की कोई प्रासंगिकता न होती। गांधी अपने किए बहुत-से गलत कार्यों को अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर गलत स्वीकार नहीं कर पाए।

आंबेडकर का एक वक्तव्य, जो बाद में ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, उसमें आंबेडकर ने गांधी के बारे में जो कुछ कहा है, उससे रघु साहब किस तरह असहमत हैं।

गांधी को पाखंडी कहने पर रघु साहब ने काटजू की धारा तीन सौ सत्तर के हवाले से पड़ताल की है। पर उनसे सवाल है कि क्या कभी काटजू साहब ने जम्मू-कश्मीर में धारा तीन सौ सत्तर का समर्थन किया था? रही बात गांधी के सचबयानी की, तो मैं इसका कायल हूं। भले लोग न समझ पाए हों, पर गांधीजी ने तो सार्वजनिक रूप से कहा था कि मैं जाति-व्यवस्था का समर्थक हूं, वर्णवाद, हिंदू धर्म का समर्थक हूं आदि। फिर भी इसमें सुधार का ढोंग करके पिछड़ों-दलितों को बेवकूफ बनाने में गांधी पूर्णतया सफल रहे हैं।

गांधीजी किसी भी सत्ता के खिलाफ थे, ऐसा लेखक का कहना है। पर उनकी अंतरात्मा की आवाज का मामला क्या है। जो हमेशा एक अड़ियल रुख अख्तियार कर लेती थी, जो अनेक बार नकारात्मक परिणाम लेकर आई है। सरदार पटेल की जगह नेहरू को सत्ता दिलाने की पूरी कोशिश के पहले भी पूना पैक्ट आदि मुद्दों पर गांधीजी ने जो कुछ किया वह किस प्रकार से लोकतांत्रिक था? सत्याग्रह को उन्होंने प्रेम का रूप माना, पर कितनी बार आंबेडकर, सुभाषचंद्र बोस और कम्युनिस्टों के प्रति उनका प्रेम दिखा।

एक तरफ तो हर आमूल परिवर्तनकामी और क्रांतिकारी मार्ग का विरोध गांधीजी ने अहिंसा के नाम पर किया, ऐसी लेखक की स्थापना है। पर गांधीजी मुझे तो यथास्थितिवादी और परिवर्तन-विरोधी नजर आते हैं, जहां पर उनका वर्गीय हित सर्वोच्च साध्य नजर आता है। लेखक गांधी और सुभाष बाबू द्वारा चलाए जा रहे आंदोलनों में समानता स्थापित करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं?

लेखक की एक स्थापना है कि गांधीजी धर्म को मानते थे, कम्युनिस्ट अधर्मी होते हैं। सवाल है कि गांधी कैसे धर्म को मानते थे? क्या आंख, कान और मुंह बंद करके तमाम सामाजिक बुराइयों, सामाजिक समस्याओं, मसलन चोरी, बलात्कार, हत्या, भ्रष्टाचार आदि को अनदेखा-अनसुना करने वाले और उसके बारे में बात करने से रोकने वाले धर्म को। क्या जातिवाद और अन्य विश्वास के विषवृक्ष को खाद-पानी देकर शोषण, विषमता और अन्याय को बढ़ावा देने वाले धर्म को?

अगर गांधीजी को बुराई इतनी ही नापसंद थी तो सीधे कह सकते थे कि ‘बुरा मत बनो’। वास्तविक धर्म तो समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व के मानवीय सिद्धांतों पर आधारित होता है। अगर गांधी के धर्म में ये बातें मिलती हैं तो स्पष्ट करें और अगर नहीं तो धर्म कैसा?

इतिहास ‘आस्था की नहीं, विश्लेषण की विषय-वस्तु है’ और इसे उसी रूप में देखना चाहिए।

 

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