उर्दू में गजल शायरी की केंद्रीय विधा है। मगर वही गजल जब हिंदी (देवनागरी लिपि) में आती है तो हाशिए की विधा बन कर रह जाती है। हिंदी काव्य-जगत में कवि जितने आत्मसम्मान और रुतबे के साथ चर्चा में रहते हैं, पत्र-पत्रिकाओं के कई-कई पृष्ठों में एक साथ छपते हैं, वह माहौल हिंदी गजलकारों को कभी हासिल नहीं हुआ। वहां हिंदी गजलकारों का न रुतबा है, न हैसियत! उनकी गजलों का प्राय: फिलर के रूप में छपना, औकात का अहसास कराता है।
औकात और हैसियत का खेल हिंदी काव्य में अनायास या संयोगवश नहीं हुआ। ऐसा जानबूझ कर नामवर आलोचकों (और कुलीन कवियों) द्वारा किया जाता रहा। हिंदी कविता चर्चा के केंद्र में रही, पर हिंदी गजल हाशिए पर तड़पती रही। नतीजा क्या निकला? हिंदी गजल हाशिए की विधा और हिंदी कविता पाठक-विहीन विधा।
हिंदी कविता ने विकास किया है, तो हिंदी गजल ने भी किया है। दुष्यंत अगर हिंदी गजल के परंपरा पुरुष हैं (इस परंपरा की जड़ें शमशेर बहादुर सिंह की गजलगोई में हैं- यकीनन!) तो उसके बाद हिंदी गजल का विस्तार और विकास चकित करने वाला है। लेकिन इस विस्तार और विकास पर मजाल है कि किसी हिंदी कविता के आलोचक ने दो शब्द भी कहे हों। विधाएं अवाम का मुशतरका दर्द लेकर चलती हैं। अवाम के कष्ट और तड़प को अगर हिंदी कविता अपने प्रखर रूप में व्यक्त करने में सफल हुई है, तो हिंदी गजल के एक-एक शेर में अवाम की बेचैनी, समाज की निस्संगता, संघर्ष, जद्दोजहद, कष्ट, अकेलापन, रिश्तों का विखंडन, सियासत के प्रपंच बड़ी सलाहियत से व्यक्त हुए हैं। हिंदी गजल समाज की गजल है। वैचारिकता इसके रंग-रेशे (मिसरों, काफिया-रदीफ और विषयवस्तु तक) में शामिल है।
हिंदी गजल को जरा संवेदनशील नजरों से देखें और इत्मीनान से इसका मुतालिया (अध्ययन) करें तो समझ में आएगा कि यह हमारे समय की सबसे सशक्त कविता है, जिसमें लय है, रवानी है, मितकथन है और दो पंक्तियों (एक शेर) में भरपूर बात कहने की हुनरमंदी है।
हिंदी कविता के आलोचकों को इस बात का रत्ती भर अफसोस नहीं कि हिंदी काव्य की बेहद सशक्त विधा (हिंदी गजल) को उन्होंने अपनी बौद्धिक हठधर्मिता और चतुराई से पिछले तीस-चालीस वर्षों से खारिज किए रखा। अगर ऐसा न हुआ होता, तो कितना खूबसूरत मंजर होता। हिंदी कविता और हिंदी गजल का एक साथ मूल्यांकन होता। इधर जो हिंदी गजल में बाजार की आमद हुई है, वह न होती। आलोचक ऐसी बाजारवादी सोच को फटकार लगाते। तब, गजल कविसम्मेलनी विधा न बन पाती। तब, हिंदी गजल गोष्ठियों, नशिस्तों और सेमिनार की विमर्शतलब विधा होती।
लेकिन आज हिंदी गजल में जिस सम्मेलनी प्रवृत्ति ने ‘रचना का पतनकाल’ पैदा किया, वह चिंता का विषय है। सम्मेलनी गजलकार जब गजल कहता है, तो वह गजल का नहीं, बाजार का उच्चारण कर रहा होता है। अदब की दुनिया में हर अदीब अपनी रचना के लिए जीता-मरता है। लेकिन सम्मेलनी गजलकारों की विचित्र अवस्था है कि वे अपनी रचना के क्षरण पर बेपरवाह रहते हैं। उनकी सबसे बड़ी चिंता सम्मेलन में मिलने वाले ‘लिफाफे’ की होती है। यही वजह है कि सम्मेलनी गजलकारों की गजलें भी भुरभुरे लिफाफे जैसी हो चुकी हैं।
ये तमाम गजलकार दुष्यंत की लोकप्रियता से इस कदर प्रभावित हुए कि अपना गीत का क्षेत्र छोड़ कर हिंदी गजल के पुरोधा बन बैठे। पहले इन्होंने गीत का वातावरण नष्ट किया, अब हिंदी गजल की बारी है। ये गजलकार जिस तरह की रूमानी, लिजलिजी, भावुक, विचारहीन, कंटेंटविहीन गजलें लिख रहे हैं, उससे उनकी रचनात्मकता तो आहत हो ही रही है, हिंदी गजल का भी बहुत नुकसान हो रहा है।
