एक तो अति विस्तृत, अगम्य अंधकारमय जंगल, उस पर रात्रि का समय। पतंग उस जंगल में रहते हैं, लेकिन कोई चंू तक नहीं बोलता है। शब्दमय पृथ्वी की निस्तब्धता का अनुमान किया नहीं जा सकता है; लेकिन उस अनंत शून्य जंगल के सूचीभेध अंधकार का अनुभव किया जा सकता है। सहसा इस रात के समय की भयानक निस्तब्धता को भेद कर ध्वनि आई, ‘मेरा मनोरथ क्या सिद्ध न होगा?’
इस तरह तीन बार वह निस्तब्ध अंधकार आलोड़ित हुआ, ‘तुम्हारा क्या प्रण है?’ उतर मिला, ‘मेरा प्रण ही मेरा जीवन सर्वस्व है।’
प्रतिशब्द हुआ, ‘जीवन तो तुच्छ है, सब इसका त्याग कर सकते हैं।’
‘तब और क्या है… और क्या होना चाहिए?’
उत्तर मिला, ‘भक्ति।’

संन्यासी आंदोलन और बंगाल अकाल की पृष्ठभूमि पर लिखी बाकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की कालजयी कृति ‘आनंदमठ’ की शुरुआत इस प्रकरण से होती है। आनंदमठ 1882 में छपी थी। राष्ट्रभक्ति और हिंदुत्व की प्रधानता के भाव की वजह से इस कृति का विशिष्ट स्थान है। इसके एक गीत ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रीय गीत का दर्जा भी प्राप्त है।

बाकिमचंद्र की कहानी सूखा ग्रस्त बंगाल के एक गांव पदचिह्ना से शुरू होती है, जहां के जमींदार महेंद्र सिंह अपनी बदहाली से त्रस्त होकर अपनी पत्नी कल्याणी और बेटी सुकुमारी के साथ भोजन की व्यवस्था करने के लिए घर से निकलते हैं, पर अप्रत्याशित उनसे बिछड़ जाते हैं। कल्याणी कुछ डकैतों के चुंगल में फंस जाती है, पर जल्द ही वहां से बच निकलती है। उसकी मुलाकात सत्यानंद से होती है, जो आनंदमठ के प्रधान हैं। वे कल्याणी को अपने मठ में शरण देते हैं और अपने संन्यासी साथी भवानंद को महेंद्र सिंह को ढूंढ़ने भेज देते हैं।

इस बीच ईस्ट इंडिया कंपनी का राजस्व कलकत्ता भेजा जा रहा था और अंग्रेज फौजें जंगल में चौकसी कर रही थीं। महेंद्र और भवानंद को जंगल में घूमता देख कर वे दोनों को पकड़ लेती हैं। उनकी बंदी अवस्था के चलते, संन्यासियों का एक जत्था कंपनी के राजस्व को लूटने के लिए हमला करता है और उन्हें छुड़ा लेता है। मठ की तरफ जाते हुए महेंद्र भवानंद को लूट और हत्या के लिए धिक्कारता है, पर उसकी बातों का जवाब देने के बजाय भवानंद वंदे मातरम गा उठता है।

अपनी धरती को मां की तरह पहचानने का पाठ महेंद्र आनंदमठ में रह कर पढ़ता है और जल्दी ही वह संन्यासियों से एक हो जाता है। वह भी अपनी धरती मां का गौरव और प्रतिष्ठा और उसकी संपन्नता को पुनर्स्थापित करने का व्रत लेता है। अंत में, सत्यानंद के नेतृत्व में संयासी समुदाय अंग्रेजी फौज को बुरी तरह परास्त करता है और खजाना अपने आधीन कर लेता है। यह परम वीरता और उल्लास का क्षण था, जिसमें हिंदू राष्ट्र की पहली स्वर्णिम किरण क्षितिज पर साफ दिख रही थी, पर आनंदमठ की कहानी एक आखिरी मोड़ लेती है।
अंतिम अंश इस प्रकार है :
‘चिकित्सक बोले- ‘सत्यानंद! आज माघी पूर्णिमा है।’

सत्यानंद- ‘चलिए मैं तैयार हूं। किंतु महात्मन्! मेरे एक संदेह को दूर कीजिए। मैंने क्या इसीलिए युद्ध-जय कर सनातन-धर्म की पताका फहराई थी?’
जो आए थे, उन्होंने कहा- ‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलिम राज्य ध्वंस हो चुका। अब तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं, अनर्थक प्राणहत्या की आवश्यकता नहीं!’
सत्यानंद- ‘मुसलिम राज्य ध्वंस अवश्य हुआ है, किंतु अभी हिंदू राज्य स्थापित हुआ नहीं है। अब भी कलकत्ते में अंगरेज प्रबल है।’
वे बोले- ‘अभी हिंदू-राज्य स्थापित न होगा। तुम्हारे रहने से अनर्थक प्राणी-हत्या होगी, अतएव चलो!’
यह सुन कर सत्यानंद तीव्र मर्म-पीड़ा से कातर हुए, बोले- ‘प्रभो! यदि हिंदू-राज्य स्थापित न होगा, तो कौन राज्य होगा, क्या फिर मुसलिम-राज्य होगा?’
उन्होंने कहा- ‘नहीं, अब अंगरेज-राज्य होगा।’