हिंदी गजल के वरिष्ठ और पापुलर गजलकार गजलें लिखते रहे और उनके लिए बाजार की तलाश करते रहे। अफसोस, इन्होंने हिंदी गजल में आलोचना की तलाश नहीं की। ये इस बात से बिलकुल बेफिक्र रहे कि हिंदी गजल में न आलोचना है, न मूल्यांकन। इन्होंने मंच पर गजलें सुनार्इं और वहां श्रोताओं की तालियां गजल का मूल्यांकन हो गर्इं। इसलिए ज्यादा से ज्यादा तालियों के लिए ये पापुलर और बाजारवादी गजलकार ‘परफार्मर’ बन गए। गजल की अदायगी पर बल दिया जाने लगा और गजलें जनता की मांग पर लिखी जाने लगीं। उनमें कूट-कूट कर भावुकता भरी जाने लगी। विचार तत्त्व क्षीण हो गया। स्त्री पात्र और उससे रूठने-मनाने की बातें सम्मेलनी हिंदी गजल का मुख्य विषय बन गया।
कितना अच्छा होता, अगर गीत से हिंदी गजल में प्रविष्ट हुए रचनाकार सम्मेलनी वातावरण के विपरीत हिंदी गजल की छोटी-छोटी गोष्ठियां आयोजित करते। गजल को विमर्शपरक बनाते। हिंदी गजल पर सेमिनार, कार्यशालाएं होतीं। आलोचना और मूल्यांकन का माहौल बनता। हिंदी कविता के विद्वान आलोचक अगर हिंदी गजल की अनदेखी कर रहे थे, तो दुष्यंत के बाद गजल के क्षेत्र में उतरे गजलकार, आलोचना की कमान खुद संभालते। तब, हिंदी गजल का माहौल दूसरा होता। तब, हिंदी गजल हिंदी कविता के सामने शाना-ब-शाना खड़ी होती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब आलम यह है कि जब लोकप्रिय सम्मेलनी गजलकारों की पुस्तक प्रकाशित होती है तो वे किताब लिए-लिए फिरते हैं और कोई समीक्षा लिखने वाला नहीं मिलता। अपनी गजलों का तालियों से मूल्यांकन करवाने वाले, एक अदद समीक्षक की तलाश में भटकते रहते हैं। आपने गजल का बाजार तो पैदा किया, आलोचना पैदा नहीं की।
दलील यह दी जाती है कि उर्दू गजल में भी मुशायरे की परंपरा है। बेशक है। लेकिन वहां आलोचना और मूल्यांकन के लिए माकूल जगह है। वहां एक होड़-सी होती है। हर शायर दूसरे शायर से ज्यादा बेहतर, ज्यादा जदीद, ज्यादा पुख्ता और बा-शऊर नजर आने की कोशिश में अपनी गजल को मांजता रहता है। मुशायरे की खूबी यह भी है कि मंच पर बैठे शायर ही नहीं, श्रोता भी शायरी की समझ रखने वाले होते हैं। वे अच्छे शेर पर ही दाद देते हैं। वहां मेयारी शायरी की कद्र होती है। बेशक, मुशायरे में भी गिरावट आने लगी है।
खोटे सिक्कों की बहुतायत खरे सिक्कों को बाहर कर देता है। हिंदी की कविसम्मेलनी गजल में खोटे सिक्कों की बहुतायत है। बाजारवादी हिंदी गजलकार कभी नहीं चाहेंगे कि उसमें आलोचना जैसा तत्त्व पैदा हो। वे यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं। लेकिन अदब की दुनिया में यह फरेब नहीं चलता। हिंदी में सम्मेलनी, बाजारवादी रवैए के विपरीत सशक्त और संवेदना से भरपूर गजलें लिखी जा रही हैं। यह हिंदी गजल का सच्चा, परिपक्व और उज्ज्वल परिदृश्य है। इस परिदृश्य के हिंदी गजलकार बेमकसद गजलें नहीं लिखते। वहां विषयगत व्यापकता और विराट अनुभव संसार है।
यह उत्तर-आधुनिक समय है। अनेक विमर्श अदब की दुनिया में हलचल पैदा कर रहे हैं। भूमंडलीकरण, बाजारवाद, दलित विमर्श, लोक चेतना और स्त्री-विमर्श, हिंदी गजल में नुकीली एकाग्रता के साथ व्यक्त हो रहे हैं। गजल के इस परिदृश्य में कथ्य की सार्थकता, शेर की अभिव्यक्ति में लोच, लय और रवानी के साथ विसंगति का प्रतिवाद है।
आलोचनाहीनता के बावजूद हिंदी गजल में कुछ अच्छे काम हो रहे हैं। प्राय: हर लघु पत्रिका देवनागरी में लिखी जा रही गजलें छाप रही है। हिंदी गजल पर केंद्रित अनेक विशेषांक प्रकाशित हुए हैं। आलोचकों ने हिंदी गजल को हमेशा की तरह खारिज नहीं किया, बल्कि उसके प्रति भरोसा जताया है। समकालीन कवियों और लघु पत्रिकाओं के संपादकों के विचारों से स्पष्ट होता है कि हिंदी गजल के प्रति न कोई वैरभाव है, न कोई पूर्वाग्रह। आने वाले समय में हिंदी गजल, हिंदी काव्य की विशिष्ट विधा के रूप में स्वीकार की जाएगी- हिंदी गजल की विषयगत व्यापकता से ऐसा यकीन होता है।