सत्यानंद की दोनों आंखों से जलधारा बहने लगी। उन्होंने सामने जननी-जन्मभूमि की प्रतिमा की तरफ देख हाथ जोड़ कर कहा- ‘हाय माता! तुम्हारा उद्धार न कर सका। तू फिर म्लेछों के हाथ में पड़ेगी। संतानों के अपराध को क्षमा कर दो मां। रणक्षेत्र में मेरी मृत्यु क्यों न हो गई?’
महात्मा ने कहा- ‘सत्यानंद कातर न हो। तुमने बुद्धि विभ्रम से दस्यु वृत्ति द्वारा धन संचय कर रण में विजय ली है। पाप का कभी पवित्र फल नहीं होता। अतएव तुम लोग देश-उद्धार नहीं कर सकोगे। और अब जो कुछ होगा, अच्छा होगा। अंगरेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नहीं हो सकेगा।

महापुरुषों ने जिस प्रकार समझाया है, मैं उसी प्रकार समझाता हंू- ध्यान देकर सुनो। तैंतीस कोटि देवताओं का पूजन सनातन धर्म नहीं है। वह एक तरह का लौकिक निकृष्ट-धर्म है, हिंदू धर्म लुप्त हो गया है। प्रकृति हिंदू धर्म ज्ञानात्मक-कार्यात्मक नहीं। जो अंतर्विषक ज्ञान हैं, वही सनातन धर्म का प्रधान अंग हैं। लेकिन बिना पहले वहिर्विषयक ज्ञान हुए अंतर्विषयक ज्ञान असंभव है। स्थूल देखे बिना सूक्ष्म की पहचान ही नहीं हो सकती।

बहुत दिनों से इस देश में वहिर्विषयक ज्ञान लुप्त हो चुका है- इसीलिए वास्तविक सनातन धर्म का भी लोप हो गया है। सनातन धर्म के उद्धार के लिए पहले वहिर्विषयक ज्ञान-प्रचार की आवश्यकता है। इस देश में इस समय वह वहिर्विषयक ज्ञान नहीं है- सिखाने वाला भी कोई नहीं, अतएव बाहरी देशों से वहिर्विषयक ज्ञान भारत में फिर लाना पड़ेगा। अंग्रेज उस ज्ञान के प्रकांड पंडित हैं- लोकशिक्षा में बड़े पटु हैं। अत: अंग्रेज के ही राजा होने से, अंग्रेजी की शिक्षा से स्वत: वह ज्ञान उत्पन्न होगा! जब तक उस ज्ञान से हिंदू ज्ञानवान, गुणवान और बलवान न होंगे अंगरेज राज्य रहेगा। उस राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे। अंगरेजों से बिना युद्ध किए ही, निरस्त्र होकर मेरे साथ चलो।’

सत्यानंद ने कहा- ‘महात्मन्! यदि ऐसा ही था, अगर अंग्रेजों को ही राजा बनाना था, तो हम लोगों को इस कार्य में प्रवृत्त करने की क्या आवश्यकता थी?’
महापुरुष ने कहा- ‘अंग्रेज उस समय बनिया थे- अर्थ संग्रह पर ही उनका ध्यान था। अब संतानों (संन्यासियों) के कारण ही वे राज्य-शासन हाथ में लेंगे, क्योंकि बिना राजत्व किए अर्थ-संग्रह नहीं हो सकता। अंगरेज राजदंड लें, इसलिए संतानों का विद्रोह हुआ है। अब आओ, स्वयं ज्ञानलाभ कर दिव्य चक्षुओं से सब देखो, समझो!’

सत्यानंद- ‘हे महात्मा। मैं ज्ञान लाभ की आकांक्षा नहीं रखता- ज्ञान की मुझे आवश्यकता नहीं। मैंने जो व्रत लिया है, उसी का पालन करूंगा। आशीर्वाद दीजिए कि मेरी मातृभक्ति अचल हो!’

महापुरुष- ‘व्रत सफल हो गया- तुमने माता का मंगल साधन मवाल-स्थान किया- अंग्रेज राज्य तुम्हीं लोगों द्वारा स्थापित समझो। युद्ध विग्रह का त्याग करो- कृषि में नियुक्त हो, जिससे पृथ्वी शस्य शालिनी हो, लोगों की श्रीवृद्धि हो।’
सत्यानंद को आंखों से आंसू निकलने लगे, बोले- ‘माता को शत्रु-रक्त से शस्यशालिनी करूं?’

महापुरुष- ‘शत्रु कौन है? शत्रु अब कोई नहीं, अंगरेज हमारे मित्र हैं। फिर अंगरेजों से युद्ध कर अंत में विजयी हो- ऐसी अभी किसी की शक्ति नहीं है।’
सत्यानंद- ‘न हो, यहीं माता के सामने मैं अपना बलिदान चढ़ा दूंगा।’

महापुरुष- ‘अज्ञानवश! चलो, पहले ज्ञानलाभ करो। हिमालय-शिखर पर मातृ-मंदिर है, वहीं तुम्हें माता की मूर्ति प्रत्यक्ष होगी।’
यह कह कर महापुरुष ने सत्यानंद का हाथ पकड़ लिया। कैसी अपूर्व शोभा थी। उस गंभीर निस्तब्ध रात्रि में विराट चतुर्भुज विशु प्रतिमा के सामने दोनों महापुरुष हाथ पकड़े खड़े थे। किसको किसने पकड़ा है? ज्ञान ने भक्ति का हाथ पकड़ा है, धर्म के हाथ में कर्म का हाथ है, विजर्सन ने प्रतिष्ठा का हाथ पकड़ा है। सत्यानंद ही शांति है- महापुरुष ही कल्याण है- सत्यानंद प्रतिष्ठा है- महापुरुष विसर्जन है। विसर्जन ने आकर प्रतिष्ठा को साथ ले लिया।